तसलीमा नसरीन। बांग्लादेश में आरक्षण विरोधी आंदोलन को लेकर मुझे आरंभ में लगा कि वह छात्रों द्वारा जायज मांग के हक में शुरू की गई एक मुहिम है। इसीलिए उसका समर्थन भी किया। हालांकि उन छात्रों ने किसी को यह भांपने तक नहीं दिया कि इस आंदोलन का नक्शा इस्लामी कट्टरपंथियों और अलगाववादियों ने तैयार किया है। अब इन छात्रों ने पूरे देश में आतंक का माहौल बना दिया है।

पिछले कुछ दिनों में ही इन कथित छात्रों ने करीब 1,169 अध्यापकों को अपमानित कर उन्हें नौकरी छोड़ने पर विवश किया। इनमें से अधिकांश अध्यापक हिंदू हैं। उच्च एवं प्रतिष्ठित पदों पर नियुक्त रहे हिंदुओं सहित समूचे अल्पसंख्यक समुदाय को लगातार निशाना बनाया जा रहा है? जिहादी लड़ाके और सजायाफ्ता अपराधी जेलों से रिहा किए जा रहे हैं।

जमात-ए-इस्लामी और जिहादी समूह हिजबुत तहरीर से प्रतिबंध हट गया है। आइएस का झंडा लेकर हिजबुत तहरीर के लड़ाकों ने ढाका में रैली की। अलकायदा के दिशानिर्देशों पर गठित अहसनुल्ला बांग्ला टीम के जिहादी नेता मोहम्मद जशीमुद्दीन रहमानी को जेल से रिहा कर दिया गया है।

इस समय बांग्लादेश की सड़कों पर राजनीतिक दलों से ज्यादा जिहादी इस्लामिक समूह हैं। ये लोग खिलाफत की स्थापना करना चाहते हैं। इससे पहले कि बांग्लादेश पूरी तरह जिहादियों के चंगुल में फंस जाए, कुछ उपाय करने होंगे। इसमें सबसे पहले तो जल्द से जल्द निष्पक्ष एवं पारदर्शी चुनाव कराए जाने चाहिए। चुनाव में अवामी लीग सहित सभी राजनीतिक दलों की भागीदारी होनी चाहिए।

चुनी हुई सरकार मजहब के आधार पर की जाने वाली राजनीति खत्म करे। इस प्रक्रिया में जमात-ए-इस्लामी को राजनीतिक दल के रूप में मान्यता न दी जाए, क्योंकि वह मूल रूप से मजहबी संगठन है। इसी तरह हिजबुत तहरीर, आइएस और दूसरे आतंकी समूहों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। हिंसक भीड़ द्वारा किए जा रहे कथित न्याय के सिलसिले पर विराम लगे।

प्रेस की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी बरकरार रखनी होगी। संविधान के मजहबी आधार को हटाकर पंथनिरपेक्षता को लागू करना होगा। शिक्षकों एवं छात्रों को कक्षाओं में तथा सैनिकों को बैरकों में लौट जाना होगा। मजहबी आधार पर बने नागरिक कानून खत्म करने होंगे तथा समानता की बुनियाद वाले दीवानी कानून लागू करने होंगे।

आजादी के म्यूजियम, राष्ट्रपिता के म्यूजियम तथा मुक्तियोद्धाओं के जिन म्यूजियमों को तोड़ दिया गया, उनका पुनर्निर्माण करना होगा। मदरसों को स्कूलों में तब्दील करना होगा। पाठ्यक्रम में पंथनिरपेक्ष मूल्य एवं आधुनिक शिक्षा अपनानी होगी। सरकार को अपने खर्च सार्वजनिक करने होंगे। सूचना का अधिकार कानून पारित कर पारदर्शिता बढ़ानी होगी। हालांकि, मेरे इन सुझावों पर शायद ही अमल हो।

शेख हसीना सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप को लेकर तमाम सवाल उठाए जा सकते हैं, लेकिन हाल-फिलहाल जो हो रहा है, वह भी कतई सही नहीं। शेख हसीना से सत्ता छीनने वालों का भी लोकतंत्र में कोई भरोसा नहीं। चारों तरफ बर्बरता का नंगा नाच चल रहा है। मुहम्मद यूनुस या दूसरे जिम्मेदार लोग भी सार्थक हस्तक्षेप करते नहीं दिखते। उलटे उग्र युवाओं के विध्वंसात्मक और अमानवीय क्रियाकलापों को विभिन्न तरीकों से प्रश्रय दिया जा रहा है।

चुनाव को लेकर भी कोई सुगबुगाहट नहीं दिख रही। पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया के बेटे और बीएनपी नेता तारिक जिया को बांग्लादेश लौटने की अनुमति नहीं दी जा रही है। सत्ता पर नियंत्रण फिलहाल जमात-ए-इस्लामी के पास है और वह नहीं चाहती कि बीएनपी के नेता लौटें।

तारिक जिया के बांग्लादेश लौटने पर जमात का महत्व घट जाएगा। इसलिए जमात चाहती है कि बगैर चुनाव के इस्लामी कट्टरपंथियों के साथ देश की सत्ता जितने समय तक उसके पास रहती है, वह उतना ही अच्छा होगा। इसी तरह वे लोग बांग्लादेश में पूरी तरह इस्लाम का शासन लागू कर पाएंगे।

दूसरी ओर, शासन की कमान संभाल रहे मुहम्मद यूनुस रहस्यमय व्यक्ति हैं। यूनुस मूल रूप से एनजीओ वाले हैं। सवाल उठता है कि क्या ऐेसे व्यक्ति से सत्ता संभलेगी? यह तो समय ही बताएगा कि वह कठपुतली हैं या निर्णय लेने के लिए पूरी तरह आजाद? उनका अभी तक का रवैया अच्छे संकेत नहीं देता। उन्होंने 1971 के मुक्तियुद्ध को खारिज कर 2024 के छात्र आंदोलन को मुक्तियुद्ध का नाम दिया है।

मुक्तियुद्ध के स्मृति चिह्नों को ध्वस्त कर देने पर सरकार की तरफ से विरोध की आवाज तक नहीं निकली। जब आंदोलनकारी स्मारकों पर हथौड़े बरसा रहे थे, तब यूनुस ने कहा था कि मुक्तियोद्धा विजय के उल्लास में डूबे हैं। विध्वंसात्मक कार्रवाइयों का इस निर्लज्ज तरीके से बचाव करते हुए मैंने कभी नहीं देखा।

बांग्लादेश में जितने भी अलगाववादी और कट्टर मुस्लिम हैं, वे वहाबी इस्लाम में यकीन करते हैं। वहाबी इस्लाम सूफीवाद का विरोधी है। इसीलिए, कट्टरपंथी अब सूफियों की कब्र या मजारों को निशाना बना रहे हैं।

मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार का रवैया प्रचंड भारत-विरोधी है। वहां भारत-विरोधी कई रैलियां हो चुकी हैं। शेख हसीना को शरण देने से लेकर बांग्लादेश में आई बाढ़ का ठीकरा भारत पर फोड़ा जा रहा है। लगता नहीं कि यह सरकार भारत से बेहतर रिश्तों की इच्छुक है।

बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी मात्र आठ प्रतिशत है। हिंदुओं का सफाया किए बगैर ये कट्टरपंथी मानेंगे नहीं। फिर शिया और अहमदिया मुसलमानों को भी खत्म कर देंगे।

नास्तिकों, तर्कवादियों और उदारवादियों के लिए भी बांग्लादेश में कोई जगह नहीं होगी। फिर ये लोग आपस में ही लड़कर मरेंगे। उसके बाद भी इन्हें सद्बुद्धि नहीं आएगी। ऐसा लग रहा है कि बांग्लादेश मध्ययुग में चला गया है, जहां गैर-इस्लामिक लोगों और आधुनिकता के लिए कोई जगह नहीं।

कुछ समय पहले बांग्लादेश की तरक्की की चर्चा हो रही थी और बांग्लादेश को उस स्थिति तक पहुंचाने में शेख हसीना का योगदान कोई कम नहीं। जिहादियों को बेशक उन्होंने जेल में डाला, मगर मजहबी तुष्टीकरण के लिए भी कई काम किए। जैसे मदरसे की डिग्री को मान्यता देने और इस्लामिक संस्कृति का विस्तार। उन्होंने जिनको शह दी, वही उन्हें मात देने वाले साबित हुए।

(बांग्लादेश से निर्वासित लेखिका प्रख्यात साहित्यकार हैं)