विवेक देवराय/आदित्य सिन्हा। स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी नेशनल हेल्थ अकाउंट्स यानी एनएचए के हालिया आंकड़े भारत के स्वास्थ्य तंत्र को लेकर कई सकारात्मक रुझान दर्शाते हैं। इसमें एक उल्लेखनीय पहलू यही है कि सेहत पर लोगों का खर्च घटा है। वर्ष 2013-14 में लोगों को स्वास्थ्य संबंधी मामलों पर अपनी जेब से जो 64.2 प्रतिशत खर्च करना पड़ रहा था, वह 2021-22 में घटकर 39.4 प्रतिशत रह गया।

आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना यानी पीएम-जय, फ्री डायलिसिस और ऐसे ही अन्य सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रमों के चलते स्वास्थ्य पर लोगों का खर्च कम हुआ है और इस बचत ने उन्हें आर्थिक सुरक्षा का कवच प्रदान किया है। इन योजनाओं के विस्तार से लोगों के करीब एक लाख करोड़ रुपये बचे हैं। इस सफलता से यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज यानी यूएचसी के लक्ष्य को संबल मिला है, जो पिछले कुछ समय से सरकार की प्रमुख प्राथमिकताओं में से एक है।

सेहत पर सरकार के खर्च में बढ़ोतरी का सीधा संबंध इस पर लोगों के घटे खर्च से है। वर्ष 2014-15 से 2021-22 के बीच सेहत पर सरकारी खर्च जीडीपी के 1.13 प्रतिशत से बढ़कर 1.84 प्रतिशत हो गया और कुल सरकारी खर्च में स्वास्थ्य सेवाओं पर व्यय भी 3.94 प्रतिशत से बढ़कर 6.12 प्रतिशत हो गया।

स्वास्थ्य सेवाओं में सरकार की बढ़ती भूमिका एक न्यायसंगत स्वास्थ्य प्रणाली की ओर संकेत करती है। इससे जहां लोगों पर आर्थिक बोझ घटा है तो आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच भी सुगम हुई है। देश के निरंतर उन्नत होते इस बुनियादी ढांचे में सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों के सेवा प्रदाताओं की महत्वपूर्ण भूमिका है।

स्वास्थ्य सेवाओं में सरकारी अस्पतालों की 1.49 लाख करोड़ रुपये और निजी अस्पतालों की 2.12 लाख करोड़ रुपये की हिस्सेदारी है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, डिस्पेंसरी और परिवार नियोजन केंद्र भी इस मोर्चे पर 56,477 करोड़ रुपये का अहम योगदान करते हैं। खर्च में वितरण एवं विविधता का यह स्तर स्वास्थ्य सेवाओं में सरकारी खर्च की बढ़ती भूमिका को दर्शाता है, जिसका प्राथमिक एवं निदानात्मक उपचार, दोनों स्तरों पर विस्तार हुआ है। खासतौर से ग्रामीण और दूर-दराज के वंचित क्षेत्र इससे लाभान्वित हुए हैं।

खर्च की पड़ताल करें तो समझ आता है कि प्राथमिक सेवाओं पर बहुत ध्यान दिया जा रहा है, जिसमें कुल व्यय का 46 प्रतिशत इन पर हो रहा है। प्राथमिक सेवाओं पर तो सरकारी खर्च 50 प्रतिशत तक है, जो दर्शाता है कि मूलभूत स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी आवश्यकताओं की पूर्ति को प्राथमिकता दी जा रही है।

वहीं द्वितीयक सेवाओं पर 33 प्रतिशत तो तृतीयक सेवाओं पर 16 प्रतिशत खर्च इस बात का संकेत है कि सभी स्तरों पर संतुलन साधा जा रहा है। समग्रतापूर्ण दृष्टिकोण से उन्नत किया जा रहा स्वास्थ्य ढांचा न केवल कोविड महामारी जैसी आकस्मिक चुनौतियों का सामना करने में कहीं अधिक सक्षम बनाएगा, बल्कि गैर-संचारी रोगों के बढ़ते दायरे से निपटने में भी मददगार होगा। लंबे अर्से से स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित इलाकों में भी इन सेवाओं की पहुंच और विस्तार के लाभ सामने आ रहे हैं।

सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं का विस्तार भी स्वास्थ्य पर लोगों के खर्च को घटाने में मददगार साबित हो रहा है। सरकार ने बीमा योजना और ऐसी ही कुछ अन्य पहल की हैं, जिनका लाभ लोगों को मिला है। वर्ष 2014-15 में सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर जो खर्च 5.7 प्रतिशत था, वह 2021-22 में बढ़कर 8.7 प्रतिशत हो गया है, जो इसका सूचक है कि स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर वित्तीय जोखिम झेलने वाले लोगों को एक सुरक्षा आवरण प्राप्त हुआ है।

भारत में लंबे समय से यह सिलसिला कायम रहा है कि बीमारियों के चलते परिवार के परिवार गरीबी के दलदल में चले जाते थे। ऐसे में, सामाजिक सुरक्षा योजनाएं उनके लिए एक बड़ा संबल बनकर उभरी हैं। स्वास्थ्य पर सरकार के बढ़ते खर्च और लोगों पर घटते वित्तीय बोझ के देश को सामाजिक-आर्थिक विकास से जुड़े दूरगामी लाभ हासिल होंगे। इससे शिशु-मातृ मृत्यु दर पर अंकुश लगाने के साथ ही जीवन प्रत्याशा बढ़ेगी।

जीवन की गुणवत्ता बढ़ेगी। सेहतमंद होने से लोगों की उत्पादकता में बढ़ोतरी होगी, जिससे आर्थिक वृद्धि को तेजी के नए पंख लगेंगे। इन सकारात्मक रुझानों के बीच अभी भी कुछ ऐसे बिंदु सामने आते हैं, जिन पर समय रहते ध्यान देने की आवश्यकता है। स्वास्थ्य पर बढ़े खर्च के साथ ही इससे हासिल हो रहे फायदों की निरंतरता का भी ध्यान रखना होगा।

इसका अर्थ है कि स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के साथ ही इस पर नजर बनाए रखी जाए कि जो सेवाएं उपलब्ध हो रही हैं, उनकी गुणवत्ता कैसी है। इसके साथ ही बीमारी की शुरुआती स्तर पर पहचान के तंत्र को भी प्रभावी बनाना होगा ताकि अगले चरण में बीमारी के बिगड़ने पर जो अधिक खर्च एवं जटिलताएं बढ़ती हैं, उन्हें दूर किया जा सके। इससे लोगों को लाभ मिलने के साथ ही स्वास्थ्य तंत्र पर भी बोझ घटेगा।

कुल मिलाकर, एनएचए के आकलन यही दर्शाते हैं कि स्वास्थ्य के मोर्चे पर देश सही दिशा में आगे बढ़ रहा है। नि:संदेह यह प्रगति प्रशंसनीय है, लेकिन इस क्रम को यथावत बनाए रखने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ ही पर्याप्त नीतिगत हस्तक्षेप भी आवश्यक होंगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार के बढ़े खर्च ने एक मजबूत बुनियाद रखी है, लेकिन अगले चरण के स्वास्थ्य सुधारों में गुणवत्ता और दीर्घकालिक निरंतरता पर ध्यान केंद्रित करना होगा ताकि प्रत्येक नागरिक तक उत्तम कोटि की स्वास्थ्य सुविधाएं किफायती दरों पर पहुंच पाएं।

(देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख और सिन्हा परिषद में ओएसडी-अनुसंधान हैं)