जगमोहन सिंह राजपूत। यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल कालेजों में प्रवेश की परीक्षा नीट-यूजी को दोबारा कराने की आवश्यकता नहीं समझी, लेकिन यह कहना कठिन है कि उसके फैसले से परीक्षा आयोजक एजेंसी एनटीए की साख बहाल होने जा रही है। बात केवल एनटीए की ही नहीं है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में समूचे देश में अनेक परीक्षाएं कदाचार का शिकार हुई हैं।

व्यापम जैसे लज्जाजनक प्रकरण के बाद भी केंद्र और राज्यों की बड़ी संस्थाएं पर्चा-लीक रोक न पाएं तो यह या तो घोर अक्षमता है या संवेदनहीनता की पराकाष्ठा। देखा जाए तो इसमें देश की न्याय व्यवस्था की शिथिलता की भी भूमिका है। न्यायिक प्रक्रिया के प्रति भय-मुक्त होकर समाज विरोधी तत्व लगातार फल-फूल रहे हैं। यह दिखाता है कि विश्व को नैतिकता और जनसेवा का संदेश देने वाले महात्मा गांधी के देश ने व्यावहारिकता में उनके जीवन मूल्यों एवं सिद्धांतों को लगभग भुला दिया है।

यदि ऐसा हर स्तर पर न हुआ होता तो अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए कुछ लोग करोड़ों युवाओं और उनके परिवारों को घोर आपदा तथा कष्टकर अवसाद में नहीं झोंकते। यह सब करने वाले पढ़े-लिखे लोग हैं। चूंकि किसी न किसी अध्यापक ने ही इन सबको कभी पढ़ाया होगा, लिहाजा समूचे शिक्षक वर्ग के लिए भी यह गहन मंथन का समय है, क्योंकि देश के भविष्य का निर्माण और नई पीढ़ी का नैतिकता, मानव-मूल्यों तथा सदाचार से परिचय कराने का उत्तरदायित्व तो उनका ही है। हालांकि यह भी सही है कि इस उत्तरदायित्व निर्वहन में व्यवस्था-तंत्र की सजगता और संसाधनों की पूर्ति/आपूर्ति का प्रभाव पड़ता है।

जब हम गर्व के साथ प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा को याद करते हैं, तब उन गुरुकुलों तथा ज्ञान-केंद्रों के सहज संचालन में गुरु के लिए जो सम्मान मिलता था, जिस सहजता से संसाधनों की व्यवस्था होती थी, उसे अक्सर भूल जाते हैं। यह अतिशयोक्ति नहीं है कि शिक्षा में उत्कृष्टता तभी संभव होती है जब अध्यापकों को ‘अफसरों’ का भय न हो, संस्था में आवश्यक संसाधन उपलब्ध हों और उसे परिवार संचालन की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति की चिंता न हो।

यह चिंता की बात है कि आज देश में बच्चों पर पाठ्यक्रम का बोझ बढ़ा है। उनमें प्रतिस्पर्धा का तनाव भी प्रतिवर्ष बढ़ रहा है। कोचिंग संस्थाओं की निर्ममता को झेलने के लिए बच्चे बाध्य हैं। माता-पिता उनके भविष्य की आशंकाओं से व्यथित हैं। यदि स्कूल ठीक से चलें, अध्यापक समय से अपना कार्य करें, पाठ्यक्रम समयानुसार परिवर्तित होते रहें, परीक्षा व्यवस्था पर फिर से लोगों का विश्वास लौटाया जाए, तभी बच्चों को कुछ राहत मिल सकेगी।

यह लक्ष्य कठिन है, लेकिन प्रबुद्ध देशवासियों को इस दिशा में आगे बढ़ने के मार्ग प्रशस्त करने होंगे। वह शिक्षा अधूरी है जिसमें केवल लिखित परीक्षा के अधिकाधिक अंक ही जीवन-लक्ष्य मान लिए गए हों। ऐसी स्थिति में व्यक्ति और व्यक्तित्व विकास की अपेक्षा अर्थहीन हो जाती है। दूसरे विश्व युद्ध में अत्यंत अपमानजनक स्थिति में पहुंचे जापान ने जब राष्ट्र के पुनर्निर्माण का कार्य प्रारंभ किया तो उसने कार्य संस्कृति, समय-पालन तथा कर्मठता से राष्ट्र के प्रति समर्पित लोग तैयार करने को सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य माना।

इसकी सबसे पहली सीढ़ी बने स्कूल अध्यापक। उनके प्रयास से अगले दस-बारह साल में युवाओं की ऐसी पीढ़ी तैयार हो गई, जो अपने सामाजिक और राष्ट्रीय उत्तरदायित्व निर्वहन में पूरी तरह सक्षम थी। यदि भारत में भी ऐसे अध्यापक, कुलपति, राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं के अध्यक्ष परीक्षा केंद्रों के संचालन का उत्तरदायित्व निभा रहे होते, तो पेपर लीक की समस्या नहीं होती।

हमारे देश के साथ आज एक बड़ी समस्या यह है कि हमने नौकरशाही प्रशासन और अकादमिक प्रशासन के अंतर को पहचानने से इन्कार कर दिया है। जो उच्च शैक्षिक पद 1975-80 तक शिक्षविदों के पास होते थे, अब वे सब केवल नौकरशाहों के पास हैं। राज्यों में पाठ्यपुस्तक निगम, स्कूल बोर्ड तथा राष्ट्रीय स्तर पर सीबीएसई, नवोदय विद्यालय समिति और केंद्रीय विद्यालय संगठन के शीर्ष पदों पर शिक्षविद् क्यों नियुक्त नहीं हो सकते हैं?

डा. कोठारी की अध्यक्षता में बने राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1964-66) ने इंडियन एजुकेशन सर्विस (आइईएस) की स्थापना की संस्तुति की थी। सरकारें आती रहीं, जाती रहीं, समय-समय पर विद्वत वर्ग की ओर से प्रयास होते रहे, मगर इस पर हुआ कुछ नहीं। कारण स्पष्ट है कि नौकरशाह इसके लिए तैयार नहीं है। लगता है वह अपने प्रभाव क्षितिज में किसी का प्रवेश नहीं चाहते।

जब भी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की चर्चा होती है, तब संस्थागत स्वायत्तता की ओर सभी का ध्यान अवश्य जाता है। पिछले कुछ वर्षों में कुछ राज्य सरकारों तथा राज्यपालों के संबंध जिस ढंग से जनता के समक्ष उभरे हैं, उस पर केवल शर्मिंदा ही हुआ जा सकता है। किसी भी विश्वविद्यालय के सुचारु रूप से चलने तथा उत्कृष्टता की ओर बढ़ने के लिए राज्य सरकार और राज्यपाल के समन्वित सहयोग तथा मार्गदर्शन की महती आवश्यकता होती है। इनमें से एक कुलपति नियुक्त करे और दूसरा उसे निरस्त करे तो इससे लोकतंत्र का विकृत चेहरा ही उभरता है।

आज फर्जी डिग्री बांटने वाले अनेक संस्थान भी चिह्नित किए जा सकते हैं। इसके साथ ही अधिकांश राज्यों में शिक्षा संस्थानों में नियुक्तियों को लेकर पारदर्शिता और योग्यता का अभाव नजर आता है। यह सामान्य समझ से परे है कि राज्यों में अध्यापकों की नियुक्ति की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया जाता है? यदि किसी राज्य में कई साल से रिक्त पदों की संख्या लाखों में हो तो किसी न किसी को जिम्मेदारी लेनी ही होगी।

(लेखक शिक्षा, सामाजिक सद्भाव तथा पंथक समरसता के क्षेत्र में कार्यरत हैं)