श्रीलंका में नए नेतृत्व के बाद भी भारत से संबंधों पर नहीं पड़ेगा असर, चीन और अमेरिका को लेकर डांवाडोल रुख
पहले भारत और अमेरिका के हित एशिया में समान थे। मोटे तौर पर अमेरिका और भारत एक ही पाले में खड़े दिख रहे हैं। जहां तक चीन की बात है तो वह भारत और अमेरिका दोनों के लिए खतरा है। चीन आर्थिक आधार पर अपनी छाप छोड़ने की कोशिश करता है लेकिन उसका भंडाफोड़ हो चुका है। ऐसे में श्रीलंका को फूंक-फूंक कर कदम रखना होगा।
नई दिल्ली, अनुराग मिश्र/ संदीप राजवाड़े। 21 सितंबर को होने वाले चुनाव के लिए तैयार श्रीलंकाई मतदाताओं के लिए अपना नेता चुनना आसान नहीं है। श्रीलंका के 1.7 करोड़ योग्य मतदाताओं को 38 उम्मीदवारों में से एक उम्मीदवार को चुनना होगा। 2019 में, जब गोटाबाया राजपक्षे राष्ट्रपति चुने गए थे, तब से अब तक के पांच वर्षों में, देश के राजनीतिक परिदृश्य और आर्थिक लक्ष्य में भारी बदलाव आया है, जिससे यह राष्ट्रपति चुनाव इस देश राष्ट्र में अब तक देखे गए किसी भी अन्य राष्ट्रपति चुनाव से अलग है। यही नहीं श्रीलंका की अर्थव्यवस्था संकट से बाहर आ गई है, लेकिन अभी भी आय के स्तर में सुधार नहीं हुआ है, इस चुनाव में मुख्य मुद्दा है। 2022 में मुद्रास्फीति 70% से घटकर 5% से नीचे आ गई है, और विदेशी भंडार में वृद्धि हुई है। 2024 के लिए 2% की वृद्धि का भी अनुमान है, जो आर्थिक पतन के बाद से सबसे अधिक है। इसके अलावा दक्षिण एशिया के लिहाज से यह चुनाव काफी महत्वपूर्ण है। अमेरिका, चीन और भारत तीनों की नजर इन चुनावों पर टिकी है, क्योंकि चुनाव जीतने वाले का पलड़ा किस तरफ ज्यादा झुकेगा, इसे लेकर फिलवक्त तस्वीर पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। हालांकि अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार मानते हैं कि परिणाम चाहें किसी के पक्ष में हो, भारत के प्रति श्रीलंका का रवैया बेहतर रहेगा।
इससे पहले हुए आठ राष्ट्रपति चुनावों में देश के दो प्रमुख राजनीतिक दलों - सेंटर-लेफ्ट श्रीलंका फ्रीडम पार्टी (एसएलएफपी) और सेंटर-राइट यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) या उनके राजनीतिक दलों ने एक-एक उम्मीदवार खड़ा किया था। इनमें से प्रत्येक चुनाव में दो वैचारिक रूप से विरोधी उम्मीदवारों ने कड़ी टक्कर दी और एक स्पष्ट विजेता निकला। सदीय मतदान के माध्यम से अपदस्थ राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे की जगह लेने वाले मौजूदा राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं। उनके दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी, सजित प्रेमदासा और अनुरा कुमारा दिसानायके विपक्ष में हैं।
मौजूदा राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे एक कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं। हालांकि, वे अभी भी अंतर को कम कर सकते हैं और दूसरी वरीयता के वोट में चुनाव जीत सकते हैं। महिंदा राजपक्षे के बेटे नमल दूसरे मुख्य दावेदार हैं, लेकिन श्रीलंकाई चुनावों के पर्यवेक्षकों के अनुसार, इस चुनाव में उनके लिए कोई मौका नहीं है। राजनीतिक पेंडुलम किसी भी तरफ झुक सकता है। नतीजतन, सभी चार प्रमुख उम्मीदवार - स्वतंत्र रानिल विक्रमसिंघे, नेशनल पीपुल्स पावर के अनुरा कुमारा दिसानायके, श्रीलंका पोडुजना पेरामुना के नमल राजपक्षे और समागी जन बालावेगया के सजित प्रेमदासा - या तो हाल ही में भारत आए हैं या भारत के निमंत्रण पर भारत आने की योजना बना रहे हैं।
राजनीतिक उम्मीदवारों को समझिए
प्रेमदासा, जो कभी विक्रमसिंघे के साथ थे, अब उनकी अलग पार्टी, यूनाइटेड पीपुल्स पावर के नेता हैं। प्रेमदासा ने आईएमएफ कार्यक्रम को जारी रखने का वादा किया है, लेकिन आम नागरिकों पर बोझ कम करने के लिए बदलाव किए हैं। उन्होंने तमिलों को कुछ हद तक सत्ता हस्तांतरण का भी वादा किया है, जो देश की आबादी का लगभग 11% हिस्सा हैं। प्रेमदासा को एक मजबूत तमिल राजनीतिक गुट का समर्थन प्राप्त हुआ है। मार्क्सवादी नेतृत्व वाले गठबंधन नेशनल पीपुल्स पावर के नेता दिसानायके युवाओं के बीच अपनी लोकप्रियता के कारण प्रेमदासा के लिए एक प्रमुख चुनौती के रूप में उभर रहे हैं। इस साल भारत का दौरा करने वाले दिसानायके ने श्रमिक वर्ग की मदद के लिए कल्याणकारी उपायों का वादा किया है। दिसानायके की स्थिति मजबूत है, क्योंकि उनका अतीत के व्यापारिक और राजनीतिक अभिजात्य वर्ग से कोई संबंध नहीं है। छह बार प्रधानमंत्री रह चुके मौजूदा राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे अपनी पार्टी यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) में विभाजन के बाद निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं। उनके दो साल के शासन में देश की अर्थव्यवस्था में आंशिक सुधार हुआ है। चूंकि महंगाई और वस्तुओं की कमी बनी हुई है, इसलिए चुनाव को उनके शासन के जनमत संग्रह के रूप में देखा जा रहा है।
चुनावों में एक भी महिला उम्मीदवार नहीं
इस माह श्रीलंका में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में 38 उम्मीदवारों में से एक भी महिला नहीं है, जबकि हिंद महासागर के इस द्वीप में मतदाताओं और कार्यबल में आधे से अधिक महिलाएं हैं। ब्रिटेन की मार्गरेट थैचर या भारत की इंदिरा गांधी जैसी नेताओं से काफी पहले, श्रीलंका ने 1960 में दुनिया को अपनी पहली महिला प्रधानमंत्री दी थी, जिसके बाद सिरीमावो भंडारनायके को चुना गया, जिस पद पर 30 साल बाद उनकी बेटी भी आसीन हुईं। नए राष्ट्रपति के लिए मतदान करने वाले 17 मिलियन से अधिक श्रीलंकाई लोगों में 52% महिलाएं हैं। लेकिन 1931 में जब से श्रीलंका में सार्वभौमिक मताधिकार लागू हुआ है, तब से संसद में महिलाओं की संख्या कभी भी 7% की सीमा को पार नहीं कर पाई है। आज, वे इसके 225 सदस्यों में से केवल 5.3% हैं, और ऐतिहासिक रूप से कैबिनेट पदों का केवल एक अंश ही उनके पास रहा है। तीन मुख्य दावेदारों में से केवल विक्रमसिंघे ने राजनीति और व्यापार में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देने के लिए विशेष प्रयास की रूपरेखा तैयार की है। प्रेमदासा मातृत्व कानूनों में सुधार करना चाहते हैं और डे-केयर के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाना चाहते हैं। प्रबंधन में महिलाओं को बढ़ावा देने के लिए नियमन, निजी बीमा योजनाएं और श्रम कानूनों का आधुनिकीकरण दिसानायके की प्रतिज्ञाओं में शामिल हैं।
आर्थिक नीतियों को लेकर कश्मकश
पारले पॉलिसी इनीशिएटिव के साउथ एशिया के सीनियर एडवायजर नीरज सिंह मन्हास कहते हैं श्रीलंका के गहराते आर्थिक संकट में, नया नेतृत्व कश्मकश में है। उसके मन में कई सवाल कौंध रहे हैं। क्या आईएमएफ सहायता पर निर्भर रहना जारी रखना है या स्वतंत्र आर्थिक नीतियों को लागू करने पर ध्यान केंद्रित करना है? यदि वे आईएमएफ के 2.9 बिलियन डॉलर के बेलआउट कार्यक्रम के साथ बने रहना चुनते हैं, तो उन्हें राजकोषीय समेकन यानी फिजिकल कंसोलिडेशन (सरकार की वह नीति है जिसके ज़रिए वह अपने घाटे को कम करती है और ऋण संचय पर लगाम लगाती है) और कर उपायों जैसे संरचनात्मक सुधारों को प्राथमिकता देने की आवश्यकता होगी। इससे विदेशी भंडार को स्थिर करने और ऋण बोझ के प्रबंधन की संभावना है। वैकल्पिक रूप से, नेतृत्व आत्मनिर्भर आर्थिक नीतियों की ओर रुख कर सकता है, जिसका लक्ष्य स्थानीय उद्योगों को मजबूत करना, निर्यात को बढ़ावा देना और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों पर निर्भरता कम करना है। हालांकि यह दृष्टिकोण घरेलू हितों के लिए अपील कर सकता है, लेकिन इसमें महत्वपूर्ण वित्तीय जोखिम होंगे, विशेष रूप से सीमित विदेशी भंडार और उच्च ऋण स्तर के संदर्भ में।
चुनाव में प्रमुख मुद्दे
परंपरागत रूप से, 'कार्यकारी राष्ट्रपति पद' को समाप्त करने का वादा सभी के लिए मुख्य चुनावी नारा हुआ करता था। इस बार, एसजेबी/जेवीपी उम्मीदवारों ने भी यही वादा किया है लेकिन वह उतना लुभावना नहीं दिख रहा है। विक्रमसिंघे बेधड़क होकर कह रहे हैं कि 'श्रीलंका' आर्थिक संकट से उबर सकता है। दिसानायके ने हाल ही में खाद्य, चिकित्सा और शैक्षिक वस्तुओं पर वैट हटाने का वादा किया, लेकिन यह नहीं बताया कि वे उच्च घाटे को कैसे संबोधित करना चाहते हैं। प्रेमदासा ने आईएमएफ कार्यक्रम को जारी रखने के साथ गरीब लोगों पर बोझ कम करने के लिए बदलाव का वादा किया है। उन्होंने तमिल समुदाय को सत्ता सौंपने का वादा करके लुभाने की कोशिश की है। देश की आबादी का लगभग 11 प्रतिशत हिस्सा तमिल अब भी एक विफल हिंसक आंदोलन से उबर रहा है। कमोबेश प्रेमदासा और दिसानायके दोनों ने सार्वजनिक रूप से आईएमएफ कार्यक्रम में सुधार करने की अपनी मंशा जाहिर की है, ताकि जीवन-यापन की लागत कम की जा सके और श्रीलंकाई लोगों पर ऋण चुकौती का बोझ कम किया जा सके। विक्रमसिंघे का प्रशासन श्रीलंका के भारी कर्ज को पुनर्गठित करने और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए अंतरराष्ट्रीय ऋणदाताओं के साथ बातचीत कर रहा है। मार्च 2023 में, आईएमएफ ने श्रीलंका की मदद के लिए चार साल के बेलआउट कार्यक्रम को मंजूरी दी।
दक्षिण एशिया का संतुलन और अमेरिका का असर
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर डा. संजय भारद्वाज कहते हैं कहते हैं कि पहले भारत और अमेरिका के हित एशिया में समान थे। दोनों चीन के प्रभाव को कम करने और सुरक्षा को लेकर एकमत थे। अमेरिका भी इस क्षेत्र में अपना दबदबा कम नहीं करना चाहता। इसे त्रिकोणीय हितों के नजरिए से देखा जा सकता है। मोटे तौर पर अमेरिका और भारत एक ही पाले में खड़े दिख रहे हैं। जहां तक चीन की बात है तो वह भारत और अमेरिका दोनों के लिए खतरा है। चीन आर्थिक आधार पर अपनी छाप छोड़ने की कोशिश करता है लेकिन उसका भंडाफोड़ हो चुका है। भारत और अमेरिका के मापदंड और हितों में खास परिवर्तन नहीं नजर आता।
आर्थिक दिशा में बदलाव भारत, चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे प्रमुख अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों के साथ श्रीलंका के संबंधों को भी प्रभावित करेगा। भारत संकट के दौरान एक महत्वपूर्ण भागीदार रहा है, जो अर्थव्यवस्था को स्थिर करने में मदद करने के लिए आपातकालीन वित्तीय सहायता और क्रेडिट लाइनें प्रदान कर रहा है। यदि श्रीलंका का नया नेतृत्व अधिक संरक्षणवादी रुख अपनाता है या आत्मनिर्भरता पर ध्यान केंद्रित करता है, तो इससे भारतीय सहायता पर निर्भरता कम हो सकती है। हालांकि, भारत के साथ व्यापार और निवेश संबंध महत्वपूर्ण हैं, और किसी भी तरह की प्रतिकूल नीतियों के नकारात्मक आर्थिक परिणाम हो सकते हैं। दूसरी ओर, श्रीलंका में चीन का प्रभाव, विशेष रूप से बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के तहत हंबनटोटा बंदरगाह जैसी परियोजनाओं के माध्यम से, महत्वपूर्ण बना हुआ है। एक नई सरकार चीनी ऋण की शर्तों पर फिर से बातचीत करने या चीन पर निर्भरता कम करने की कोशिश कर सकती है, क्योंकि कई लोग ऋण संकट को बढ़ाने के लिए चीनी निवेश को दोषी मानते हैं। हालांकि, चीन के रणनीतिक महत्व और श्रीलंका में उसकी दीर्घकालिक बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को देखते हुए, बीजिंग से पूरी तरह दूरी बनाना मुश्किल साबित हो सकता है।
नीरज मानते हैं कि आईएमएफ समर्थित सुधारों के समर्थन के माध्यम से संयुक्त राज्य अमेरिका भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। क्या नए नेतृत्व को आईएमएफ से दूरी बनानी चाहिए और स्वतंत्र नीतियों का विकल्प चुनना चाहिए, इससे अमेरिका के साथ आर्थिक संबंधों में तनाव आ सकता है। हालांकि रणनीतिक हित, विशेष रूप से हिंद महासागर में सुरक्षा और समुद्री व्यापार की वजह से एक दूसरे के साथ रहना बाध्यकारी हो सकता है। कुल मिलाकर, श्रीलंका का नया नेतृत्व जो रास्ता चुनता है - चाहे आईएमएफ सहायता जारी रखना हो या घरेलू आर्थिक रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करना हो - न केवल देश की आर्थिक सुधार को आकार देगा, बल्कि भारत, चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसी प्रमुख शक्तियों के साथ उसके संबंधों को भी फिर से परिभाषित करेगा।
चीन के प्रभाव और भारत की चिंता को कैसे साधेगा श्रीलंका
नीरज सिंह कहते हैं कि चीन के बढ़ते प्रभाव के कारण श्रीलंका के राजनीतिक नेतृत्व में बदलाव से भारत के साथ उसके सुरक्षा संबंधों पर काफी असर पड़ सकता है । ऐतिहासिक रूप से, श्रीलंका ने भारत और चीन दोनों के साथ अपने संबंधों के बीच एक नाजुक संतुलन बनाए रखा है। भारत श्रीलंका को अपने रणनीतिक पड़ोस में एक महत्वपूर्ण भागीदार के रूप में देखता है। करीबी भौगोलिक निकटता और ऐतिहासिक संबंधों के कारण यह द्वीप भारत के हिंद महासागर सुरक्षा ढांचे का एक अनिवार्य तत्व बन गया है। श्रीलंका के राजनीतिक नेतृत्व में किसी भी बदलाव पर भारत बारीकी से नजर बनाए हुए हैं, खासकर इस संदर्भ में कि यह चीनी हितों के साथ कैसे मेल खाता है।
हंबनटोटा बंदरगाह जैसी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के तहत रणनीतिक निवेश के माध्यम से यदि श्रीलंका में नया नेतृत्व चीन के साथ अपने संबंधों को लगातार मजबूत करता रहता है, तो भारत इसे सुरक्षा चिंता के रूप में देख सकता है। श्रीलंका में चीन की बढ़ती पकड़ को भारत हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए एक व्यापक भू-राजनीतिक रणनीति के रूप में देखता है। अगर क्षेत्र में चीनी सैन्य या सुरक्षा गतिविधियां बढ़ती हैं तो भारत इसे सकारात्मक तौर पर नहीं ले सकता। वहीं कोई भी राजनीतिक कदम जो श्रीलंका को चीन के करीब लाता है, भारत और श्रीलंका के बीच तनाव बढ़ा सकता है। । भारत आईओआर में अपनी सुरक्षा उपस्थिति को मजबूत करने, कोलंबो के साथ अपने राजनयिक जुड़ाव को बढ़ाने और चीनी प्रभाव को संतुलित करने के लिए आर्थिक और सैन्य सहायता की पेशकश कर सकता है।
अनुरा कुमारा दिसानायके, साजिथ प्रेमदासा और रानिल विक्रमसिंघे के जीतने की स्थिति में
फोरम फॉर ग्लोबल स्टडीज के संस्थापक डा. संदीप त्रिपाठी कहते हैं कि नए नेतृत्व के साथ भारत और चीन के साथ संबंधों में कोई टेक्टोनिक शिफ्ट नहीं आएगा, भले ही दिसनायके या साजिथ प्रेमदासा चुनाव जीत जाएं। हालांकि, श्रीलंकाई विदेश नीति राजनीतिक दल के रुझान से प्रेरित रही है। श्रीलंका की प्रमुख विपक्षी पार्टियों में से एक, जेवीपी ने ऐतिहासिक रूप से भारत को एक विस्तारवादी शक्ति के रूप में देखा है जो श्रीलंका को उपनिवेश बनाने की कोशिश कर रही है।आखिरकार, हाल ही में, पार्टी ने अपना रुख भारत की ओर मोड़ना शुरू कर दिया। एनएसए अजीत डोभाल और विदेश मंत्री एस. जयशंकर के साथ दिसानायके की बैठकों ने चुनाव से पहले नई संभावनाएं पैदा की हैं। 2022 के आर्थिक संकट के दौरान, भारत ने 4.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की आर्थिक और मानवीय सहायता प्रदान की और श्रीलंका के ऋण पुनर्गठन प्रयासों का समर्थन किया। इस पृष्ठभूमि में, श्रीलंका के साथ भारत के संबंध चुनाव के बाद भी मजबूत होने की उम्मीद है, चाहे कोई भी सत्ता में आए, चाहे वह दिसानायके हों या साजिथ प्रेमदासा।
श्रीलंका पर चीन की उपस्थिति काफी है। जब बुनियादी ढांचे के विकास की बात आती है, तो चीन की तुलना में श्रीलंका में भारत की भागीदारी कम है। मेरा मानना है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में या तो और या दृष्टिकोण हमेशा मौजूद नहीं होता है। इसलिए, मुझे विपक्षी नेताओं दिसनायके या साजिथ प्रेमदासा के चुनावी एजेंडे में कोई 180 डिग्री का बदलाव नहीं दिख रहा है।
नीरज सिंह कहते हैं कि यदि अनुरा कुमारा दिसानायके या साजिथ प्रेमदासा जैसे विपक्षी नेता श्रीलंका में सत्ता में आते हैं, तो भारत और चीन के साथ इसके संबंधों में विदेश नीति में उल्लेखनीय बदलाव हो सकते हैं। खासकर दोनों नेताओं ने श्रीलंका के भविष्य के लिए अलग-अलग दृष्टिकोण व्यक्त किए हैं।
अगर साजिथ प्रेमदासा चुनाव जीतते हैं तो वह भारत के साथ मजबूत संबंध बनाए रखने और चीन के साथ सतर्क, लेकिन फिर भी सहयोगात्मक संबंध अपनाने पर जोर देंगे। वहीं इस दौर में आर्थिक सुधार और सुधार सुनिश्चित करने के लिए साझेदारी की संभावना अधिक है। इसके विपरीत, अनुरा कुमारा दिसानायके विदेशी निर्भरता को कम करने के लिए अधिक आंतरिक राष्ट्रवादी दृष्टिकोण अपना सकते हैं, जो श्रीलंका की अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम भरा हो सकता है। यह उस स्थिति में भी हानिकारक हो सकता है जब विदेशी निवेश घटता है। दोनों नेतृत्व श्रीलंका की आर्थिक और भूराजनीतिक स्थिति के लिए नई चुनौतियां और अवसर पेश करेंगे, लेकिन प्रेमदासा का दृष्टिकोण आर्थिक और राजनयिक संबंधों में स्थिरता सुनिश्चित करने की अधिक संभावना है।
आईएमएफ समर्थन और व्यापक अमेरिकी प्रभाव पर अपनी निर्भरता के संबंध में यदि साजिथ प्रेमदासा या अनुरा कुमारा दिसानायके जैसा कोई नया नेता श्रीलंका में सत्ता में आता है, तो संभावना है कि देश संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ अपने संबंधों का पुनर्मूल्यांकन कर सकता है। रानिल विक्रमसिंघे के तहत, श्रीलंका ने आईएमएफ समर्थित आर्थिक सुधारों को अपनाया है।
यदि प्रेमदासा जीतते, तो उनका दृष्टिकोण संभवतः व्यावहारिक रहता। आर्थिक स्थिरता बनाए रखने और सुधार जारी रखने पर उनका ध्यान केंद्रित होता। प्रेमदासा पूरी तरह से अमेरिकी प्रभाव या आईएमएफ से अलग नहीं हो सकते, क्योंकि श्रीलंका की अर्थव्यवस्था अभी भी नाजुक और भारी कर्ज में डूबी हुई है। आईएमएफ और, अमेरिका के साथ अचानक संबंध तोड़ने के नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं। हालांकि, वह श्रीलंका के आर्थिक निर्णय लेने में अधिक स्वतंत्रता पर जोर दे सकते हैं, अमेरिका और चीन और भारत जैसी अन्य वैश्विक शक्तियों के बीच संबंधों को संतुलित कर सकते हैं, ताकि किसी एक भागीदार पर अत्यधिक निर्भरता से बचा जा सके।
इसके विपरीत, अनुरा कुमारा दिसानायके, अपनी अधिक राष्ट्रवादी, वामपंथी नीतियों के साथ, वास्तव में श्रीलंका को अमेरिका और आईएमएफ सहित पश्चिमी प्रभाव से दूर करने में अधिक मुखर रुख अपना सकते हैं। वह विदेशी हस्तक्षेप के आलोचक रहे हैं और एक ऐसी आर्थिक रणनीति की वकालत कर सकते हैं जो बाहरी सहायता पर आत्मनिर्भरता और घरेलू सुधारों को प्राथमिकता दे। इसके परिणामस्वरूप आईएमएफ पर निर्भरता कम हो सकती है, संभवतः आईएमएफ कार्यक्रमों पर फिर से बातचीत करना या उन्हें अस्वीकार करना भी हो सकता है यदि उन्हें श्रीलंका की संप्रभुता के लिए बहुत अधिक प्रतिबंधात्मक या हानिकारक माना जाता है। दिसनायके का नेतृत्व चीन जैसी गैर-पश्चिमी शक्तियों के साथ घनिष्ठ संबंधों को प्रोत्साहित कर सकता है या क्षेत्रीय गठबंधनों की तलाश कर सकता है जो वित्तीय और रणनीतिक समर्थन के वैकल्पिक रूप प्रदान करते हैं।
डा. संदीप त्रिपाठी कहते हैं कि साजिथ प्रेमदासा का मानना है कि श्रीलंका को आईएमएफ और श्रीलंका सरकार के बीच मौजूदा समझौते में "बुनियादी बदलाव" की जरूरत है। और लोगों पर बोझ कम करने के लिए इसे अधिक "मानवतावादी तरीके" पर आधारित होना चाहिए। दूसरी ओर, ए.के. दिसनायके ने श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था को उसके मौजूदा मॉडल यानी 'खरीदने और बेचने' की मानसिकता से पुनर्गठित करने का संकल्प लिया है।
जानिए चीन ने कैसे कर्ज जाल में फंसाया और भारत ने कैसे उबारा
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर डा. संजय भारद्वाज कहते हैं कि पिछले एक दशक से ज्यादा का राजनीतिक इतिहास देखें तो दो तरह के उम्मीदवार श्रीलंका के चुनावों में प्रभावी तौर पर रहे हैं। एक वह जो भारत को तरजीह देते हैं और दूसरे वह जो चीन की पैरोकारी करते हैं। चीन ने अपने मकसद के तहत श्रीलंका में विस्तार किया। इसमें हंबनटोटा और कोलंबो पोर्ट में चीन की आधिकारिक घुसपैठ हुई । यह भारत के लिए चिंता की बात भी रहा। दूसरा पक्ष इस बात का समर्थक था कि भारत के साथ संबंध दृढ़ रहे। तत्कालीन श्रीलंका राष्ट्रपति सिरिसेना के दौर में जाफना प्रांत पर भारत के सहयोग से 62,000 हाऊसिंग प्रोजेक्ट आया। जाफना-कोलंबो रेलवे ट्रैक का भारत ने निर्माण किया। कई तरह के सकारात्मक प्रोजेक्ट भारत ने अपनाए। राजपक्षे भाईयों जब दोबारा आए तो श्रीलंका का रूझान दोबारा चीन की तरफ बढ़ा दिया जो कि उनके लिए बैकफायर कर गया। इससे वह कर्ज के जाल में फंस गए। उन पर लगातार ऋणों का दबाव बढ़ गया। महिंदा राजपक्षे की पार्टी को शुरुआत से ही चीन की करीबी माना जाता रहा है। उसका सबसे बड़ा मकसद चीन के द्वारा बड़े स्तर पर किया जा रहा निवेश है, जिसे SLPP ने अपने देश में विकास के मॉडल के रूप में पेश किया और मतदाताओं को यकीन दिला दिया कि बाहरी निवेश से श्रीलंका की सूरत बदल सकती है।
ऑर्गेनिक खेती, कोविड में पर्यटकों के कम होने से आर्थिक दिक्कतें बढ़ गई। आर्थिक परेशानियां का सामना कर रहे श्रीलंका के लोगों में असंतोष बढ़ गया और राजपक्षे को अपना पद छोड़ना पड़ा। ऐसी स्थिति में भारत ने श्रीलंका को आर्थिक संकट से निकाला।
भारद्वाज बताते हैं कि भारत ने तेजी से 4.5 बिलियन अमेरिकी डालर से अधिक की सहायता के साथ देश को जीवनदान दिया। भारत ने 2022 के पहले उत्तरार्ध में श्रीलंका को 4 अरब डॉलर की मदद दी थी। इसमें रियायती दर पर लोन और मदद शामिल थे। 2022 में श्रीलंका को जितनी मदद भारत ने दी, वो उसको किसी और देश से मिली आर्थिक मदद से कई गुना ज़्यादा है। भारत ने उन्हें मेडिकल और खाद्य पदार्थों को लेकर काफी मदद की। भारत ने श्रीलंका को आईएमएफ से मदद दिलाने के लिए कूटनीतिक प्रयास भी किए। जुलाई 2020 में ही भारत के रिज़र्व बैंक ने श्रीलंका के केंद्रीय बैंक के साथ करेंसी स्वैप का समझा किया था, जिससे कोविड-19 महामारी के बीच श्रीलंका को फ़ौरी तौर पर 40 करोड़ डॉलर की मदद मिल सके।
क्या विजेता बदलने से बदलेगा भारत के प्रति रवैया ?
संजय भारद्वाज कहते हैं कि रानिल विक्रमसिंघे, दिसानायके या सजित प्रेमदासा में से कोई भी चुनाव जीतता है, भारत के साथ संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। श्रीलंका की जनता भी भारत के साथ मधुर संबंध चाहती है, ऐसे में कोई भी नेता इस बात का जोखिम नहीं लेना चाहेगा कि भारत के साथ अपने रिश्तों को कमजोर करें। जाहिर है कि श्रीलंका की आर्थिक स्थिति भी उतनी दुरूस्त नहीं है कि वह भारत के साथ किसी भी तरह का बैर मोल ले सकें। मालदीव, बांग्लादेश जैसी स्थिति फिलवक्त श्रीलंका में नहीं दिखती है। यह बात भी काफी हद तक सही है कि चीन जो इकोनॉमिक चमत्कार श्रीलंका में करने की बात कर रहा था, उसमें वह पूर्णत : असफल रहा है। श्रीलंका की जनता भी इस सच से भली-भांति वाकिफ है। श्रीलंका की जनता यह भी जान चुकी है कि राजनीतिक स्थायित्व, आर्थिक विकास और सुरक्षा के मामले में भारत को कोई विकल्प नहीं है।
क्या तमिल निर्णायक कारक होंगे ?
सिंहली वोटों के चारों उम्मीदवारों के बीच बंटने की संभावना के साथ, अल्पसंख्यक हिंदू, मुस्लिम और ईसाई, जो सभी तमिल बोलते हैं, निर्णायक कारक हो सकते हैं। वे राजपक्षे को विश्वसनीय नहीं मानते, क्योंकि वे गृहयुद्ध के अंतिम चरण (2006-2009) के दौरान श्रीलंकाई सेना द्वारा हजारों निर्दोष नागरिकों की हत्या का दोष राजपक्षे प्रशासन की नीतियों पर मढ़ते हैं। विक्रमसिंघे के मितव्ययिता उपायों और करों में वृद्धि के कारण आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं, जो देश में भी अलोकप्रिय हैं। अप्रैल में जारी विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 2023 में 25.9 प्रतिशत से अधिक श्रीलंकाई नागरिक गरीबी रेखा से नीचे रह रहे होंगे। भारद्वाज कहते हैं कि भारत अल्पसंख्यक खासकर तमिल समुदाय के हितों को भी श्रीलंका की सरकार ध्यान में रखें।
चुनाव कैसे होता है?
21 सितम्बर को पूरे दिन वोट डाले जायेंगे तथा परिणाम अगले दिन शाम तक आने की उम्मीद है। मतदाता अपनी पसंद के क्रम में मतपत्र से तीन उम्मीदवारों का चयन कर सकते हैं। सबसे पहले पहली वरीयता की गणना की जाएगी और वैध मतों में से 50 से अधिक मत प्राप्त करने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित किया जाएगा।
अगर कोई स्पष्ट विजेता नहीं है, तो पहले दो उम्मीदवारों को दौड़ में बनाए रखा जाएगा और नंबर एक के लिए अन्य उम्मीदवारों को चुनने वाले मतपत्रों की जांच की जाएगी कि शीर्ष दो दावेदारों में से कोई उनकी दूसरी या तीसरी पसंद है या नहीं। उन वोटों को शेष दो उम्मीदवारों की संख्या में जोड़ दिया जाएगा। सबसे अधिक संख्या पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित किया जाएगा।
श्रीलंका में एक शक्तिशाली कार्यकारी राष्ट्रपति प्रणाली है जिसमें राष्ट्रपति राज्य, सरकार, कैबिनेट और सशस्त्र बलों का प्रमुख होता है। प्रधानमंत्री के पास कैबिनेट मंत्रियों की सिफारिश करने जैसी कुछ शक्तियां हैं।
प्रदर्शन के बाद शुरू हुआ था आंदोलन
श्रीलंका में 2022 में शुरू हुए राजनीतिक और आर्थिक उथल-पुथल के बाद यह चुनाव अपनी तरह का पहला चुनाव होगा। यह संकट बजट और व्यापार घाटे, बढ़ते कर्ज और विदेशी भंडार में भारी कमी जैसे संरचनात्मक आर्थिक मुद्दों के कारण शुरू हुआ था, जिसके कारण आवश्यक वस्तुओं की कमी और अत्यधिक मुद्रास्फीति हुई। भोजन और राशन के लिए लंबी लाइनें, बिजली की कमी, बिजली की ऊंची कीमतें, साथ ही राजनेताओं द्वारा अपने वादों को पूरा करने में विफल रहने के कारण 'नई प्रणाली' की मांग करते हुए देशव्यापी विरोध प्रदर्शन हुए। हालांकि आंदोलन काफी हद तक शांतिपूर्ण रहा, लेकिन कई मौकों पर हिंसा, झड़प और आगजनी की खबरें आईं। अपने अंतिम दिनों में, प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति भवन में धावा बोल दिया, जिससे राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे को इस्तीफा देना पड़ा।