जागरण संपादकीय: सीबीआइ पर सवाल, सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी बड़ा आघात
केजरीवाल की जमानत पर पक्ष-विपक्ष के दावों के बीच इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सुप्रीम कोर्ट ने फिर से यह रेखांकित किया कि जमानत नियम और जेल अपवाद है। वह यह बात पहले भी कई बार कह चुका है। क्या उसकी यह बात निचली अदालतों और यहां तक कि उच्च न्यायालयों तक पहुंच नहीं पा रही है?
आबकारी नीति घोटाले में अंततः दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल गई। ऐसा होने के आसार इसलिए बढ़ गए थे, क्योंकि उनके पहले इस मामले में जेल भेजे गए अन्य लोगों को भी जमानत मिल चुकी थी। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने केजरीवाल को जमानत देते समय उन पर कई शर्तें लगाईं और उनके तहत वह मुख्यमंत्री कार्यालय नहीं जा सकते और किसी सरकारी फाइल पर उपराज्यपाल की अनुमति के बिना हस्ताक्षर भी नहीं कर सकते, लेकिन उन्हें जमानत देते समय सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश ने जिस तरह यह कहा कि सीबीआइ को अपने को पिंजरे के तोते वाली छवि से मुक्त करना चाहिए, वह इस एजेंसी के लिए एक बड़ा आघात है।
यह ठीक है कि उक्त न्यायाधीश ने केजरीवाल की गिरफ्तारी को अवैध नहीं कहा, लेकिन उन्होंने गिरफ्तारी के समय पर यह सवाल उठाते हुए सीबीआइ को असहज ही किया कि आखिर उसने उन्हें तब क्यों गिरफ्तार किया, जब उन्हें ईडी के मामले में जमानत मिल गई थी? यदि इस सवाल के चलते आम आदमी पार्टी के नेता सीबीआइ की निष्पक्षता पर सवाल उठा रहे हैं तो उन्हें गलत कैसे कहा जा सकता है?
यह पहली बार नहीं है, जब सीबीआइ को सुप्रीम कोर्ट से यह सुनना पड़ा हो कि वह सरकार के दबाव और प्रभाव में काम करती है। इसके पहले मनमोहन सरकार के समय कोयला खदान आवंटन में घोटाले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उसे पिंजरे का तोता कहा था। यह ठीक नहीं कि सीबीआइ इस छवि से बाहर नहीं आ पा रही है कि वह सरकार के इशारे पर काम करती है। सीबीआइ की ऐसी छवि मोदी सरकार पर भी एक सवाल है, जिसकी ओर से यह दावा किया जाता है कि यह एक स्वतंत्र एजेंसी है और उसके कामकाज में उसका कोई दखल नहीं।
केजरीवाल की जमानत पर पक्ष-विपक्ष के दावों के बीच इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सुप्रीम कोर्ट ने फिर से यह रेखांकित किया कि जमानत नियम और जेल अपवाद है। वह यह बात पहले भी कई बार कह चुका है। क्या उसकी यह बात निचली अदालतों और यहां तक कि उच्च न्यायालयों तक पहुंच नहीं पा रही है? यह प्रश्न इसलिए, क्योंकि अरविंद केजरीवाल हों या मनीष सिसोदिया अथवा के. कविता या फिर अन्य मामलों में जेल गए दूसरे नेता, उन्हें आमतौर पर जमानत तभी मिल सकी, जब सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया। आखिर लोगों को निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों से जमानत क्यों नहीं मिल पाती? यह वह प्रश्न है, जिसका उत्तर न्यायपालिका को देना है और यह दिया ही जाना चाहिए। इसी तरह यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए कि अधिकांश मामलों में ट्रायल शुरू होने में देरी क्यों होती है? ध्यान रहे कि सुप्रीम कोर्ट प्रायः जमानत इसलिए भी दे देता है, क्योंकि यह पता नहीं होता कि ट्रायल कब शुरू होगा।