नई दिल्ली, अनुराग मिश्र/विवेक तिवारी। बीते कुछ दशकों में जानवरों से होने वाली बीमारियां लगातार बढ़ रही है। कोरोना हो, निपाह और हेनीपेवीरल डिसीज या रिफ्ट वैली फीवर सभी बीमारियां जानवरों के माध्यम से हो रही है। जानवरों के मार्फत इंसानों में होने वाली बीमारी को जूनोटिक बीमारी कहा जाता है। जूनोटिक बीमारियां से लाखों लोगों की हर साल जान जा रही है। वहीं विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अगर इंसानों ने पर्यावरण और जंगली जीवों को नहीं बचाया तो उसे कोरोना जैसी और खतरनाक बीमारियों का सामना करना पड़ सकता है। वहीं व्यक्तियों का बदलता खानपान भी जूनोटिक बीमारियों के लिए जिम्मेदार है। खानपान में बदलाव की वजह से कई जीव उनके खानपान में शामिल हो रहे हैं। इनमें से कई जीव तो ऐसे जिनमें काफी बैक्टीरिया व खतरनाक वायरस होते हैं। यह तेजी से संक्रमण फैलाते हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) और अंतर्राष्ट्रीय पशुधन अनुसंधान संस्थान (आईएलआरआई) द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, मनुष्यों में लगभग 60 प्रतिशत ज्ञात संक्रामक रोग और सभी उभरते संक्रामक रोगों में से 75 प्रतिशत ज़ूनोटिक हैं।

आईसीएमआर वॉयरोलॉजी की हेड डॉ. निवेदिता गुप्ता ने बताया कि केरल में उन जगहों पर निपाह वायरस के केस मिले हैं, जहां जंगल या बड़े स्तर पर प्लांटेशन है और लोगों के मकान भी उससे लगे हैं। इसके अलावा वहां चमगादड़ की मौजूदगी भी रही है। इससे साफ जाहिर होता है कि इंसानों और चमगादड़ों के बीच किसी न किसी तरह से संपर्क होता होगा। जबकि बांग्लादेश में ताड़ी के माध्यम से केस सामने आए हैं। ताड़ी के लिए पेड़ में रात को मटका या बर्तन लटकाकर भरने के लिए रखा जाता है, ऐसे में वहां चमगादड़ ताड़ी पी लेता है या उसमें यूरिन कर देता है, उससे निपाह वायरस का संक्रमण हो जाता है। लेकिन केरल में ताड़ी पीने का ट्रेंड बहुत ही कम है। इसके अलावा फल में अगर चमगादड़ का सलाइवा लग गया हो और किसी ने उसे बिना धोए हुए खा लिया तो संक्रमण हो जाता है। यह तो पूरी तरह से नहीं मालूम कि पहला केस कैसे आया लेकिन बाद के जो भी केस आए, वह पहले मरीज के संपर्क से ही संक्रमित हुए। उनमें से कुछ परिवार के थे और अन्य हॉस्पिटल में किसी न किसी तरह से संपर्क में आने के कारण संक्रमित हुए।

आईसीएमआरके पूर्व वैज्ञानिक रमेश धीमान कहते हैं कि जानवरों से होने वाली बीमारियां भारत में तेजी से बढ़ रही हैं। इसका मुख्य कारण जानवरों के परिवेश में इंसानों का बढ़ता दखल है। तराई इलाकों में भी आबादी तेजी से बढ़ी है। पिछले कुछ अध्ययनों में पाया गया कि चिकनगुनिया, स्क्रब टायफस और त्वचीय लीशमैनियासिस जैसे जूनोटिक रोग पश्चिमी राजस्थान से हिमाचल प्रदेश, केरल और हरियाणा में बढ़ते हुए देखे गए हैं।

असम में वेस्ट नाइल वायरस, और जापानी एन्सेफलाइटिस (जेई) के गैर-स्थानिक क्षेत्रों जैसे महाराष्ट्र और दिल्ली में जेई के मरीज पाए जाने लगे हैं। इस पर और अध्ययन किए जाने और तत्काल कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।  पिपल्स हेल्थ ऑर्गनायजेशन एवम् ऑर्गनाइजड मेडिसिन अकेडेमिक गिल्ड के सेक्रेटरी जनरल डॉ ईश्वर गिलाडा कहते हैं कि विकास के नाम पर इंसान ने पिछले कई सालों में बड़े पैमान पर जंगल काटे, जानवरों के ऐसे हेबिटेट जहां वो सुरक्षित रहते थे उनको नष्ट किया। ऐसे में जानवरों के साथ साथ इंसान कई साने वायरस और बैक्टीरिया के भी संपर्क में आ रहे हैं। इससे मैड काऊ डिजीज, जीका, नीपा, कोविड, इबोला जैसी बीमारियां सामने आ रही हैं। जुनोटिक बीमारियां जानवरों से इंसानों में आती हैं। ऐसे में इंसानों को अपने आहार के बारे में भी सोचना होगा। कई देशों में चमादड़ की डिश बना कर खाई जा रही है। ऐसे में आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि चमगादड़ में मौजूद वायरस या बैक्टीरिया के संपर्क में आने से आप बच जाएंगे। कोविड भी एक जुनोटिक बीमारी ही है। ऐसे में आने वाले समय में महामारियों से बचने के लिए लोगों को अपने विकास के मॉडल को लेकर एक बार फिर से चिंतन करना चाहिए।

बढ़ा आर्थिक बोझ

वैज्ञानिकों के मुताबिक पिछली सदी में वायरल प्राणीजन्य महामारियों के चलते करोड़ों लोगों की जान चली गई और इन महामारियों से लड़ने में सरकारों पर पड़ने वाले आर्थिक बोझ में भी लगातार वृद्धि हुई है। शोधकर्ताओं के मुताबिक बड़ी संख्या में वायरस को आश्रय देने के लिए जाने जाने वाले वन्यजीवों के साथ मनुष्य कई तरह से संपर्क में आते हैं। इन वायरसों में से कई अभी तक मनुष्यों में नहीं फैले हैं। ऐसे में शोधकर्ताओं ने उभरते हुए वायरस जिसने खतरनाक महामारी फैल सकती है उनसे संभावित वार्षिक नुकसान की गणना की। शोधकर्ताओं ने पाया कि भविष्य की महामारियों के प्रभाव को कम करने के लिए कुछ व्यावहारिक कदम तुरंत उठाए जाने की जरूरत है। इनमें रोगजनक स्पिलओवर की बेहतर निगरानी, वायरस जीनोमिक्स और सीरोलॉजी के वैश्विक डेटाबेस का विकास, वन्यजीव व्यापार का बेहतर प्रबंधन और वनों की कटाई में पर्याप्त कमी शामिल है।

शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया कि महामारियों की रोकथाम के लिए उठाए जाने वाले प्राथमिक कदमों की लागत हर साल उभरते वायरल ज़ूनोज के लिए खोए गए जीवन के मूल्य के 1/20 वें हिस्से से भी कम है, साथ ही इसके कई फायदे भी हैं।

महामारी के जोखिम का प्रमुख स्रोत

बहुत से शोध से पता चलता है कि जानवरों से मनुष्यों में वायरस का फैलना महामारी के जोखिम का प्रमुख स्रोत है। वैज्ञानिकों का भी मानना है कि कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी की शुरुआत चमगादड़ में मिलने वाले एक वायरस से ही हुई। इसलिए, अगली महामारी को रोकने के लिए समर्पित प्रभावशाली बातचीत में स्पिलओवर को कम करने पर विचार करने में विफलता हमें परेशान करती है। ये रिपोर्ट रोग के उभरने के बाद निदान, उपचार और शीघ्रता से टीकाकरण के लिए प्रौद्योगिकी में अधिक निवेश करने की आवश्यकता पर जोर देती हैं। यदि वर्तमान महामारी ने हमें कुछ सिखाया है, तो वह यह है कि मानव आबादी में एक बार एक महामारी ने कब्जा कर लिया है, तो कोई भी तकनीक हमें खराब शासन से नहीं बचा सकती है।

इतने लोगों की गई जान

इस बीमारी के चलते 1918 में 5 करोड़ से ज्यादा लोगों की जान गई थी। इसी तरह एच2एन2 इन्फ्लुएंजा 11 लाख, लासा बुखार 2.5 लाख, एड्स 1.07 करोड़, एच1एन1 2.8 लाख और कोरोनावायरस 40 लाख से ज्यादा लोगों की जान अब तक ले चुका है। पिछलों कुछ वर्षों में इंसानों में जानवरों से होने वाली बीमारियों यानी 'जूनोटिक डिजीज' में इजाफा हुआ है। इबोला, बर्ड फ्लू और सार्स जैसी बामारियां इसी श्रेणी में आती हैं। पहले ये बीमारियां जानवरों और पक्षियों में होती हैं और फिर उनके जरिए इंसानों को अपना शिकार बना लेती हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि जूनोटिक बीमारियों के बढ़ने की एक बड़ी वजह खुद इंसान और उसके फैसले हैं।

ये कहते हैं एक्सपर्ट

यूएन इन्वायरमेंट प्रोग्राम की एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर इंगर एंडर्सन ने कहा कि पिछले 100 वर्षों में इंसान नए वायरसों की वजह से होने वाले कम से कम छह तरह के खतरनाक संक्रमण झेल चुका है। उन्होंने कहा कि मध्यम और निम्न आय वर्ग वाले देशों में हर साल कई लाख लोगों की मौत गिल्टी रोग, चौपायों से होने वाली टीबी और रेबीज जैसी जूनोटिक बीमारियों के कारण हो जाती है। इतना ही नहीं, इन बीमारियों से न जाने कितना आर्थिक नुकसान भी होता है।

जूनोटिक बीमारियां

वह रोग जो पशुओं के माध्यम से मनुष्यों में और मनुष्यों से फिर पशुओं में फैलते है उन्हें जूनोसिस या जूनोटिक रोग कहा जाता है। यह रोग 2300 ईसा पूर्व से चली आ रही है। जूनोटिक संक्रमण प्रकृति या मनुष्यों में जानवरों के अलावा बैक्टीरिया, वायरस या परजीवी के माध्यम से फैलता है। जूनोटिक रोगों में मलेरिया, एचआइवी एडस, इबोला, कोरोना वायरस रोग, रेबीज आदि शामिल हैं। इन बीमारियों में खास यह है कि यह समय के हिसाब से खुद को म्यूटेट करते रहते हैं। ऐसे में एक वायरस पर प्रभावी वैक्सीन आ भी जाए तो वह जरूरी नहीं कि दूसरे पर भी असर करेगी।

जूनोटिक रोग बैक्टीरिया, वायरस, फफूंद अथवा परजीवी किसी भी रोगकारक से हो सकते हैं। भारत मे होने वाले जूनोटिक रोगों में रेबीज, ब्रूसेलोसिस, स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, ईबोला, निपाह, ग्लैंडर्स, साल्मोनेलोसिस इत्यादि शामिल हैं। विश्व भर में लगभग 150 जूनोटिक रोग हैं। GAIMS मॉरीशस के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं एसएसआर मेडिकल कॉलेज के मेडिकल शोधकर्ता डॉक्टर अभिषेक कश्यप कहते हैं कि कई रिपोट्स के मुताबिक उभरती संक्रामक बीमारियों में से 75% ज़ूनोटिक (पशुजन्य) हैं। ये चिंता की बात है। हमें भविष्य की महामारियों को रोकने के लिए बहु-विषयक दृष्टिकोण अपनाना होगा। हमें वन हेल्थ एप्रोच को अपनाना होगा। इसका मतलब है मानव, पशु और पृथ्वी के स्वास्थ्य के अंतरसंबंधों को पहचानना। हमें ज़ूनोटिक(पशुजन्य) रोगों के मूल कारणों को समझने और उनसे निपटने के लिए बेहतर निगरानी और प्रतिक्रिया प्रणाली लागू करनी होगी।

विश्व बैंक ने भारत को दिया फंड

विश्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में कहाकि भारत में दुनिया की सबसे बड़ी पशुधन आबादी होने के कारण ये जोखिम विशेष रूप से अधिक हैं। अकेले खुरपका और मुंहपका रोग से देश को सालाना 3.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का नुकसान होता है। विश्व बैंक ने पशु स्वास्थ्य प्रबंधन के लिए वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाने और भारत में स्थानिक जूनोटिक रोगों की रोकथाम, पता लगाने और प्रतिक्रिया देने के लिए 82 मिलियन अमेरिकी डॉलर के ऋण को मंजूरी दी है ।