बलबीर पुंज। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर थामस मैथ्यू क्रुक्स ने जानलेवा हमला किया। ट्रंप बाल-बाल बच गए और हमलावर सुरक्षाबलों के हाथों मारा गया। हमलावर बाइडन समर्थकों के दूषित प्रचार के प्रभाव में था। क्रुक्स को ट्रंप से इतनी घृणा हो गई कि वह उनकी हत्या के लिए आमादा हो गया। यह सब तथाकथित ‘लेफ्ट लिबरल’ के नफरती अभियान का परिणाम था, जिसका शिकार केवल अमेरिका ही नहीं, अपितु भारत सहित शेष विश्व भी है। लेफ्ट-लिबरल तबके को तीन प्रकार के लोगों-खालिस वामपंथी, कट्टरपंथी मुस्लिम और अराजक तत्वों से आवश्यक खाद-पानी मिलता है। एक-दूसरे के प्रति असहिष्णु होने के बाद भी वामपंथी और कट्टरपंथी मुस्लिम अक्सर दुनिया को अस्थिर बनाने और बहुलतावाद को ध्वस्त करने के अभियान में जुट जाते हैं।

भारत में वामपंथियों ने अंग्रेजों और जिहादी मानसिकता वाले मुस्लिमों के साथ मिलकर इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान को जन्म दिया। इसी तरह ईरान को आधुनिक और उदारवादी बनाने का प्रयास कर रहे शाह मोहम्मद रजा पहलवी (1941-1979) को अपदस्थ कर वामपंथी और कट्टरपंथी मुस्लिम गठजोड़ ने अराजकता फैलाई। आज ईरान शरीयत अधीन इस्लामी गणतंत्र है, जहां रोज मानवाधिकारों की हत्या और महिलाओं का दमन होता है। अब पाकिस्तान और ईरान में न तो वामपंथ का कोई नामलेवा है और न ही चीन की वामपंथी शासन-व्यवस्था में इस्लाम का कोई स्थान।

देखा जाए तो लेफ्ट-लिबरल की टूलकिट में दो मारक हथियार हैं। पहला, सफेद झूठ, अर्धसत्य और तथ्यों को विरूपित कर अपने वैचारिक-राजनीतिक विरोधियों का दानवीकरण और उनके प्रति हिंसा-घृणा का भाव पैदा करना। दूसरा, दोषियों के बजाय हिंसा-घृणा के शिकार समूह-व्यक्ति-राष्ट्र को ‘अपराधी’ बनाकर प्रस्तुत करना। अमेरिका के साथ फ्रांस भी इसका दंश झेल चुका है और अब इंग्लैंड में भी यही लहर चलती दिख रही है। ट्रंप पर हमला क्यों हुआ? अमेरिकी चुनाव में ट्रंप को उनके विरोधी ‘अमेरिकी लोकतंत्र के लिए खतरा’ बता रहे हैं। अमेरिका में ट्रंप के लिए लेफ्ट-लिबरल समूह जैसा विषवमन करता है, ठीक वैसा ही दुष्प्रचार भारत में प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए किया जाता है।

लोकसभा चुनाव में नैरेटिव बनाया गया कि यदि मोदी जीते तो ‘यह देश का अंतिम चुनाव होगा’ और ‘संविधान और आरक्षण समाप्त कर दिया जाएगा।’ यहां तक कि कांग्रेस के शीर्ष नेता और लेफ्ट-लिबरल की ‘कार्बन-कापी’ बन चुके राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार में कह दिया कि भाजपा के जीतने पर देश में आग लग जाएगी। कुछ वर्ष पहले एक चुनावी सभा में राहुल प्रधानमंत्री मोदी को डंडे मारने की बात भी कर चुके हैं। बीते दिनों जब पीएम के काफिले पर चप्पल फेंकी गई तो उन्होंने कहा कि अब लोगों ने प्रधानमंत्री से डरना छोड़ दिया है। विरोधी दलों की मानसिकता यहां तक पहुंच गई है कि पुलवामा में आतंकी हमलों को भी भाजपा की साजिश बताया गया। इसी कुनबे से जुड़े वकील प्रशांत भूषण ने पिछले साल यहां तक कह दिया था कि प्रधानमंत्री मोदी लोकसभा चुनाव जीतने के लिए राम मंदिर पर पुलवामा जैसा आतंकी हमला करा सकते है।

वास्तव में, यह नैरेटिव 500 वर्ष पश्चात पुनर्निर्मित राम मंदिर पर संभावित जिहादी हमले होने की स्थिति में न केवल हिंदुओं को लांछित करने, अपितु असली दोषियों को मासूम बताने के प्रपंच का हिस्सा है। हिंसा-घृणा के वास्तविक पीड़ितों को ही अपराधी घोषित करना लेफ्ट-लिबरल का कोई नया शगल नहीं है। जब अमेरिका 2001 में विकराल 9/11 आतंकी हमले का शिकार हुआ, तब इसी कुनबे ने उसे तत्कालीन बुश प्रशासन की सोची-समझी साजिश बताकर प्रस्तुत किया। भारत भी ऐसे नैरेटिव का शिकार हुआ है। वर्ष 2008 में मुंबई पर वीभत्स आतंकी हमले को कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह ने संघ की साजिश बताकर पाकिस्तानी आतंकियों को वाकओवर देने का प्रयास किया था। कांग्रेस द्वारा गढ़ा गया फर्जी ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ सिद्धांत भी ‘लेफ्ट-लिबरल’ टूलकिट का हिस्सा है।

जब 27 अक्टूबर, 2013 को पटना में मोदी की जनसभा को निशाना बनाया गया तो कांग्रेस के बड़े नेताओं ने इसे भाजपा का ही किया-धरा बताया। उस हमले में छह लोगों की मौत हो गई थी। ऐसा ही नैरेटिव 14 फरवरी, 1998 को कोयंबटूर के शृंखलाबद्ध बम धमाकों के बाद भी बना था। तब भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी को लक्षित करते हुए इस हमले में 58 लोगों की जान चली गई थी। तब भी कांग्रेस ने इस जिहादी हमले का आरोप संघ-भाजपा पर मढ़ दिया था। लेफ्ट-लिबरल टूलकिट में जहां हिंसा-घृणा के शिकार वर्ग को ‘अपराधी’ बनाने का उपक्रम होता है, वही उन्माद-नफरत फैलाने के आरोपित या इसके लिए प्रत्यक्ष-परोक्ष जिम्मेदार व्यक्ति-संगठन को क्लीनचिट देने का नैरेटिव भी होता है। भड़काऊ भाषणों के लिए कुख्यात और आतंकी गतिविधियों में शामिल होने के आरोपित अब्दुल नासिर मदनी को जेल से बाहर निकालने हेतु वर्ष 2006 में होली की छुट्टी के दौरान 16 मार्च को केरल विधानसभा में विशेष सत्र बुलाकर कांग्रेस और वामपंथियों ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था।

ऐसी ही हमदर्दी यह समूह इशरत जहां, याकूब मेमन, अफजल गुरु और बुरहान वानी जैसे घोषित आतंकियों के प्रति भी दिखा चुका है। लेफ्ट-लिबरल में विरोधाभास उसकी संज्ञा के अनुरूप है। लेफ्ट अर्थात वामपंथी अवधारणा में ‘लिबरल’ यानी उदारता का कोई स्थान नहीं होता। वामपंथी शासन व्यवस्था वस्तुत: हिंसा, असहमति का दमन और मानवाधिकारों के उल्लंघन का पर्याय रही है। लेनिन-स्टालिन-माओ-जोंग आदि इसके उदाहरण हैं। लेफ्ट-लिबरल का उभार 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद हुआ। इस तबके में असंतुष्ट वर्ग का उदय हुआ, जिसे ‘वोक’ कहा जाता है। भले ही उनके पास कोई सर्वमान्य वैकल्पिक व्यवस्था का खाका न हो, मगर वे विश्व में सैकड़ों वर्षों से स्थापित समाज को छल-बल के सहारे ध्वस्त करना चाहते हैं। अमेरिका में ट्रंप पर गोली चलाने वाला और भारत में देश को आग में झोंकने की धमकी देने वाले इसी विषैली मानसिकता के ही प्रतिनिधि हैं।

(स्तंभकार हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकोलोनाइजेशन आफ इंडिया’ के लेखक हैं)