दीपिका नारायण भारद्वाज। वर्ष 2012 में जब मैंने अपनी डॉक्यूमेंट्री ‘मार्टर्स आफ मैरिज’ बनानी शुरू की थी, तब धारा 498 ए का दुरुपयोग चरम पर था। जिस किसी वकील या पुलिस अफसर से बात करो, सब ऑफ कैमरा कहते थे कि यह कानून महिलाओं के हाथों में दिया गया वह हथियार है, जिसे वह पति और उसके परिवार को बर्बाद करने के लिए इस्तेमाल कर रही हैं। इसी दौरान नारीवादियों से भी बात की। अचंभे की बात यह थी कि जहां सुप्रीम कोर्ट इस कानून के दुरुपयोग को कानूनी आतंकवाद की संज्ञा दे चुका था, वहीं नारीवादी यह मानने को तैयार नहीं थे कि कोई स्त्री कानून का दुरुपयोग कर सकती है। अंततः 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने गाइडलाइन जारी की और 498 ए में तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगाई। इसके बाद पारिवारिक विवादों में छेड़खानी, दुष्कर्म, अप्राकृतिक सेक्स जैसे आरोपों का इस्तेमाल किया जाने लगा। जेठ, देवर, श्वसुर, मामा, चाचा, ननद के पति आदि पर यौन शोषण का आरोप लगाकर उन्हें जेल भिजवाया जाने लगा, ताकि भारी रकम वसूल की जा सके। किसी भी कोर्ट परिसर में मध्यस्थता केंद्र में जाकर देखें, आपको इन मुकदमों में सौदेबाजी होती मिल जाएगी। जितनी संगीन धाराएं, उतनी बड़ी मांग। पति और उसका परिवार धक्के खाकर और जेल में सड़कर इतना हार जाता है कि कोई भी मांग मान लेता है।

एक आम इंसान को 15-20 लाख की पूंजी जमा करने में बरसों लग जाते हैं, लेकिन ऐसे अनगिनत मामले हैं, जहां कुछ दिनों या महीनों चली शादी में भी महिला लाखों रुपये झूठे मुकदमे के एवज में ले गई। महिलाओं के पास बहुत से ऐसे कानून हैं, जिनके तहत वे पति और उसके परिवार के खिलाफ शिकायत कर सकती हैं। ऐसे में क्या वैवाहिक दुष्कर्म का कानून लाना जरूरी है? हाल में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय एवं राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी ऐसे कानून के विरोध में मत व्यक्त किया। प्रश्न है कि क्या भारत की आम महिलाएं पति को दुष्कर्मी कहने का अधिकार मांग रही हैं या फिर यह कुछ चुनिंदा नारीवादियों की मांग है? इस विषय पर मैंने कुछ नारीवादियों की दलीलें सुनीं। उनका कहना है कि वैवाहिक दुष्कर्म कानून का न होना राइट टू इक्वलिटी यानी समता के अधिकार के खिलाफ है। यही महिलाएं कभी यह नहीं कहतीं कि 498 ए या घरेलू हिंसा के कानून में पुरुष को पीड़ित न देखा जाना भी राइट टू इक्वलिटी के खिलाफ है। अगर यह कहा जाए कि क्यों न वैवाहिक दुष्कर्म को जेंडर न्यूट्रल कर दिया जाए तो नारीवादी क्रोधित होकर कहते हैं कि अगर ऐसा हुआ तो पुरुष कानून का दुरुपयोग करेंगे। साफ है कि नारीवादी चाहते हैं कि हर तरह का कानून सिर्फ महिलाओं के लिए हो, भले ही वे उसका दुरुपयोग करें। 21वीं सदी में इस तरह का तर्क नारीवाद के सिद्धांतों के बिल्कुल विपरीत है, लेकिन आज का नारीवाद महिलाओं को सशक्त बनाने के स्थान पर पुरुषों को सताने में अधिक अग्रसर दिखता है।

यह देखा जाना जरूरी है कि वैवाहिक दुष्कर्म कानून बनने से पहले ही न्यायालयों में किस तरह के आदेश पारित हो चुके हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने पिछले साल एक मुकदमे को खारिज किया। इसमें पत्नी ने पति के परिवार के पुरुष रिश्तेदारों पर दुष्कर्म का झूठा मुकदमा किया था। न्यायालय ने कहा कि घरेलू झगड़ों में ऐसे झूठे आरोप लगाने की प्रवृत्ति को रोकना होगा। एक अन्य मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने शादी के एक दिन बाद ही पत्नी द्वारा पति पर लगाए गए दुष्कर्म के आरोप को खारिज करते हुए कहा कि यह कानून के दुरुपयोग का सटीक उदाहरण है। ऐसे भी बहुत से मामले हैं, जहां महिलाओं द्वारा पति पर बेटी के यौन उत्पीड़न का झूठा मुकदमा लिखाया गया, ताकि उसकी कस्टडी उसे मिल जाए।

हमारी संस्था एकम न्याय फाउंडेशन ने 2023 में 825 ऐसे मामले उजागर किए, जहां या तो पत्नी ने प्रेमी के साथ मिलकर पति को मार दिया या पुरुष ने पत्नी या प्रेमिका द्वारा प्रताड़ना के कारण आत्महत्या कर ली। जब हम हर दिन झूठे मुकदमों में फंसे पुरुषों द्वारा आत्महत्या करते देख रहे हैं, तब यदि वैवाहिक दुष्कर्म का कानून आया तो जो महिलाएं व्यभिचारी या झगड़ालू हैं, वे इस कानून का बेजा इस्तेमाल करेंगी। ऐसे किसी कानून के संदर्भ में कुछ अहम सवाल हैं: अगर महिला कह दे कि दो साल पहले पति ने दुष्कर्म किया था तो वह यह कैसे साबित कर पाएगा कि उसने ऐसा नहीं किया था? अगर महिला मुकदमा करने के बाद उसे वापस लेने के लिए लाखों या करोड़ों रुपये की मांग करे तो क्या न्यायालय ऐसे मुकदमों को सेटलमेंट के नाम पर खत्म करेंगे, जैसा 498 ए में होता है? अगर हां तो क्या यह उगाही का एक और जरिया नहीं बन जाएगा? क्या महिला को झूठा मुकदमा करने की कोई सजा मिलेगी? 498 ए के झूठे मुकदमों में तो शायद ही किसी महिला को सजा मिलती हो।

भारत में पति या पत्नी द्वारा बिना किसी कारण शारीरिक संबंध न बनाना क्रूरता और तलाक का आधार माना जाता है। यदि पति इसी आधार पर तलाक मांगता है और इसके बाद पत्नी दुष्कर्म का आरोप लगा देती है तो कोर्ट किसकी मानेगा? क्या केवल महिला का कथन पति को जेल भेजने के लिए पर्याप्त होगा? शादी सिर्फ महिला अधिकारों का तानाबाना नहीं है, जैसा कि नारीवादी तबका सिद्ध करना चाहते हैं। महिला अधिकारों के लिए संघर्ष करने का मतलब यह नहीं कि पुरुष के अधिकारों की पूरी तरह अनदेखी कर दी जाए। मान-सम्मान सिर्फ नारी का नहीं, पुरुष का भी होता है। पतियों द्वारा पत्नियों का मानसिक और यौन शोषण किए जाने पर उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए, लेकिन इसकी अनदेखी न हो कि महिलाएं कानूनों का दुरुपयोग कर रही हैं और इसके लिए उन्हें कोई सजा नहीं मिलती। सुप्रीम कोर्ट को इस पर गौर करना चाहिए कि जो कानून इतनी बड़ी आबादी वाले देश में हर शादी को प्रभावित करने वाला हो, उसे सिर्फ एक पक्ष के अधिकारों के मद्देनजर बनाने के बजाय ऐसा कोई रास्ता निकालना चाहिए, जिससे किसी के भी अधिकारों का हनन न हो।

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं)