पहले खुद को साधना सीखे कांग्रेस, फिर से नाकाम हो चुके मुद्दों के सहारे लोकसभा चुनाव में कूदने की तैयारी में पार्टी
विपक्षी दलों के बीच दावेदारी ठोकने से पहले तो राहुल को कांग्रेस के अंदर यह संदेश देना होगा कि वह तब भी संसद में खड़े होकर सत्तापक्ष को जवाब दे सकते हैं जब अकेले हों। बाहर के बयान राजनीतिक माने जाएंगे संसद के अंदर विधेयक पर कांग्रेस की विचारधारा न रखकर पार्टी नेताओं ने रिकार्ड में अपने लिए शून्यता छोड़ दी।
आशुतोष झा। पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद हाल में विपक्षी गठबंधन की फिर से एक बैठक हुई और बताते हैं कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को पराजित करने के मुद्दे पर एकजुटता दिखाई गई। एकजुटता दिखाने की बात इसलिए, क्योंकि वहां भी हर दल के बीच एक-दूसरे से आगे निकलने की एक अंदरूनी होड़ चल रही थी। शायद यही कारण है कि बाकी बातों पर तो चर्चा हुई, लेकिन उस मुद्दे को किसी ने छुआ ही नहीं, जो सबसे अहम था। यह विषय था-जनता क्यों भाजपा को समर्थन दे रही है और कांग्रेस क्यों अपनी बात जनता तक पहुंचाने में नाकाम हो रही है? क्यों कांग्रेस के लोकलुभावन वादों पर जनता का भरोसा कम है? अचरज की बात तो यह है कि खुद कांग्रेस भी यह समझे बिना ही फिर से रटे-रटाए नारों और नाकाम हो चुके मुद्दों के सहारे ही लोकसभा चुनाव में कूदने की तैयारी में है।
कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है, लेकिन सच्चाई यह है कि जनता उसे लेकर असमंजस में है। वह समझ ही नहीं पा रही है कि कांग्रेस की अपनी विचारधारा क्या है। ऐसा इसलिए, क्योंकि विपक्षी दलों में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद खुद अनुसरण के रास्ते पर है। खासतौर से पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में कांग्रेस अपना मूल रूप ही खो चुकी है और आचरण में पिछलग्गू पार्टी हो चुकी है।
परंपरागत रूप से जाति जनगणना और यहां तक कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट से भी विरोध रखने वाली कांग्रेस ने अब क्षेत्रीय दलों के इस एकमात्र अस्त्र को अपना मुख्य मुद्दा बना लिया है। कई मुद्दों पर वामदलों का प्रभाव हावी दिख रहा है। पुरानी पेंशन जैसे मुद्दों पर यह स्पष्ट दिखा। कांग्रेस नेता साफ्ट हिंदुत्व की राह पकड़कर कभी तेज गति से चलते हैं तो कभी सनातन के अपमान पर चुप्पी साध लेते हैं। कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है और इसका सोच ऐसा रहा है, लेकिन अनुच्छेद-370 के मुद्दे पर उसकी विचारधारा अब तक ढुलमुल दिखती है। विपक्ष के नेतृत्व की बात तो छोड़िए, खुद कांग्रेस के नेतृत्व को लेकर पार्टी की स्थिति स्पष्ट नहीं है। मल्लिकार्जुन खरगे बस नाम के पार्टी अध्यक्ष दिखते हैं। जबकि राहुल गांधी बिना जिम्मेदारी के सर्वेसर्वा लगते हैं। विपक्ष के दूसरे दल खरगे को कांग्रेस का नेता मानते हैं और कांग्रेस के लोग राहुल गांधी को।
अभी-अभी संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त हुआ है। शुरुआती कुछ दिन संसद सुचारु चली, फिर एक ऐसे सदस्य की बर्खास्तगी को लेकर विपक्षी एकजुटता दिखी जिसने अपना नैतिक बल खो दिया था। महुआ मोइत्रा ने यह स्वीकार किया था कि उन्होंने संसद सदस्य के रूप में मिली अपनी आइडी और पासवर्ड विदेश में बैठे एक उद्योगपति को दिया था। यही अपने आप में बहुत बड़ा अपराध है। यहीं से कांग्रेस और पूरा विपक्ष पटरी से उतर गया।
सत्र के अंतिम दो दिनों में आपराधिक न्याय प्रणाली से जुड़े तीन विधेयक, टेलीकम्युनिकेशंस बिल और मीडिया से जुड़ा एक विधेयक पारित हुआ। बीजू जनता दल, एआइएमआइएम, वाईएसआरसीपी जैसे कई विपक्षी दलों के सदस्यों ने बहस में हिस्सा लिया, लेकिन कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी इस बहाने के पीछे छिप गई कि विपक्षी सदस्यों को निलंबित क्यों किया। कांग्रेस के लिए चिंता की बात तो यह है कि वह साथी ढूंढ़ने के चक्कर में फिर से जनता को भूल गई। कांग्रेस ने सदन से ही दूरी बना ली जहां वह अपनी बात इतिहास के पन्नों में दर्ज करा सकती थी।
कुछ दिनों पहले संसद में ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विपक्ष के सामने कहा था-एक अकेला सब पर भारी। क्या लोकसभा में कांग्रेस के राहुल गांधी, सोनिया गांधी और राज्यसभा में खुद खरगे, पी. चिदंबरम जैसे नेता तब इसका जवाब नहीं दे सकते थे जब ये विधेयक पारित हो रहे थे? विपक्षी दलों की बैठक में ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए खरगे का नाम उछालकर जिस तरह राहुल गांधी को पीछे करने की कोशिश की थी, क्या उसका जवाब राहुल गांधी लोकसभा में तब खड़े होकर नहीं दे सकते थे जब विधेयक पारित हो रहे थे? जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन में इन विधेयकों का विरोध कर राहुल गांधी या किसी भी दूसरे नेता ने क्या हासिल किया?
विपक्षी दलों के बीच दावेदारी ठोकने से पहले तो राहुल को कांग्रेस के अंदर यह संदेश देना होगा कि वह तब भी संसद में खड़े होकर सत्तापक्ष को जवाब दे सकते हैं जब अकेले हों। बाहर के बयान राजनीतिक माने जाएंगे, संसद के अंदर विधेयक पर कांग्रेस की विचारधारा न रखकर पार्टी नेताओं ने रिकार्ड में अपने लिए शून्यता छोड़ दी। यह और बात है कि इसके लिए साहस और धैर्य की बहुत जरूरत होती है। यह कांग्रेस की हार है।
भविष्य में जब कभी सदन का रिकार्ड पलटा जाएगा तो इस विधेयक पर कांग्रेस की राय मौजूद नहीं होगी। आने वाली पीढ़ी को इसका पता नहीं होगा कि ब्रिटिशकालीन अपराध संहिता में जब बदलाव हो रहा था तो कांग्रेस क्या सोचती थी। तात्कालिक एकजुटता दिखाने के लिए कांग्रेस जैसी बड़ी और पुरानी पार्टी के लिए यह कीमत कितनी ज्यादा है, इसका अहसास उन्हें आज नहीं तो कल अवश्य होगा।
पांच राज्यों के नतीजों ने साबित कर दिया है कि जितने अहम चुनावी मुद्दे हैं, उतने ही जरूरी नेतृत्व की क्षमता और विश्वसनीयता भी हैं। जनता इन दोनों मुद्दों को तराजू पर तौलती है फिर वोट देती है। जनता विभिन्न मुद्दों पर अपने नेता के विचारों की स्पष्टता जानना चाहती है। खासकर ऐसे मुद्दे जो लंबे समय तक स्थायी रहने वाले हैं। वह यह भी देखना चाहती है कि जिसे वोट दे रहे हैं वह बिना डिगे खड़ा रह सकता है या नहीं। वह कठिन फैसले ले सकता है या नहीं। इन सभी पहलुओं पर कांग्रेस के नेता खुद को आंक लें। खुद को साधेंगे तभी सब सधेंगे।
(लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं)