बांग्लादेश में चीन-पाकिस्तान का दखल और कट्टरपंथ बढ़ने की आशंका
स्वाधीनता के समय से ही भारत ने हमेशा बड़े भाई की भूमिका निभाई लेकिन मौजूदा हालात में भारत-बांग्लादेश के संबंध यथावत रहेंगे यह तो आने वाले वक्त बताएगा। बांग्लादेश में अस्थिरता की वजह से भारत की सुरक्षा के लिए किस तरह की चुनौती बनेगी यह यक्ष प्रश्न है। सवाल यह भी है कि क्या चीन-पाकिस्तान इस मौके का लाभ उठाकर भारत के खिलाफ खेमेबंदी को मजबूत करेंगे?
नई दिल्ली, अनुराग मिश्र। स्वाधीनता के बाद से ही बांग्लादेश के प्रारंभिक वर्ष राजनीतिक अस्थिरता से भरे थे। देश में 13 शासक आए और 4 सैन्य बगावतें हुई। पाकिस्तान की तरह बांग्लादेश में भी उथल-पुथल का दौर चलता रहा, लेकिन हाल के वर्षों में उसने वैभव, संपन्नता और विश्व में एक नए उभरते राष्ट्र के तौर पर भी पहचान बनाई। हालांकि अपनी इस समृद्धि को वह लंबे समय तक सहेज कर नहीं रख सका। लगातार हिचकोले खाती सत्ता, नेताओं और जनता के बीच अंतर्द्वंद्व और आर्थिक समृद्धि के बुलबुले ने बांग्लादेश को कभी ‘आमार सोनार बांग्ला’ बनने नहीं दिया। हाल के प्रदर्शनों ने वैश्विक पटल पर बांग्लादेश की अस्थिर राष्ट्र की छवि को उकेर दिया। इसने न केवल इसे आर्थिक तौर पर कमजोर किया बल्कि लोकतांत्रिक तौर पर भी अस्थिर मुल्क का ठप्पा लगाया। बीते कुछ दशकों में भारत और बांग्लादेश की दोस्ती ने नित नए आयाम गढ़े। स्वाधीनता के समय से ही भारत ने हमेशा बड़े भाई की भूमिका निभाई जो हर आड़े वक्त पर हमेशा साथ खड़ा और सलाह देता दिखा, लेकिन मौजूदा हालात में भारत-बांग्लादेश के संबंध यथावत रहेंगे या उनकी गर्मजोशी में कमी आएगी, यह तो आने वाले वक्त बताएगा। बांग्लादेश में अस्थिरता की वजह से भारत की सुरक्षा के लिए किस तरह की चुनौती बनेगी, यह यक्ष प्रश्न है। सवाल यह भी है कि क्या चीन-पाकिस्तान इस मौके का लाभ उठाकर भारत के खिलाफ खेमेबंदी को मजबूत करेंगे? ऐसे हालात में भारत को संतुलन स्थापित करने के लिए किस तरह की रणनीति बनाने की आवश्यकता है, जो वैश्विक स्तर पर उसकी लगातार बढ़ती स्थिति को और मजबूत करे।
हाल के प्रदर्शन के पीछे वजह
बांग्लादेश में दो प्रमुख पार्टियां हैं, एक है आवामी लीग जिसकी प्रमुख शेख मुजीब उर रहमान की बेटी शेख हसीना हैं। दूसरी पार्टी है बीएनपी, जिसकी प्रमुख खालिदा जिया हैं। शेख हसीना ने पहली बार 1996 में चुनाव जीता था। ले. कर्नल सोढ़ी बताते हैं, वहां कानून था कि बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वालों को 30 फीसदी रिजर्वेशन मिलेगा। शेख हसीना ने 1997 में इस कानून में संशोधन किया कि स्वतंत्रता सेनानियों के साथ उनके बच्चों को भी रिजर्वेशन मिलेगा। इससे जनता में नाराजगी बढ़ने लगी। उनकी मांग थी कि जो देश के लिए लड़े उन्हें तो रिजर्वेशन मिले, लेकिन उनके बच्चों को रिजर्वेशन क्यों देना? तब भी इसे लेकर प्रदर्शन हुआ, लेकिन वह छोटे स्तर पर रहा और उसे दबा दिया गया। 2011 में शेख हसीना ने एक और भारी गलती की। एक नया कानून लाया गया, जिसके मुताबिक स्वतंत्रता सेनानियों के नाती-पोतों को भी आरक्षण मिलेगा। इससे बांग्लादेश में बड़े स्तर पर आक्रोश हुआ। इसके खिलाफ कभी कम तो कभी ज्यादा नाराजगी बढ़ती रही।
लगातार 15 साल शासन के दौरान शेख हसीना ने बांग्लादेश के इलेक्शन कमीशन या ब्रॉडकास्टिंग काउंसिल जैसी संस्थाओं में तानाशाही चलाई और अपने लोगों को रखा। इससे भी लोगों में आक्रोश बढ़ रहा था। पिछले कुछ सालों में बांग्लादेश ने आर्थिक रूप में काफी तरक्की की। उनका निर्यात तेजी से बढ़ रहा था। लोगों के पास पैसे आने लगे तो उन्हें लगने लगा कि उनके लोकतांत्रिक अधिकार कुचले जा रहे हैं। यूनाइटेड इंस्टीट्यूट ऑफ पीस की रिपोर्ट के अनुसार इस आंदोलन के पीछे कई वजह थी। एक तरफ बढ़ती महंगाई के बीच नौकरियों की कमी से छात्रों के बीच पहले से असंतोष का माहौल था तो दूसरी तरफ सरकार सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग के पक्ष में धांधली कर रही है, इस धारणा ने जनता के बीच असंतोष को बढ़ावा दिया। विरोध प्रदर्शनों के प्रति सरकार की कठोर प्रतिक्रिया ने तनाव को बढ़ा दिया और अशांति को बढ़ाने में योगदान दिया।
लेफ्टिनेंट कर्नल (रिटायर्ड) जे.एस.सोढ़ी कहते हैं कि रिजर्वेशन का मुद्दा हाल में नए सिरे से उठा तो शेख हसीना ने एक बयान दिया कि “क्या मैं रजाकार को रिजर्वेशन दूं?” बांग्लादेश में रजाकार बहुत घिनौना शब्द माना जाता है। रजाकार उन्हें कहते हैं, जिन्होंने 1971 में बांग्लादेश की आजादी की जंग में पाकिस्तान की तरफ से लड़ाई लड़ी थी। उन्हें एक तरह से देशद्रोही समझा जाता है।
शेख हसीना ने प्रदर्शनकारियों के लिए रजाकार शब्द का इस्तेमाल किया तो वे भड़क गए। इसी की परिणति यह रही कि 5 अगस्त को शेख हसीना का 15 साल का कार्यकाल खत्म हो गया और उन्हें वहां से भागना पड़ा। इस बीच, बांग्लादेश में अस्थिरता से पाकिस्तान और चीन को मौका मिल गया। शेख हसीना के कार्यकाल में इन दोनों देशों को काफी परेशानी थी। उन्होंने वहां के लोगों के प्रदर्शन को प्रोत्साहित करना शुरू किया और पैसे भी दिए। कांग्रेसनल रिसर्च सर्विस के लेख में लिखा गया है कि बांग्लादेश धीरे-धीरे एक पार्टी का मुल्क बनता जा रहा है। पर्यवेक्षकों ने 2018 के चुनाव को निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं माना है।
भारत की तरह ही बांग्लादेश में भी संवैधानिक प्रधान राष्ट्रपति होता है, जबकि प्रधानमंत्री देश का प्रशासनिक प्रमुख होता है। राष्ट्रपति को हर पांच साल बाद चुना जाता है। प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। प्रधानमंत्री ऐसे व्यक्ति को चुना जाता है जो संसद का सदस्य हो और राष्ट्रपति को विश्वास दिलाये कि उसे संसद में बहुमत हासिल है। प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों की कैबिनेट गठित करता है जिसकी नियुक्ति की मंजूरी राष्ट्रपति देता है। बांग्लादेश की संसद को जातीय (राष्ट्रीय) संसद कहा जाता है, जिसके 300 सदस्य चुनकर आते हैं। उनका चुनाव पांच साल के लिए होता है।
प्रगति से मौजूदा संकट तक
वस्त्र उद्योग, विशेषकर रेडीमेड गारमेंट निर्यात में बांग्लादेश का प्रदर्शन सराहनीय रहा है। इस उद्योग के दम पर वहां 2.5 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकल पाए और महिलाओं के सशक्तीकरण में भी बहुत मदद मिली। बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय पिछले कुछ वर्षों से भारत से भी अधिक थी और कई मानव सूचकांकों पर इसका प्रदर्शन शानदार रहा था।
हालांकि, कोविड-19 महामारी के बाद वैश्विक स्तर पर मांग कमजोर होने के बाद बांग्लादेश में परिस्थितियां बिगड़ने लगी थीं। वहां सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर सुस्त पड़ने लगी और भुगतान संतुलन का संकट बिगड़ता चला गया। पिछले वर्ष इस देश को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से सहायता लेनी पड़ी।
कोविड पूर्व दर्ज आर्थिक वृद्धि दोबारा हासिल करने और रोजगार के अवसर तैयार करने के लिए बांग्लादेश में निजी निवेश का दायरा वस्त्र निर्यात से आगे ले जाने की आवश्यकता स्पष्ट रूप से महसूस की जा रही है। परंतु, ऐसा कर पाने में देश संघर्ष करता दिख रहा है। निजी निवेश सीमित रहने से सरकारी नौकरियों पर वहां के युवाओं की निर्भरता बढ़ने लगी। ऐसे आरोप लगते रहे कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ सत्ताधारी अवामी लीग से संबद्ध लोगों को मिल रहे हैं।
भ्रष्टाचार और गरीबी की चुनौती
पारले पॉलिसी इनीशिएटिव के साउथ एशिया के सीनियर एडवाइजर नीरज सिंह मन्हास कहते हैं, भ्रष्टाचार और गरीबी व्यापक चुनौतियां रही हैं। इन्होंने बांग्लादेश में शासन और राजनीतिक स्थिरता को प्रभावित किया है। भ्रष्टाचार ने सरकारी संस्थानों का प्रभाव कम कर दिया, जिससे राजनीतिक संरक्षण और अस्थिरता का चक्र शुरू हो गया है। गरीबी ने विकास को बाधित किया और असंतोष को बढ़ावा दिया है। इससे दीर्घकालिक, टिकाऊ आर्थिक नीतियों को लागू करना चुनौतीपूर्ण हो गया है।
ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर और दक्षिण एशियाई मामलों की जानकार डॉ. गुंजन सिंह कहती हैं, भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा रहा है क्योंकि शेख हसीना के किसी वरिष्ठ अधिकारी के भी घोटाला करने की खबरें आई हैं। एक और बात देखने में आई है कि शेख हसीना के शासन में उनकी पार्टी अवामी लीग के समर्थकों का ही विकास अधिक हुआ है। यह बात सही है कि पिछले 10 साल में प्रति व्यक्ति आय तीन गुना हुई है, आर्थिक विकास दर काफी तेज रही, लेकिन यह भी देखना होगा कि फायदा किसको हुआ। अगर सभी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट अवामी लीग समर्थकों के हैं, तो लोगों में रोष तो बढ़ेगा ही। वहां ग्रोथ संतुलित नहीं है।
डॉ. गुंजन के मुताबिक, बांग्लादेश में मैन्युफैक्चरिंग बढ़ी है, लेकिन पढ़े-लिखे युवाओं के लिए नौकरी नहीं है। वहां मैन्युफैक्चरिंग में जो रोजगार बढ़ा, वह कम स्किल वालों और महिलाओं के लिए है। इसलिए कोटा के प्रावधान का छात्रों ने विरोध किया। उनका कहना था कि जहां पहले ही नौकरियां कम हैं, वहां अगर कोटा लगा दिया जाए तो वे कहां जाएंगे? सुप्रीम कोर्ट ने बाद में सरकार के फैसले को खारिज भी किया, लेकिन तब तक रोष काफी बढ़ चुका था।
डॉ. गुंजन कहती हैं, भ्रष्टाचार के साथ गरीबी भी बढ़ती रही, क्योंकि आमदनी एक खास तबके की ही बढ़ रही थी। बांग्लादेश की इकोनॉमी एक सेक्टर पर ही निर्भर थी। विपक्षी दल के समर्थकों के परिवारों पर दबाव डाले जाने, उन्हें नौकरी से हटाए जाने की अनेक खबरें भी आई हैं।
शेख हसीना के 15 साल के शासन के खिलाफ आम लोगों में भी असंतोष था। सरकार ने शुरू में छात्रों के विरोध प्रदर्शन से जिस तरह निपटा, छात्रों की मौत हुई, पुलिस वाले जहां-तहां गोलियां चला रहे थे, उससे हालात और बिगड़े। यह खबर भी आई थी कि सेना ने छात्रों और प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था। इससे पता चलता है कि सेना में भी कुछ हद तक असंतोष पनप रहा था।
ब्रिटेन के विदेश मंत्री डेविड लैमी ने शांति की वकालत करते हुए कहा था कि बीते कुछ सप्ताह बांग्लादेश ने अप्रत्याशित स्तर की हिंसा और जीवन-हानि का सामना किया है। वहां के सेना चीफ ने एक संक्रमण-काल घोषित किया था। सभी पक्षों से अनुरोध है कि हिंसा की समाप्ति, शांति की स्थापना एवं परिस्थिति को सामान्य बनाने की दिशा में काम करे ताकि और जनहानि न हो।
बांग्लादेश में दूसरे देशों की भूमिका
मन्हास के मुताबिक, बांग्लादेश के राजनीतिक परिदृश्य में बाहरी देशों ने भी भूमिका निभाई है। शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ और अमेरिका जैसी महाशक्तियों और भारत-चीन जैसी क्षेत्रीय शक्तियों की भी बांग्लादेश की राजनीतिक में हिस्सेदारी थी। हाल में भारत का महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है, जिसे अक्सर एक रक्षा सहयोगी के रूप में देखा जाता है। चीन ने निवेश और राजनयिक संबंधों के माध्यम से अपनी उपस्थिति बढ़ाई है। इन बातों को कई बार बांग्लादेश की विदेश नीति और उसके आंतरिक निर्णयों को आकार देने में हस्तक्षेप के रूप में भी देखा जाता है।
डॉ. गुंजन कहती हैं, बांग्लादेश में जो हालात बदले हैं उसमें बाहरी ताकतों की भूमिका ज्यादा नहीं लगती। वहां अस्थिरता किसी भी देश के हित में नहीं है। शेख हसीना का 15 साल का कार्यकाल देखें तो भारत के साथ तो उनके संबंध अच्छे थे ही, उनके संबंध चीन के साथ भी अच्छे थे। उन्होंने बीआरआई के तहत चीन को निवेश करने की अनुमति दी। शेख हसीना ने भारत और चीन के संबंधों को अच्छी तरह संतुलित करके रखा था। उन्हें मालूम था कि भारत का साथ लॉन्ग टर्म में मददगार होगा। शेख हसीना की सरकार गिरने में अमेरिका की भूमिका के बारे में कुछ बयान आए थे, लेकिन मुझे नहीं लगता कि वह भी वहां अस्थिरता चाहता है। अमेरिका प्रतिबंध के जरिए जरूर दबाव डाल रहा था।
अमेरिका ने अनेक देशों पर प्रतिबंध लगा रखे हैं। एक समय उसने भारत पर भी प्रतिबंध लगाया था। उसने चीन और ईरान पर भी प्रतिबंध लगा रखा है। अमेरिका दबाव डालने के लिए सबसे पहले प्रतिबंध ही लगाता है। उनका बाजार काफी बड़ा है, उनके पास पैसा है। इसके अलावा दूसरे देशों को टेक्नोलॉजी चाहिए। बांग्लादेश के रेडीमेड गारमेंट का अमेरिका बड़ा बाजार है। अमेरिका के प्रतिबंध लगाने से काफी चीजें रुक जाती हैं। बांग्लादेश उभरती अर्थव्यवस्था है। पिछले 15 वर्षों में वह दक्षिण एशिया की सबसे तेज बढ़ने वाली इकोनॉमी में शामिल रहा है।
मन्हास के अनुसार, बांग्लादेश में राजनीतिक माहौल विभिन्न सामाजिक आंदोलनों की पृष्ठभूमि के बीच विकसित हुआ है। 2013 में शाहबाग विरोध जैसे आंदोलन, जिसमें युद्ध अपराधियों के लिए सख्त दंड की मांग की गई थी, ने राजनीतिक प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण सार्वजनिक भागीदारी दिखाई। हाल ही में सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्रणाली के खिलाफ छात्रों के नेतृत्व वाले आंदोलनों ने सरकार को जनता की शिकायतों को सीधे संबोधित करने के लिए मजबूर किया है।
2024 के चुनावों ने भी उत्प्रेरक का काम किया
इंटरनेशनल रिलेशंस, फॉरेन पॉलिसी और स्ट्रेटेजिक अफेयर्स एक्सपर्ट गौरव गोयल कहते हैं, जैसे ही बांग्लादेश की राष्ट्रीय संसद के लिए जनवरी 2024 का चुनाव नजदीक आया, मुख्य विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने बड़े पैमाने पर रैलियों के माध्यम से दबाव बढ़ा दिया और मांग की कि चुनाव कार्यवाहक सरकार के तहत हो। बीएनपी ने जोर देकर कहा कि केवल एक तटस्थ, गैर-पक्षपातपूर्ण प्रशासन ही स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित कर सकता है। सत्तारूढ़ अवामी लीग प्रधानमंत्री शेख हसीना (2009 से सत्ता में) के नेतृत्व में चुनाव कराने पर अड़ी रही।
गौरव बताते हैं, 2023 की शुरुआत से अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के कुछ सदस्य देश बांग्लादेश चुनावों में रुचि दिखा रहे थे। इन देशों के प्रतिनिधियों ने देश में ‘स्वतंत्र, निष्पक्ष और भागीदारीपूर्ण चुनाव’ की संभावनाओं पर चर्चा करने के लिए विपक्ष और अवामी लीग के नेताओं के साथ चुनाव आयोग से भी मुलाकात की। उन्हीं बैठकों में बीएनपी ने कार्यवाहक सरकार की निगरानी में चुनाव कराने की मांग पूरी नहीं होने पर चुनावों का बहिष्कार करने की घोषणा की। अवामी लीग ने जवाब दिया कि जून 2011 में जातीय (राष्ट्रीय) संसद द्वारा पारित 15वें संविधान संशोधन में बांग्लादेश में कार्यवाहक सरकार के तहत चुनाव कराने की प्रथा समाप्त कर दी गई थी।
गौरव के अनुसार, अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ ने बीएनपी के इस दावे का साथ दिया कि अवामी लीग सरकार के रहते स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव चुनौतीपूर्ण होंगे। उन्होंने जोर दिया कि समान अवसर की गारंटी देने का एकमात्र तरीका अवामी सरकार का इस्तीफा है। यहां ध्यान देने वाली बात है कि इन देशों ने 2009 के चुनावों को ‘1991 में संसदीय लोकतंत्र की बहाली के बाद से सबसे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव’ के रूप में सराहा था। पश्चिमी देशों ने शेख हसीना पर पद छोड़ने और बीएनपी की मांग मानने का दबाव बनाना शुरू कर दिया।
इससे पहले भी अमेरिका ने बांग्लादेश में पश्चिमी शैली के लोकतंत्र को बढ़ावा देने की कोशिश की थी। जो बाइडेन ने 2021 और 2023 में अपने शिखर सम्मेलन से बांग्लादेश को बाहर कर दिया था। उसके बाद उनके प्रशासन ने वाशिंगटन डीसी में विश्व बैंक की यात्रा के दौरान पीएम हसीना की अनदेखी की। इसके बाद व्हाइट हाउस ने कई दंडात्मक उपायों की घोषणा की, खास कर बांग्लादेश रैपिड एक्शन बटालियन के खिलाफ, जिसके बारे में व्हाइट हाउस का मानना है कि इसने अतीत में चुनावों में शेख हसीना की मदद की थी।
पश्चिमी दबाव ने बीएनपी को बढ़ावा दिया, जिसने सरकार के खिलाफ बड़ी रैलियों का आयोजन किया है। जून 2023 में जमाते इस्लामी ने 10 वर्षों में पहली बार ढाका में एक विशाल रैली का आयोजन किया।
घटती राजनीतिक जगह ने शेख हसीना को चीन के करीब ला दिया। यह अमेरिका और पश्चिम के साथ भारत के लिए भी चिंता का विषय था, क्योंकि बांग्लादेश और बीजिंग के बीच द्विपक्षीय संबंधों का मुख्य आधार रक्षा साझेदारी थी। बांग्लादेश की रक्षा आपूर्ति में चीन की हिस्सेदारी 72 प्रतिशत है। वह पाकिस्तान के बाद चीनी हथियारों का दूसरा सबसे बड़ा खरीदार है। उसने 2010 से अब तक चीन से 2 अरब डॉलर से अधिक के हथियार खरीदे हैं।
मार्च 2023 में हसीना ने बंगाल की खाड़ी में कुतुबदिया चैनल के पास बांग्लादेश के पहले पनडुब्बी बेस का उद्घाटन किया था, जो दो चीनी पनडुब्बियों का घर होगा। चीनी विशेषज्ञों ने बांग्लादेशी कर्मियों को बेस और पनडुब्बियों को संचालित करने के लिए प्रशिक्षित भी किया है।
इस बीच, अमेरिका ने शेख हसीना को जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की निगरानी के लिए उपग्रह डेटा के मुफ्त रियल टाइम उपयोग की भी पेशकश की। लेकिन सवाल उठता है कि क्या यह पेशकश सिर्फ जलवायु परिवर्तन की निगरानी से संबंधित थी। इससे लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बढ़ावा देने और वैश्विक स्तर पर लोकतांत्रिक आंदोलनों के समर्थन की आड़ में अन्य देशों में अमेरिकी हस्तक्षेप पर गंभीर सवाल उठ सकते हैं। बांग्लादेश में भारत की पूर्व राजनायिक मंजू सेठ कहती हैं, “सेना को किसी का समर्थन था यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन सेना प्रदर्शनों को रोकने के लिए काम नहीं कर रही थी। ऐसा लगता है कि उन्हें कहीं से मैसेज आया था।”
चीन पैदा कर सकता था राजनीतिक अस्थिरता
गौरव गोयल कहते हैं कि शेख हसीना के देश छोड़ने से पहले बांग्लादेश में हुई हिंसा ने यह आशंका पैदा कर दी थी कि चीन अशांति फैलाने और हसीना सरकार को कमजोर करने के लिए राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर सकता है। यह रणनीति नई दिल्ली के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने की हो सकती थी।
शेख हसीना ने 14 जुलाई को एक बयान में (जून में भारत में चुनाव के बाद नई दिल्ली में मोदी से मुलाकात के बाद) एक अरब डॉलर की तीस्ता नदी परियोजना में स्पष्ट रूप से चीन के मुकाबले भारत को प्राथमिकता दी थी। वह वित्तीय सहायता के वादे को पूरा करने में बीजिंग की विफलता और उन्हें उचित प्रोटोकॉल नहीं मिलने से भी नाराज थीं। वह अपनी चीन यात्रा बीच में ही छोड़कर एक दिन पहले ढाका लौट आई थीं।
गौरव गोयल का मानना है, बांग्लादेश चीनी भागीदारी के नकारात्मक परिणामों को लेकर सचेत हो गया है और उससे बचना चाहता है। वे बीजिंग के साथ व्यवहार करते समय अपने राष्ट्रीय हित को ध्यान में रख रहे थे। तीस्ता परियोजना में चीन के साथ न जाना अचानक लिया गया निर्णय नहीं था।
वे कहते हैं, “मैंने यूनुस और उनकी सलाहकार परिषद के सदस्यों को ‘रीसेट’, ‘पुनर्निर्माण’ और ‘मज़बूत करना’ जैसे शब्दों का उपयोग करते देखा है, जिसका तात्पर्य किसी ऐसी चीज़ के पुनर्निर्माण से है, जिसे मरम्मत की आवश्यकता है।”
बांग्लादेश में भारत की पूर्व राजनयिक मंजू सेठ कहती हैं, भारत के अपने पड़ोसियों से संबंधों और व्यापार को लेकर चीन नाखुश रहता है। वह चाहता है कि उसे ही हमेशा प्राथमिकता मिले। ऐसे में चीन इस मौके को भुनाना चाहेगा। चीन हमसे आगे है, इसमें कोई शक नहीं है। वह हर जगह अपना प्रभाव जमाने की कोशिश कर रहा है। मालदीव, श्रीलंका में उसने कई स्तरों पर यह प्रयास किए हैं। भारत को अपने सुरक्षा घेरे को अधिक मजबूत करना होगा।
जमात पर प्रतिबंध हटाने से हिंदू अल्पसंख्यक खतरे में
गुंजन सिंह कहती हैं, अंतरिम सरकार ने जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध हटा दिया है, इसकी छात्र शाखा पर प्रतिबंध भी हटा लिया गया है। जमात कुछ समय से राजनीतिक दल के रूप में उभरने की कोशिश कर रही है। पिछले चुनाव में उन्होंने कुछ सीटें भी जीती थीं। शेख हसीना ने आतंकवादी संगठन बताकर उन पर प्रतिबंध लगाया था। जमात पर प्रतिबंध हटाने से मुझे लगता है कि अमेरिका को भी परेशानी होगी, क्योंकि यह एक आतंकवादी संगठन है। भारत ने इस पर प्रतिबंध लगा रखा है। जमात की वजह से पाकिस्तान पर भी अमेरिका का दबाव बढ़ेगा कि वह जमात पर नियंत्रण रखे। बांग्लादेश में चीन का निवेश है तो चीन भी पाकिस्तान पर दबाव डाल सकता है।
गौरव गोयल कहते हैं कि अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद युनूस शेख हसीना के देश छोड़ने के बाद हिंदुओं और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हुए हमले रोकने की बात भी कह रहे हैं। मेरी राय में, उन्हें अल्पसंख्यकों और हिंदुओं के खिलाफ गुस्से की आशंका थी। हिंसा का सामना करने वालों में अवामी लीग के समर्थकों के साथ कई हिंदू पार्टी के समर्थक भी हैं। हिंदुओं के खिलाफ हिंसा मुख्य रूप से हसीना के प्रति गुस्से के कारण थी, और मेरी राय में यह गुस्सा अंततः शांत हो गया होगा।
हालांकि, यूनुस द्वारा जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध हटाने के फैसले ने अल्पसंख्यकों, विशेषकर हिंदुओं को दोहरे जोखिम में डाल दिया है। बीएनपी (जिसके नेताओं को भी रिहा कर दिया गया है) की राजनीति भारत विरोधी, हिंदू विरोधी एजेंडे के इर्द-गिर्द घूमती है। जब भी बीएनपी सत्ता में आई है, अल्पसंख्यकों विशेषकर हिंदुओं को अत्याचार का सामना करना पड़ा है। पार्टी ने धार्मिक बांग्लादेशी राष्ट्रवाद का समर्थन किया है। बीएनपी जमात-ए-इस्लामी को भी संरक्षण देती है। जमात का लक्ष्य बांग्लादेश को सख्त शरीयत कानून के साथ एक इस्लामिक राज्य के रूप में स्थापित करना है।
गौरव गोयल कहते हैं, बीएनपी का झुकाव स्पष्ट रूप से पाकिस्तान की ओर है। इसलिए हिंदू भारत विरोधी भावना का निशाना होंगे। लेकिन, मुझे यह भी लगता है कि बीएनपी और कट्टरपंथी समूहों पर कार्रवाई करने और शासन करने के लिए अंतरिम सरकार पर अंतरराष्ट्रीय दबाव महत्वपूर्ण होगा।
1950 के दशक में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी 22% थी, जो अब घटकर 7-8% रह गई है। हालांकि उत्पीड़न, धर्मांतरण, हिंदुओं के बीच प्रजनन दर में कमी और मुसलमानों के बीच उच्च प्रजनन दर जैसे कई कारणों से यह कमी आई है, लेकिन इस तरह की राजनीतिक घटनाओं ने सांप्रदायिक हिंसा के लिए फ्लैशप्वाइंट के रूप में काम किया है, जिसमें हिंदू सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। यदि इस पर अंकुश नहीं लगाया गया तो बीएनपी जमात को पुनर्जीवित करने में मदद करेगी, जो धर्मनिरपेक्ष बांग्लादेश के लिए एक बड़ा खतरा है।
गौरव के अनुसार, इसके परिणामस्वरूप विशेषकर भारत में सुरक्षा को लेकर चिंता बढ़ेगी। नई दिल्ली संभवतः इस मुद्दे को बांग्लादेश के समक्ष उठाएगा और सांप्रदायिक ताकतों पर कार्रवाई की मांग करेगा। मैं बांग्लादेश में हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा को लेकर प्रदर्शनकारियों की रैली भी देख रहा हूं, जो अंतरिम सरकार पर दबाव डालेगी।
हालांकि, यह देखना दिलचस्प होगा कि अमेरिका और पश्चिमी देश कब तक चुप रहते हैं। पश्चिम ने इस बात को नजरअंदाज कर दिया है कि कैसे पाकिस्तान ने जिहाद-वाद को बढ़ावा देने के लिए पिछले चुनावों में जमात और बीएनपी की मदद की थी। बांग्लादेश में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर पश्चिम के प्रतिबंधों ने शेख हसीना के लिए राजनीतिक जमीन छोटी कर दी, जिससे इस साल जनवरी में चुनावों से पहले उनके विरोधी इस्लामी कट्टरपंथी संगठनों को मजबूती मिली। मेरी राय में यह दबाव यूनुस को इन तत्वों के खिलाफ कदम उठाने के लिए प्रेरित कर रहा है।
गुंजन सिंह कहती हैं, शेख हसीना की सरकार में समस्याएं तो थीं। लेकिन शेख हसीना के समय राजनीतिक अस्थिरता नहीं थी। अस्थिरता भारत के लिए भी ठीक नहीं है। भारत पहले ही रिफ्यूजी समस्या का सामना करना कर रहा है। यह समस्या दूसरे क्षेत्रों में भी फैलेगी। वहां अल्पसंख्यक हिंदुओं के खिलाफ हिंसा की काफी खबरें आ रही हैं। यानी वहां धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है।
शेख हसीना के शासनकाल में बांग्लादेश लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील देश की ओर बढ़ रहा था। अल्पसंख्यकों को भी वहां कोई खास परेशानी नहीं होती थी। भारत के प्रति अवामी लीग और शेख हसीना की नजदीकी को देखते हुए वहां हिंदुओं के खिलाफ आक्रोश बना है। अगर चुनाव में जमात को ज्यादा सीटें मिल जाती हैं तो देखना होगा कि बांग्लादेश किस दिशा में बढ़ता है।
सीमा सुरक्षा पर प्रभाव
ले. जनरल (रि) मोहन भंडारी के अनुसार, “वर्तमान हालात भारत के लिए कई तरह की मुश्किलें पैदा कर सकते हैं। सबसे बड़ी मुश्किल बांग्लादेश में मौजूद भारत विरोधी ताकतों के मजबूत होने से होगी। वहां की सेना में भी एक वर्ग भारत को पसंद नहीं करता है। ऐसे में पाकिस्तान को बांग्लादेश के जरिए भारत में आतंकी व तस्करी गतिविधियों को बढ़ावा देने का मौका मिलेगा।” उनका कहना है कि बांग्लादेश तथा अन्य पड़ोसी देशों में जो हालात हैं, उसे देखते हुए भारत को बेहद सतर्क रहने की जरूरत है। बाहरी के साथ आंतरिक सुरक्षा पर भी ध्यान देना पड़ेगा।
जमात-ए-इस्लामी का बांग्लादेश की अंतरिम सरकार पर कुछ प्रभाव हो सकता है। जमात के साथ भारत का समीकरण असहज रहा है और यह बांग्लादेशी राजनीति में पाकिस्तान की वापसी के द्वार खोल सकता है। इसका बांग्लादेश के साथ भारत की सीमा सुरक्षा पर भी असर पड़ेगा।
1971 में पूर्वी पाकिस्तान को अलग कर बांग्लादेश बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले लेफ्टिनेंट जनरल (रि) राज कादयान भावी खतरे के प्रति आगाह करते हुए कहते हैं, “बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी का भारत के प्रति नजरिया पहले भी अच्छा नहीं रहा है। सबसे बड़ा खतरा यह रहेगा कि उत्तर-पूर्व में बांग्लादेश की तरफ से आंतकी घटनाएं बढ़ेंगी। हसीना सरकार से पहले भी उसी इलाके में उन्हें पनाह मिलती थी। उन पर हसीना सरकार ने लगाम लगाया, जो भारत के हित में था।”
कादयान के मुताबिक, “भारत ने बांग्लादेश में कई विकास कार्य किए, रोड व रेल नेटवर्क के माध्यम से अपनी पहुंच बनाई। वहां भारत हावी था, लेकिन शेख हसीना के जाने के बाद उसके चीन के प्रभाव में आने की आशंका बन गई है। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि नई सरकार ऐसा न कर पाए। उनके साथ नए सिरे से संबंध स्थापित करने होंगे। यह जरूर है कि हसीना के साथ भारत के जिस तरह के संबंध थे, वह अब नहीं हो पाएंगे। वैसे, अमेरिका भी नहीं चाहता कि बांग्लादेश में चीन का प्रभाव बढ़े। इस मामले में भारत को अमेरिका को साथ लेकर चलना होगा।”
भारत-बांग्लादेश व्यापार
फिलवक्त यह अस्पष्ट है कि अंतरिम बांग्लादेशी सरकार या उसके बाद आने वाली सरकार के तहत मुक्त व्यापार समझौता आगे बढ़ेगा या नहीं, या फिर कैसे आगे बढ़ेगा। हाल के वर्षों में सीमा पार व्यापार, पारगमन व्यवस्था, सुरक्षा सहयोग तथा लोगों-से-लोगों के बीच आदान-प्रदान में प्रगति के साथ द्विपक्षीय संबंध विकसित हुए हैं।
हसीना के सत्ता से बाहर होने से इन उपलब्धियों पर संदेह उत्पन्न होता है। केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय के अनुसार, व्यापार के मामले में बांग्लादेश उपमहाद्वीप में भारत का सबसे बड़ा साझेदार है, एवं भारत एशिया में चीन के बाद बांग्लादेश का दूसरा सबसे बड़ा साझेदार है। वित्त वर्ष 2023- 24 में कुल द्विपक्षीय व्यापार 13 अरब डॉलर था।
बांग्लादेश भारत की कपास का सबसे बड़ा निर्यात गंतव्य है, जो भारत के कुल कपास निर्यात का 34.9% (वित्त वर्ष 2024 में लगभग 2.4 बिलियन डॉलर) है। भारत के अन्य मुख्य निर्यात में सब्जियां, कॉफी, चाय, मसाले, चीनी, कन्फेक्शनरी, परिष्कृत पेट्रोलियम तेल, रसायन, कपास, लोहा और इस्पात तथा वाहन शामिल हैं। बांग्लादेश से आयात होने वाली मुख्य वस्तुएं मछली, प्लास्टिक, चमड़ा और परिधान आदि हैं।
पूर्व राजनायिक मंजू सेठ कहती हैं कि मौजूदा हालात से द्विपक्षीय संबंधों पर असर पड़ेगा। वहां लोकतंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता है। वहां एंटी-इंडिया सेंटीमेंट्स को हवा दी जा रही है। भारत ने वहां काफी निवेश किया है। दोनों देशों के बीच कारोबार बीते कुछ सालों में बढ़ा है। भारत के लिए काफी सतर्क रहने की बात है। हमारा बॉर्डर बड़ा है और पोरस भी है। भारत के लिए फिलहाल यह चुनौती है। बॉर्डर को मजबूत करना होगा। वहां से रिफ्यूजी आ सकते हैं जिसे देखने की आवश्यकता है।
गारमेंट इंडस्ट्री पर असर
बांग्लादेश में हिंसा और राजनीतिक संकट के कारण रेमंड के बारे में विश्व स्तर से लोग जानकारी ले रहे हैं, यह कहना है रेमंड के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक गौतम हरि सिंघानिया का। उन्होंने कहा कि रेमंड दुनिया का तीसरा बड़ा सूट निर्माता है, वह मौजूदा स्थिति से "फायदा उठाने" के लिए तैयार है। बांग्लादेश से कुछ परिधान व्यवसाय भारत स्थांतरित होने की संभावना पर उन्होंने सकारात्मक संकेत दिए। उन्होंने कहा, भारत सभी चरणों को जोड़ने वाली अपनी एंड-टू-एंड आपूर्ति क्षमताओं के साथ बेहतर स्थिति में है क्योंकि रेमंड जैसी कंपनियां कपड़े और परिधान व्यवसाय दोनों में मौजूद हैं, जिससे अंतरराष्ट्रीय ब्रांडों के लिए भी अंतिम डिलीवरी पर समय की बचत होगी।
“बांग्लादेश के पास फैब्रिक की आपूर्ति नहीं है। भारत के पास आपूर्ति का लाभ उठाने का एक बड़ा अवसर है क्योंकि हमारे यहां फैब्रिक आधार है। उनके पास (केवल) परिधान आधार है। रेमंड के सीएमडी ने कहा, हालांकि भारतीय श्रम बांग्लादेश की तुलना में अधिक महंगा हो सकता है, लेकिन यह राजनीतिक रूप से स्थिर देश है, जिसमें विशाल मध्यम वर्ग है साथ ही यहां बड़ी खपत है और विनिर्माण क्षमताएं भी दुरूस्त है।
भारत क्या करे
गुंजन सिंह कहती हैं कि भारत को अभी इंतजार करना होगा। मेरे विचार से जमात पर जो प्रतिबंध हटाया गया है, समस्या यहीं से शुरू होगी। क्योंकि भारत तो जमात को आतंकवादी संगठन के तौर पर देखता है लेकिन वहां की सरकार उसे राजनीतिक संगठन मान रही है। भारत कभी जमात के साथ किसी भी स्तर पर बातचीत के लिए तैयार नहीं होगा। हिंदुओं के साथ हो रही हिंसा के कारण भी भारत के साथ समस्या बढ़ेगी।
शेख हसीना अभी भारत में हैं और बांग्लादेश की अंतिम सरकार ने उन्हें वापस भेजने के लिए कहा है। गुंजन के मुताबिक, मुझे नहीं लगता है कि भारत उन्हें वापस भेजेगा। अगर बीएनपी की सरकार आती है और भारत ने शेख हसीना को शरण दी तब भी समस्या आएगी। अगर जमात बड़ी राजनीतिक ताकत बनकर उभरती है तो समस्या और बढ़ेगी। भारत के साथ शेख हसीना के संबंध काफी अच्छे रहे, तीस्ता पर बात चल रही थी, बंदरगाह पर बात हो रही थी, दोनों देशों के बीच व्यापार भी अच्छा था। शेख हसीना हाल में दो बार भारत भी आई थीं। यह हालात बदल सकते हैं।
लेफ्टिनेंट कर्नल जे.एस.सोढ़ी कहते हैं कि भारत के लिए तो बहुत बड़ी चुनौती है। साउथ एशिया में हमारे आठ पड़ोसी मुल्क हैं, जिनमें से सात हमारे खिलाफ हो चुके हैं, सिर्फ भूटान बचा है। भूटान के साथ भी चीन की बात लगातार चल रही है, उनके बीच के सीमा विवाद खत्म करने को लेकर कभी भी औपचारिक घोषणा हो सकती है। तब उनके बीच कूटनीतिक रिश्ते स्थापित हो जाएंगे। हम चारों तरफ से ऐसे देशों से घिरे हैं, जिन पर हम पूर्ण तौर पर भरोसा नहीं कर सकते हैं।
भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हमें अपने इलाके में सबसे पहले फोकस करना चाहिए। 11 साल बाद टू फ्रंट वॉर होनी है, पाकिस्तान और चीन मिलकर हम पर हमला करेंगे। उस वक्त अगर हमारे आठ पड़ोसियों में सात हमारे दुश्मन ही रहे, तो इसका फायदा पाकिस्तान व चीन उठाएंगे। हमने देखा है कि मालदीव में क्या हुआ, हमने देखा कि बांग्लादेश में क्या हुआ, श्रीलंका में क्या हुआ।
आज सैनिक तैयारी में चीन हमसे 30 साल आगे हैं। वहीं पाक के साथ चीन का मिलना संबंधों की नई परिभाषा लिखता है। भारतीय सेना के 28वें सेनाध्यक्ष जनरल एमएम नरवणे जो दो साल पहले रिटायर हुए थे, ने पिछले साल सात अगस्त 2023 को द प्रिंट में एक लेख लिखा था। उसमें उन्होंने साफ शब्दों में लिखा कि टू फ्रंट वॉर भारत के लिए बहुत दिक्कत पैदा करेगी। एक पूर्व सेनाध्यक्ष जो दो साल पहले रिटायर हुए हैं, वे अगर पब्लिक डोमेन में साफ शब्दों में यह लिख रहे हैं तो वाकई में लोगों को सोचना व समझना चाहिए।
भारत और चीन में एक जो बड़ा फर्क है कि चीन दूसरे देशों में कोई प्रोजेक्ट करता है तो उसे तय समयसीमा पर खत्म कर देता है, जबकि हमारे प्रोजेक्ट लंबे चलते हैं। आज हमारे पड़ोसी देशों के बीच चीन और भारत को लेकर एक सोच है कि चीन जो हमें वादा करता है, वह फटाफट कर देता है, जबकि भारत को कई साल लग जाते हैं।
भारत का अंधिकांश पूर्वी क्षेत्र कभी बंगाल के नाम से जाना जाता था
बांग्लादेश में सभ्यता का इतिहास काफी पुराना रहा है। आज के भारत का अंधिकांश पूर्वी क्षेत्र कभी बंगाल के नाम से जाना जाता था। 16वीं शताब्दी तक बंगाल एशिया के प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र के रूप में उभरा। यूरोप के व्यापारियों का आगमन इस क्षेत्र में 15वीं शताब्दी में हुआ और अंततः 16वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिए उनका प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ। 18वीं शताब्दी आते-आते इस क्षेत्र का नियंत्रण पूरी तरह उनके हाथों में आ गया जो धीरे-धीरे पूरे भारत में फैल गया। 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ तब राजनीतिक कारणों से भारत को हिन्दू बहुल भारत और मुस्लिम बहुल पाकिस्तान में विभाजित करना पड़ा।
पारले पॉलिसी इनीशिएटिव के साउथ एशिया के सीनियर एडवाइजर नीरज सिंह मन्हास कहते हैं, ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने वर्तमान बांग्लादेश के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया, जो शुरू में ब्रिटिश भारत का हिस्सा था। 1793 में स्थायी बंदोबस्त की शुरूआत ने भूमि स्वामित्व प्रणाली को बदल दिया, धन और शक्ति को कुछ जमींदारों (जमींदारों) के हाथों में केंद्रित कर दिया और क्षेत्र की आर्थिक संरचना को बदल दिया। अंग्रेजों ने प्रशासनिक और शैक्षिक सुधार भी किए, जिससे शासन और कानून के पश्चिमी विचारों का आगमन हुआ, लेकिन समाज में कई स्तर बनने के साथ आर्थिक असमानताएं पैदा हुईं। 1905 में बंगाल का विभाजन, हालांकि 1911 में यह उलट गया, लेकिन इसने महत्वपूर्ण राष्ट्रवादी आंदोलनों को जन्म दिया जिससे विशिष्ट क्षेत्रीय पहचान के लिए शुरुआती बीज पड़े।
पाकिस्तान का विभाजन और बांग्लादेश बनने की नींव
पाकिस्तान के गठन के समय पश्चिमी क्षेत्र में सिंधी, पठान, बलोच और मुजाहिरों की बड़ी संख्या थी, जिसे पश्चिमी पाकिस्तान कहा जाता था। पूर्वी हिस्से में बांग्ला बोलने वालों का बहुमत था, जिसे पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था। हालांकि पूर्वी भाग में राजनीतिक चेतना की कभी कमी नहीं रही लेकिन यह हिस्सा देश की सत्ता में कभी उचित प्रतिनिधित्व नहीं पा सका एवं हमेशा राजनीतिक रूप से उपेक्षित रहा। इससे पूर्वी पाकिस्तान के लोगों में काफी नाराजगी थी। इसी नाराजगी के परिणामस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान के नेता शेख मुजीब-उर-रहमान ने अवामी लीग का गठन किया और पाकिस्तान के अंदर ही और स्वायत्तता की मांग की। 1970 में हुए आम चुनाव में पूर्वी क्षेत्र में शेख मुजीब की पार्टी ने बंपर सीटों से विजय हासिल की। उनके दल ने संसद में बहुमत भी हासिल किया, लेकिन बजाय प्रधानमंत्री बनाने के उन्हें जेल में डाल दिया गया। यहीं से पाकिस्तान के विभाजन की नींव रखी गई।
1971 में पाकिस्तान में जनरल याह्या खान राष्ट्रपति थे और उन्होंने पूर्वी हिस्से में फैली नाराजगी दूर करने की जिम्मेदारी जनरल टिक्का खान को दी। लेकिन उनके द्वारा दबाव से मामला हल करने के प्रयास किए गए जिससे स्थिति पूरी तरह बिगड़ गई। 25 मार्च 1971 को पाकिस्तान के इस हिस्से में सेना एवं पुलिस की अगुआई में जबर्दस्त नरसंहार हुआ। इससे पाकिस्तानी सेना में काम कर रहे पूर्वी क्षेत्र के निवासियों में भी रोष हुआ और उन्होंने अलग मुक्ति वाहिनी बना ली। पाकिस्तानी फौज का निरपराध, हथियार विहीन लोगों पर अत्याचार जारी रहा, जिससे लोगों का पलायन आरंभ हो गया। तब भारत ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से पूर्वी पाकिस्तान की स्थिति सुधारने की अपील की, लेकिन किसी भी देश ने ध्यान नहीं दिया। जब वहां के विस्थापित लगातार भारत आते रहे तो अप्रैल 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुक्ति वाहिनी को समर्थन देकर, बांग्लादेश को आजादी में सहायता करने का निर्णय लिया।
नीरज सिंह मन्हास बताते हैं कि पाकिस्तान से आज़ादी की मांग राजनीतिक रूप से प्रभावशाली पश्चिमी पाकिस्तान द्वारा बांग्ला भाषी बहुसंख्यकों के खिलाफ भाषाई और सांस्कृतिक भेदभाव के कारण थी। राजनीतिक शक्ति और आर्थिक अवसरों में असमानता ने तनाव बढ़ा दिया। महत्वपूर्ण मोड़ 1970 के चुनाव थे, जहां अवामी लीग ने बहुमत हासिल किया लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान के अधिकारियों ने उसे सत्ता संभालने से रोक दिया। 1971 में बाद की सैन्य कार्रवाई के कारण बड़े पैमाने पर अत्याचार हुए, जिससे स्वतंत्रता की मांग को बल मिला। इसमें अंततः भारत का प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप शामिल था जो 1971 के भारत-पाक युद्ध का कारण बना।
पहली सरकार की चुनौतियां और शेख मुजीब की मौत
मन्हास के मुताबिक आज़ादी के बाद बांग्लादेश की पहली सरकार को भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। युद्ध से हुई तबाही के बाद बुनियादी ढांचे और अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण पुनर्निर्माण की आवश्यकता थी। नए देश को शासन का ढांचा स्थापित करने के साथ और विविध राजनीतिक गुटों की अपेक्षाओं को भी देखना था। इसके अलावा गंभीर मानवीय संकट भी थे, जिनमें 1974 में लाखों लौटने वाले शरणार्थी और अकाल से निपटना भी शामिल था। तत्कालीन सरकार को अन्य देशों से मान्यता और सहायता हासिल करने के साथ जटिल अंतरराष्ट्रीय संबंधों को भी संभालना पड़ा।
15 अगस्त 1975 को बांग्लादेशी सेना के कुछ जूनियर अधिकारियों ने शेख मुजीब के घर पर टैंक से हमला कर दिया। हमले में मुजीब सहित उनका परिवार और सुरक्षा स्टाफ मारे गए। उनकी दो बेटियां, शेख हसीना और शेख रेहाना की जान बच पाई थीं क्योंकि वे उस समय घूमने के लिए जर्मनी गई हुई थीं। पिता की हत्या के बाद शेख हसीना अपने परिवार के साथ भारत आईं। तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने उन्हें भारत में शरण दी, हालांकि उस समय भारत में आपातकाल लगा हुआ था। भारत में करीब 6 साल रहने के बाद 1981 में शेख हसीना अपने परिवार के साथ ढाका लौटीं तो उनका जोरदार स्वागत हुआ।
बांग्लादेश विभाजन की बुनियाद
बांग्लादेश के विभाजन की बुनियाद देश के गठन के समय ही पड़ गई थी। रिटायर्ड लेफ्टिनेंट कर्नल जे.एस. सोढ़ी कहते हैं कि 1947 में भारत आजाद हुआ तो बंगाल को दो हिस्से में बांटा गया, पश्चिम बंगाल और पूर्व बंगाल। पश्चिम बंगाल भारत में रहा और पूर्व बंगाल पाकिस्तान के साथ चला गया। तब पाकिस्तान दो हिस्से में था, पश्चिम पाकिस्तान जो आज का पाकिस्तान है और पूर्वी पाकिस्तान जो आज का बांग्लादेश है। कुछ साल बाद पाकिस्तान में कानून पास किया गया कि दोनों पाकिस्तान की सरकारी भाषा उर्दू होगी। पूर्वी बंगाल में इसके खिलाफ आंदोलन खड़ा हो गया क्योंकि वहां के लोगों की भाषा बांग्ला थी। आखिरकार पाकिस्तान सरकार को अपना आदेश वापस लेना पड़ा और कहा कि दोनों भाषाएं एक साथ चलेंगी।
उस आंदोलन से पूर्वी बंगाल के लोग एकजुट हुए। उन्हें पश्चिम पाकिस्तान से डर लगा कि ये ऐसा कुछ करेंगे जिससे हमारी पूरी आजादी कभी आ नहीं पाएगी। पाकिस्तान ने 1970 में पहली बार आम चुनाव कराए तो पूर्वी पाकिस्तान में आवामी लीग सबसे बड़ी पार्टी बनकर आई। आवामी लीग को ईस्ट पाकिस्तान और वेस्ट पाकिस्तान में सबसे ज्यादा सीटें मिली थीं। नंबर दो पर आई जुल्फिकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी)। पश्चिमी पाकिस्तान के हुक्मरानों को यह बाद बर्दाश्त नहीं हो रही थी कि बंगाली कैसे हम पर शासन करेंगे।
सबसे अधिक सीटें जीतने के बाद भी आवामी लीग के प्रमुख शेख मुजीबुर्रहमान को पाकिस्तान का प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया तो ईस्ट पाकिस्तान में काफी प्रदर्शन शुरू हो गए। उसे रोकने के लिए पाकिस्तान ने ऑपरेशन सर्च लाइट चलाया। उस ऑपरेशन में पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान के ज्यादातर बड़े नेताओं को मार डाला या गायब कर दिया। लाखों लोग रिफ्यूजी बनकर भारत आने लगे। भारत ने कई अंतराराष्ट्रीय मंचों, अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ के सामने यह बात रखी। भारत का कहना था कि इतनी बड़ी तदाद में शरणार्थी आने से यहां भी मुश्किलें हो रही हैं। लेकिन पाकिस्तान ने किसी नहीं सुनी।
अगस्त 1971 में पाकिस्तान में सोवियत संघ के राजदूत पाक के राष्ट्रपति से मिले और उन्हें सोवियत राष्ट्रपति का एक गोपनीय संदेश दिया। संदेश यह था कि ईस्ट पाकिस्तान में आक्रोश ठीक नहीं किया गया तो पाकिस्तान के लिए यह आत्मघाती साबित हो सकता है। पाकिस्तान ने यह बात अनसुनी कर दी।
पूर्वी पाकिस्तान की आजादी को भारत का समर्थन हासिल था। ले. कर्नल सोढ़ी के अनुसार, पाकिस्तान ने 3 दिसंबर 1971 को पश्चिम में हमारे छह एयरबेस पर हमला कर दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक रेडियो संदेश में कहा कि पाकिस्तान का हमला युद्ध की घोषणा है और इसका जवाब हम युद्ध से ही देंगे। तीन दिसंबर से 16 दिसंबर तक हम पाकिस्तान से पूर्वी और पश्चिमी दोनों मोर्चे पर लड़े। अच्छी प्लानिंग की वजह से हमने ईस्ट पाकिस्तान की राजधानी ढाका पर कब्जा कर लिया। इसके साथ ही ईस्ट पाकिस्तान एक नए देश के रूप में उभरा, जिसका नाम रखा गया बांग्लादेश।
बांग्लादेश के पहले राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान थे। पूरी दुनिया को अनुमान था कि अब बांग्लादेश में शांति आएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। शेख मुजीब ने विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार करवा दिया। इसकी वजह से आक्रोश बढ़ने लगा। 1975 में बांग्लादेश सेना के कुछ अफसरों ने शेख मुजीब के परिवारवालों को मार डाला। उसके बाद से ही बांग्लादेश में तनाव का माहौल रहा है। 1971 में देश बनने के बाद 21 बार सेना ने सत्ता हासिल करने की कोशिश की। इनमें से कुछ सफल हुए तो कुछ नाकाम भी रहे।
पाकिस्तान, बांग्लादेश में सैन्य शासन की जड़ें
इसकी जड़ें 1947 के भारत विभाजन में देखी जा सकती हैं। इस विभाजन में भाषा और संस्कृति में अलग होने के बावजूद दो भौगोलिक क्षेत्रों को एक देश बना दिया गया। विभाजन के बाद पाकिस्तान मुहम्मद अली जिन्ना की मृत्यु और लियाकत अली खान की हत्या के बाद राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा था। इस कारण संविधान को अपनाने में देरी हुई। इसने भी पूर्वी पाकिस्तान में असंतोष के बीज बोए।
स्वतंत्रता प्राप्त करने के बावजूद, नवगठित बांग्लादेशी सेना को पाकिस्तानी सेना की संरचना और सिद्धांत विरासत में मिले, क्योंकि इसमें शुरू में वे अधिकारी और सैनिक शामिल थे, जिन्होंने मुक्ति संग्राम से पहले पाकिस्तानी सेना में सेवा की थी। उच्च पदस्थ अधिकारियों में से अधिकांश पश्चिमी पाकिस्तान से आए थे, उन्हें पदावनत कर दिया गया। उन्हें मुक्ति युद्ध के बाद निचले पदों पर नौकरी करनी पड़ी। इसलिए बांग्लादेश की सेना गुटों में विभाजित हो गई थी, जिससे वह आंतरिक रूप से कमज़ोर हो गई थी।
जियाउर रहमान ने बनाई नेशनलिस्ट पार्टी
1975 में मुजीब की हत्या के बाद डेढ़ दशक तक सेना ने सत्ता संभाली। 1978 और 1979 के बीच राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव पूर्व सेना प्रमुख जियाउर रहमान के नेतृत्व में हुए। उनकी नवगठित बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने भारी बहुमत हासिल किया था। तब आवामी लीग ने चुनाव में धांधली के आरोप लगाए थे। जियाउर रहमान के शासन के साथ ही बांग्लादेश में कई ऐसे तौर-तरीकों की शुरुआत हुई जिसने देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर लंबे समय के लिए असर डाला।