जागरण संपादकीय: निराश करता राजनीतिक विमर्श, झेलने पड़ेंगे दुष्प्रभाव
राजनीतिक विमर्श में गिरावट के कारणों की पड़ताल करें तो पाएंगे कि राजनीति बहुत प्रतिस्पर्धी हो चली है। पूर्व में लोग सेवा भाव से ही राजनीति का रुख करते थे और मूल रूप से अपने किसी प्रकल्प में व्यस्त रहते थे किंतु अब स्थिति यह है कि लोग अब अपना मूल काम छोड़कर पूर्णकालिक रूप से राजनीति में लगे हैं।
राहुल वर्मा। बीते दिनों कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा को एक पत्र लिखकर कहा कि वह अपने उन नेताओं पर लगाम लगाएं, जो राहुल गांधी के प्रति अनर्गल बयानबाजी में लगे हुए हैं। इसके जवाब में लिखी चिट्ठी में जेपी नड्डा ने खरगे को उन ‘गालियों’ की याद दिलाई, जो कांग्रेस नेता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को देते रहते हैं। देश के दो सबसे बड़े राजनीतिक दलों के राष्ट्रीय अध्यक्षों के इस पत्राचार से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि भारतीय राजनीति में लोकाचार की दशा-दिशा कितनी दयनीय हो गई है। शीर्ष पर ऐसी स्थिति से इतर दूसरी-तीसरी पांत के नेताओं से जुड़े ऐसे वाकयों के अंतहीन उदाहरण मिल जाएंगे। यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि भारतीय राजनीति में विमर्श का स्तर कितना गिरता जा रहा है। देर-सबेर देश को इसके दुष्प्रभाव झेलने ही पड़ेंगे।
राजनीतिक विमर्श में तल्खी कोई नई बात नहीं है। अतीत में भी यह बहुत आम रहा है, लेकिन कड़वी बातों के तीर प्रायः चुनावी रण में ही चलते थे। उनकी एक मर्यादा भी होती थी। अब राजनीतिक बयानबाजी में कड़वाहट बारहमासी हो चली है और उसका स्तर भी निम्न से निम्नतर होता जा रहा है। हालांकि ऐसा नहीं है कि केवल भारत में ही यह देखने को मिल रहा हो। विश्व के सबसे पुराने एवं परिपक्व लोकतंत्र का दावा करने वाले अमेरिका में भी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान तीखे राजनीतिक हमले हो रहे हैं और रिपब्लिकन प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रंप और डेमोक्रेटिक दावेदार कमला हैरिस एक दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे।
जहां तक भारत की बात है तो देश में सार्थक राजनीतिक विमर्श का एक समृद्ध इतिहास रहा है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सभी नेता बहुत पढ़े-लिखे एवं चिंतनशील थे। स्वतंत्रता के बाद के भारतीय नेताओं की पीढ़ी भी विद्वता से परिपूर्ण एवं विचारशील रही। तमाम नेता समाचार पत्रों में नियमित स्तंभ लिखते रहे। कुछ नेताओं ने समाचार पत्रों का संपादन भी किया। विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखीं। नए-नए विचारों के तेज से जनता को जागरूक किया। कई आंदोलन खड़े किए। ऐसे इतिहास को देखते हुए वर्तमान की भाषाई एवं वैचारिक दुर्दशा बड़ा दयनीय चित्र प्रस्तुत करती है। संभव है कि वर्तमान पीढ़ी के नेताओं के पास पुराने नेताओं से अधिक डिग्रियां और व्यापक वैश्विक अनुभव हो, लेकिन उनमें मौलिकता के अभाव के साथ ही अनावश्यक आक्रामकता भी दिखती है। उनमें गहराई का अभाव दिखता है और गर्जन-तर्जन के स्वर अधिक सुनाई पड़ते हैं।
राजनीतिक विमर्श में गिरावट के कारणों की पड़ताल करें तो पाएंगे कि राजनीति बहुत प्रतिस्पर्धी हो चली है। पूर्व में लोग सेवा भाव से ही राजनीति का रुख करते थे और मूल रूप से अपने किसी प्रकल्प में व्यस्त रहते थे, किंतु अब स्थिति यह है कि लोग अब अपना मूल काम छोड़कर पूर्णकालिक रूप से राजनीति में लगे हैं। पहले टेलीविजन और अब सोशल नेटवर्क साइट्स की वजह से नेताओं में दिखावे की भावना भी बढ़ी है। कई ऐसे शोध सामने आए हैं, जिन्होंने यह पुष्ट किया है कि टेलीविजन और डिजिटल मीडिया ने नेताओं की भाषा से लेकर भाव-भंगिमाओं को प्रभावित किया है। भारत में भी यही देखने में आया है कि जब से संसदीय कार्यवाही का सीधा प्रसारण होना आरंभ हुआ है, तबसे कार्यवाही का स्तर सुधरने के बजाय और बिगड़ता जा रहा है। कई नेता संसद में विधि निर्माता के बजाय चुनावी रैली को संबोधित करते नेता अधिक नजर आते हैं। इसी तरह डिजिटल मीडिया पर भी चूंकि अनाप-शनाप बातें ही अधिक वायरल होती हैं तो तमाम नेता उसे देखते हुए अपनी भाषा और लहजे में मर्यादा नहीं रख रहे। यह चिंताजनक है।
वैश्विक पटल पर भारत को सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है, किंतु यदि राजनीतिक विमर्श में गिरावट का सिलसिला चलता रहा तो भारत की यह प्रतिष्ठा समय के साथ धूल-धूसरित होती जाएगी। राष्ट्र-समाज को भी इसके नुकसान उठाने पड़ेंगे। सबसे बड़ा नुकसान तो संस्थानों की छीजती आभा के रूप में सामने आएगा। सार्वजनिक जीवन में भाषा और विचारों की टूटती मर्यादा का असर सुप्रीम कोर्ट से लेकर संसद तक देखने को मिल रहा है। इससे राजनीतिक दलों में भी दुराव बढ़ेगा, जिससे कार्यकर्ताओं में टकराव होगा। परिणामस्वरूप सामाजिक असंतोष की स्थिति निर्मित होगी।
विकसित होने की राह पर बढ़ रहे भारत को अपने समक्ष कायम चुनौतियों का समाधान ढूंढ़ना आवश्यक है, जिसके लिए सुधार करने ही होंगे, लेकिन राजनीतिक वर्ग में तकरार से असहमति की स्थिति खेल बिगाड़ने वाली साबित हो सकती है। कृषि कानूनों से लेकर आरक्षण का विषय और उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत का मुद्दा इसकी मिसाल है कि नीतियों को लेकर अनर्गल प्रलाप का ऐसा दौर शुरू हो चुका है कि सच और झूठ के बीच के अंतर को समाप्त करने की कोशिश हो रही है। ऐसे में, यदि विमर्श का स्तर नहीं सुधरा तो चुनौतियों को लेकर राजनीतिक समाधान तलाशना मुश्किल होता जाएगा। देश पहले से ही जाति, मजहब, क्षेत्र, भाषा आदि विभाजक रेखाओं से त्रस्त है और कुछ नेता निहित स्वार्थों के चलते इन रेखाओं को और गहरा कर रहे हैं, जिसका देश को दीर्घकाल में बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा। जब भारत में विभिन्न मुद्दों पर मतभेद दिखेंगे तो विदेशी ताकतें इसका लाभ उठाने के लिए अपने दांव चलेंगी। वैसे भी भारत अपनी तरक्की के चलते कई देशों की आंखों में चुभ रहा है और पड़ोस में भी स्थितियां हमेशा अनुकूल नहीं रही हैं तो आंतरिक विभाजन की स्थिति प्रतिस्पर्धी देशों के लिए अवसर बनाएगी।
इस पूरे परिदृश्य में देश राजनीतिक अस्थिरता का भी शिकार हो सकता है, जो आर्थिक संभावनाओं पर तुषारापात करेगा। यह बहुत स्वाभाविक है, क्योंकि विदेशी निवेशक और दिग्गज अंतरराष्ट्रीय कंपनियां किसी भी देश में निवेश के लिए स्थिरता और राजनीतिक स्थायित्व को ध्यान में रखती हैं। आज भारत विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और वह जल्द ही तीसरी सबसे बड़ी आर्थिकी बनना चाहता है। यदि आर्थिक समृद्धि के इस सपने को साकार करना है तो राजनीति मोर्चे के महारथियों को भी अपनी भूमिका गंभीरता से समझनी होगी।
(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)