राजीव सचान। सबसे पहले बीते चंद दिनों की कुछ खबरों का संज्ञान लें। 29 जुलाई को उत्तर प्रदेश सरकार ने छल-कपट से मतांतरण पर सजा और कठोर करने का फैसला किया और इस संदर्भ में एक संशोधन विधेयक विधानसभा में प्रस्तुत किया। 28 जुलाई को बरेली से खबर आई कि छल-छद्म से एक हिंदू युवक को मतांतरित करने के मामले में पादरी सहित तीन लोग गिरफ्तार।

इसी तिथि को रतलाम से खबर आई कि खेत में प्रार्थनास्थल बनाकर मतांतरण कराया जा रहा था। शिकायत पर पुलिस पहुंची तो वहां उसे करीब 150 आदिवासी मिले। पुलिस ने बीमारी ठीक करने का लालच देकर मतांतरण करने के आरोप में कुछ लोगों को हिरासत में लेकर मुकदमा दर्ज किया।

26 जुलाई को मुरादाबाद से खबर आई कि एक फैशन इंस्टीट्यूट की संचालिका रक्षंदा खान और उसके पति शहनवाज खान को अपने यहां आने वाली लड़कियों को मतांतरण के लिए प्रेरित करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। 25 जुलाई को रांची से समाचार आया कि झारखंड उच्च न्यायालय ने ‘चंगाई सभा’ के जरिये आदिवासियों के मतांतरण पर रोक लगाने की मांग वाली जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए उन जिलों की विस्तृत रिपोर्ट मांगी, जहां आदिवासियों का मतांतरण हो रहा है।

उसने यह भी पूछा कि केंद्र और राज्य सरकार की ओर से मतांतरण रोकने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं? इसी तिथि को लोकसभा में भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने कहा कि बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ और साथ ही मतांतरण के चलते झारखंड में आदिवासी आबादी तेजी से घटती जा रही है।

यदि 25 जुलाई के और उससे पहले के समाचार पत्र खंगालें तो देश के किसी न किसी हिस्से से छल-कपट से मतांतरण के समाचार मिलेंगे। जैसे 10 जुलाई को प्रयागराज से आई खबर का संज्ञान लिया जाना आवश्यक है, जिसके अनुसार इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि लोगों को धर्म यानी मत-मजहब के पालन की और उसके प्रचार की स्वतंत्रता तो है, लेकिन यह स्वतंत्रता मतांतरण का अधिकार नहीं देती।

यह टिप्पणी करते हुए उच्च न्यायालय ने अनुसूचित जाति के गरीब हिंदुओं को कष्टों से मुक्ति और बेहतर जीवन का प्रलोभन देकर ईसाई बनाने के आरोप में गिरफ्तार श्रीनिवास राव नाइक को जमानत देने से इन्कार कर दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की इस टिप्पणी ने ध्यान आकर्षित तो किया कि संविधान मत प्रचार की स्वतंत्रता देता है और इसमें मतांतरण का अधिकार नहीं है, लेकिन वस्तुस्थिति कुछ और है।

संविधान प्रदत्त मत प्रचार की स्वतंत्रता की आड़ में ही देश में बड़े पैमाने पर छल-कपट और लोभ-लालच से मतांतरण हो रहा है। इसके चलते देश के कई हिस्सों की जनसांख्यिकी यानी डेमोग्राफी बदल चुकी है और अन्य हिस्सों की बदल रही है। डेमोग्राफी बदलने का एक अन्य कारण घुसपैठ भी है, लेकिन अभी विषय को मतांतरण तक ही सीमित रखते हैं। मतांतरण की समस्या ने स्वतंत्रता के पहले ही सिर उठा लिया था।

महात्मा गांधी ईसाई मिशनरियों की ओर से छल-छद्म से कराए जाने वाले मतांतरण के प्रबल विरोधी और आलोचक थे, लेकिन स्वतंत्रता के बाद सरकार ने ईसाई मिशनरियों को यह जानते हुए भी मत प्रचार की सुविधा दे दी कि वे गरीब लोगों को लालच देकर मतांतरण कराने में सक्रिय हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि उन्होंने पूर्वोत्तर के अधिकांश क्षेत्रों के आदिवासियों को ईसाई बना दिया। पूर्वोत्तर के बाद उनकी गिद्ध दृष्टि देश के अन्य आदिवासी बहुल राज्यों ओडिशा, बिहार, मध्य प्रदेश पर गई।

उन्होंने यहां भी आदिवासियों का बड़े पैमाने पर मतांतरण कराना शुरू कर दिया। बीते कुछ दशकों में बिहार से अलग हुए झारखंड और मध्य प्रदेश से अलग होकर बने छत्तीसगढ़ में बड़ी संख्या में आदिवासी ईसाई बने हैं और अब भी बन रहे हैं। केरल में ईसाई मिशनरियां पहले से ही सक्रिय थीं। फिर वे तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र में भी हो गईं।

कुछ समय से वे पंजाब के साथ ही देश के अन्य राज्यों में भी सक्रिय हैं। वास्तव में अब देश का कोई भी हिस्सा उनकी गतिविधियों से अछूता नहीं। संविधान प्रदत्त मत प्रचार की स्वतंत्रता उनके लिए एक घातक हथियार बन गई है, क्योंकि वे इस स्वतंत्रता का मनमाना इस्तेमाल मतांतरण के लिए कर रही हैं।

जैसे ईसाई मिशनरियां यह चाहती हैं कि सारी दुनिया के लोग यीशू की शरण में आ जाएं, वैसे ही इस्लामी मत के प्रचारक और उपदेशक भी। वैसे तो हर मत-मजहब के अनुयायी यह इच्छा रखते हैं कि उनकी उपासना पद्धति को अन्य सभी अपनाएं, लेकिन इसकी जैसी सनक ईसाई मिशनरियों और इस्लामी मत प्रचारकों पर सवार है, उसकी मिसाल नहीं।

ईसाई मिशनरी और इस्लामिक दावा सेंटर अथवा तब्लीग करने वाले मत प्रचार के लिए विद्वेष का सहारा लेकर दूसरे मत-मजहब को नीचा दिखाते हैं। वे दूसरे मत-मजहब वालों के समक्ष येन-केन प्रकारेण यह सिद्ध करते हैं कि उनका ईश्वर, उनका आराध्य झूठा, दीनहीन और शक्तिहीन है। वह आपका कल्याण करने की क्षमता नहीं रखता।

वे उस पर लांछन लगाते हैं और उसकी खामियां गिनाते हैं। इसके लिए वे दूसरों के धार्मिक ग्रंथों की गलत और मनमानी व्याख्या करके उन्हें बरगलाते हैं। स्पष्ट है कि मत प्रचार के नाम पर संविधान ने एक तरह से दूसरे मत-मजहब की धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताओं और साथ ही उनके देवी-देवताओं के विरुद्ध विद्वेष प्रचार की स्वतंत्रता दे रखी है।

छल-कपट और लोभ-लालच से मतांतरण कराने वालों और आजकल के साइबर ठगों में थोड़ा ही अंतर है। साइबर ठग का शिकार व्यक्ति ठगे जाने के बाद जान जाता है कि वह गलत लोगों के हत्थे चढ़ गया। मतांतरण कराने वालों के चंगुल में फंसे व्यक्ति को अपने साथ हुई धोखेबाजी का आभास होने में समय लगता है या फिर वह आजीवन धोखे में ही जीता रहता है।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)