जागरण संपादकीय: सशक्त बनाई जाए शिक्षक की संस्था, तेजी से बदल रहा शिक्षा का परिदृश्य
गुरु शब्द के जो भी अर्थ किए जाते हैं वे हमारा ध्यान गुरुता गांभीर्य और श्रेष्ठता जैसे उदात्त भावों के स्रोत की ओर ले जाते हैं । गुरु वह होता है जो ज्ञान के अंजन से शिष्य की आंख खोल देता है। वह अंधकार दूर कर प्रकाश की ओर ले जाने वाले माध्यम होता है। गुरु यानी शिक्षक अपने आप में एक संस्था है।
गिरीश्वर मिश्र। सभ्य समाजों में शिक्षा का महत्व सदा से रहा है। शिक्षित होकर जीने का सलीका आता है और मानवीय संवेदना का भाव विकसित होता है। पशुता से मुक्ति के लिए विद्या पाने की इच्छा की गई और कहा गया कि विद्याविहीन मनुष्य पशु होता है। विद्या के संस्कार न हों तो व्यक्ति के आचरण और व्यवहार में पशुता हावी होने लगती है। इसलिए कहा गया है कि अज्ञान दुखदायी होता है और अज्ञानी आदमी को जीवन में तमाम तरह के कष्टों का सामना करना पड़ता है।
ज्ञान पृथ्वी पर सब चीजों से अधिक पवित्र है और उसे पाकर दुखों से छुटकारा मिलता है। उपनिषद कहते हैं ज्ञान से ही आदमी को मुक्ति मिलती है: ऋते ज्ञानान्न मुक्ति: । ज्ञान न केवल सही राह दिखाता है, बल्कि गलत राह पर जाने से बरजता भी है। ज्ञान से मिलने वाली उचित और अनुचित के विचार की शक्ति सही निर्णय लेने में सहायक होती है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि किसी सभ्यता की प्रगति उसकी ज्ञान की पूंजी (नालेज कैपिटल) से आंकी जाए।
ज्ञान, विद्या और शिक्षा को मानुष भाव की स्थापना, रक्षा और संवर्धन के लिए आवश्यक माना गया। शिक्षा की पुख़्ता व्यवस्था के लिए उसका संस्थागत रूप बनाना अगला कदम था। वाचिक आदान-प्रदान के साथ पुस्तकें तैयार होनी शुरू हुईं, विद्यालय बने और विद्यालय जाना सभ्य जीवन का हिस्सा बन गया। यह बड़ा कारगर सिद्ध हुआ। शिक्षा की मुख्य धुरी के रूप में गुरु या अध्यापक की भूमिका निर्धारित की गई।
गुरु को शिक्षा प्रक्रिया का केंद्रबिंदु बनाया गया, जो शिक्षा के उद्देश्य, उसकी विषय-वस्तु, उसके उपादान आदि को निर्धारित करता था। भारत में प्राचीन गुरुकुलों और गुरुओं की लंबी श्रंखला रही है। राम के गुरु वशिष्ठ, कृष्ण के सांदीपनि और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य प्रसिद्ध पौराणिक चरित्र हैं। देश निर्माण में चाणक्य जैसे गुरुओं की भूमिका का अत्यंत प्राचीन इतिहास है। भारत में गुरुओं की अटूट परंपरा में अगणित नाम हैं।
ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के कुछ प्रमुख नाम हैं याज्ञवल्क्य, यास्क , कपिल, कणाद, व्यास, पाणिनि, उदयन, चरक, सुश्रुत, पतंजलि, शंकराचार्य, अभिनव गुप्त, नागार्जुन, वसुबंधु, भास्कराचार्य, आर्यभट्ट हेमचंद्र आदि। इन्होंने ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में गुरु परंपरा की अमिट छाप छोड़ी, जो अनेकानेक ग्रंथों से भलीभांति प्रमाणित है। व्यक्ति की जगह परंपरा प्रमुख रही है। सिख गुरु परंपरा स्वयं में एक अद्भुत उपलब्धि है। गुरुओं की यह पंरपरा काल के थपेड़ों के बीच कुछ उतार-चढ़ाव के साथ प्रवहमान रही है। देश-काल में बदलाव के साथ उसके रूप भी बदलते रहे हैं। गुरु गोरखनाथ, कबीर, गोस्वामी तुलसीदास, रहीम आदि की कविता में भी वही चिरंतन गूंज मिलती है, जिसके उत्स वेदों में दिखते हैं।
लोक और आध्यात्मिक सब प्रकार के ज्ञान को साधने में गुरु ही सहायक होता है। जीवनोपयोगी ज्ञान के लिए गुरु के निकट प्रशिक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण था। गावों और शहरों में भी विद्यालयों की अच्छी व्यवस्था को लेकर अंग्रेजों की आरंभिक रपट विस्मयजनक है और कदाचित इसकी शक्ति को समझ कर ही उन्होंने भारतीय शिक्षा की कमर तोड़ने का षड्यंत्र रचा। उन्हें आशातीत सफलता भी मिली।
शिक्षा की पाश्चात्य व्यवस्था भारतीय जनों को औपनिवेशिक परिस्थितियों में नई, आकर्षक और धनोपार्जन में सहायक दिखी। उसे एक बार जो अपनाया गया तो उसके चंगुल से हम आज तक बाहर नहीं निकल सके। धीरे-धीरे अध्यापन की स्थिति दूसरी नौकरियों जैसी होती गई। उसकी गरिमा में ह्रास हुआ। गुरु जनों के भी जाति और वर्ग बनते गए। उनके आचरण में भी कमजोरियां आती गईं।
शिक्षा संस्थाओं के आज कई स्तर हैं और अध्यापकों के वेतन और अन्य सुविधाओं में भी बड़ा फर्क है। कार्य की संस्कृति भी भिन्न है। आइआइटी, आइआइएम आदि संस्थाओं को स्वायत्त ढंग से काम करने अवसर है। फलतः वहां पर गुणवत्ता का स्तर बना हुआ है, जबकि अन्य विश्वविद्यालय प्रश्नांकित हो रहे हैं। यह दुर्भाग्य है कि शिक्षकों और सुविधाओं अनदेखी करते हुए संस्थाएं दनादन खुल रही हैं, फिर भी आज प्रवेश न पाने वाले छात्र प्रवेश पाने वालों से अधिक हैं और उनमें बहुत से योग्य विद्यार्थी भी हैं।
निजी क्षेत्र में भी शिक्षा के लिए द्वार खुले हैं, पर सुविधा, स्वायत्तता और गुणवत्ता की दृष्टि से वहां स्थिति असंतोषजनक है। वे मंहगे भी हैं। इनके साथ ही कोचिंग और ट्यूशन की संस्थाओं का जाल भी पसरता जा रहा है और आज उनकी बैसाखी पर ही अकादमिक प्रतियोगिता में सफलता का दारोमदार है। शिक्षा संस्थाओं में औपचारिक शिक्षा की अपर्याप्तता चिंताजनक हो रही है।
विद्यालयीय स्तर की शिक्षा डराने वाली हो रही है। शिक्षक-प्रशिक्षण के नाम पर अभी हम प्रभावी कदम नहीं उठा सके हैं। इन सबके पीछे ज्ञान के अतिरिक्त राजनीति, भ्रष्टाचार और अवांछित हस्तक्षेप प्रमुख कारण हैं। अध्यापन अब रुचि और योग्यता का प्रश्न नहीं रहा। अब कोई भी अध्यापक हो सकता है, बशर्ते व्यवस्था में पैठ हो। शिक्षा की गुणवत्ता के साथ नीतिगत स्तर पर भी लगातार समझौते हो रहे हैं। आज सरकारी विद्यालयों में प्राथमिक स्तर की शिक्षा में बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि की लगातार गिरावट चिंता का विषय हो रही है।
इस सबके मूल में शिक्षकों की समुचित भागीदारी की कमी है, चाहे वह योग्यता और कौशल की कमी के कारण हो या फिर उनके मन में पल रहे असंतोष के चलते। नौनिहालों यानी समाज के भविष्य को गढ़ते-तराशते शिक्षकों के शोषण की बात सर्वविदित है। उनकी स्थिति सुधारने पर सरकारों को वरीयता से विचार करना होगा। शिक्षा की गुणवत्ता के साथ समझौता देश की आत्मा के साथ धोखा है।
आज शिक्षा का परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। इंटरनेट की बदौलत आनलाइन सीखने की प्रक्रिया गति पकड़ रही है। अब मोबाइल और लैपटाप संचार, संवाद, लेखन, परीक्षा आदि को नया आयाम दे रहे हैं। कक्षा में स्मार्टबोर्ड लग रहे हैं। यह सब एकतरफा नहीं है। मनुष्य की पकड़ बढ़ने के साथ खुद मनुष्य पर यंत्र की पकड़ भी बढ़ रही है।
गुरु शब्द के जो भी अर्थ किए जाते हैं वे हमारा ध्यान गुरुता, गांभीर्य और श्रेष्ठता जैसे उदात्त भावों के स्रोत की ओर ले जाते हैं । गुरु वह होता है, जो ज्ञान के अंजन से शिष्य की आंख खोल देता है। वह अंधकार दूर कर प्रकाश की ओर ले जाने वाले माध्यम होता है। गुरु यानी शिक्षक अपने आप में एक संस्था है। आज इस संस्था को पुनर्जीवित कर सशक्त बनाने की आवश्यकता कहीं अधिक बढ़ गई है।
(लेखक पूर्व कुलपति हैं)