विवेक काटजू। पूरी दुनिया की नजरें इस समय अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव पर लगी हैं। इस बार के चुनाव के साथ भारतीय कड़ियों का दुर्लभ संयोग जुड़ा है। वर्तमान उपराष्ट्रपति कमला हैरिस जहां डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी बनने के बहुत करीब हैं, वहीं रिपब्लिकन पार्टी ने जिन जेडी वेंस को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है, उनकी पत्नी उषा वेंस की जड़ें भी भारत से जुड़ी हैं।

हैरिस और उषा दोनों ही दूसरी पीढ़ी की अमेरिकी हैं। वेंस के अपनी ससुराल वालों के साथ बहुत मधुर संबंध हैं तो स्वाभाविक रूप से उषा अपने पति के अभियान में अहम भूमिका निभाएंगी। हैरिस प्रत्यक्ष और उषा परोक्ष रूप से भारतीय मूल के उन लोगों की सूची का एक हिस्सा बन गई हैं, जो पश्चिमी देशों में उच्च राजनीतिक पदों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।

यह सूची बहुत लंबी है। भारतीय मूल के ऋषि सुनक कुछ समय पहले तक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे। उनकी पत्नी अक्षता मूर्ति भी भारतीय मूल की हैं, जो दिग्गज उद्यमी एनआर नारायणमूर्ति की बेटी हैं। ऋषि और अक्षता ने हिंदू धर्म में अपनी आस्था भी कभी नहीं छिपाई।

आयरलैंड और पुर्तगाल की कमान भी ऐसे नेता संभाल चुके हैं, जिनकी जड़ें आंशिक रूप से भारतीय मूल की रहीं। आयरलैंड के पूर्व प्रधानमंत्री लियो वराडकर के पिता भारतीय, जबकि पुर्तगाल के पूर्व प्रधानमंत्री अंटोनियो कोस्टा के पिता आंशिक रूप से भारतीय थे। भारतीय मूल के लोग कनाडा की राजनीति पर भी अपनी छाप छोड़ रहे हैं।

इसके अलावा मारीशस, गुयाना, फिजी और त्रिनिदाद एंड टोबैगो में भारतीय मूल के लोग सरकारों का नेतृत्व कर चुके हैं। इनमें से अधिकांश नेता भारत से अपना जुड़ाव महसूस करते हैं, लेकिन यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति से जुड़ी है। हाल में सुनक के मामले में यह स्पष्ट रूप से देखने को मिला।

उनके कार्यकाल के दौरान न तो मुक्त व्यापार समझौते को लेकर बात आगे बढ़ पाई और न ही विजय माल्या जैसे भगोड़े के प्रत्यर्पण पर सहमति बनी। इतना ही नहीं, भारत विरोधी खालिस्तानी तत्वों पर अंकुश लगाने में भी उनकी सरकार नाकाम रही। यह दर्शाता है कि राजनीतिक पटल पर ऐसे लोगों के उभार पर भारत के कुछ वर्गों में जिस प्रकार का उत्साह एवं उल्लास का भाव दिखता है, वह भारत के लिए किसी प्रकार के राजनीतिक या कूटनीतिक लाभ में परिणत नहीं हो पाता।

परिस्थितियां यही कहती हैं कि विदेश में रहने वाले भारतीयों को लेकर स्पष्ट दृष्टिकोण आवश्यक है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें भारतीय मूल के लोगों यानी पीआइओ और प्रवासी भारतीयों यानी एनआरआइ के बीच अंतर को समझना होगा। इनमें से एनआरआइ तो पूरी तरह से भारतीय हैं और उनके हितों की रक्षा एवं कल्याण का पूरा दारोमदार सरकार का है, जबकि पीआइओ विदेशी हैं, जिन्हें भारत के एक प्रकार के ‘अघोषित नागरिक’ के तौर पर ओसीआइ कार्डधारक के रूप में गिना जाता है। इससे कई बार भ्रम की स्थित बन जाती है।

भारतीय संविधान दोहरी राष्ट्रीयता को मान्यता नहीं देता। इसलिए, जब कोई भारतीय किसी अन्य देश का नागरिक बन जाता है तो उसकी भारतीय नागरिकता स्वत: समाप्त हो जाती है। इसलिए, ओसीआइ कार्डधारकों के पास कोई राजनीतिक अधिकार नहीं होता। इन कार्डधारकों के पास भारत के लिए विस्तारित वीजा होता है और वे अन्य विदेशी नागरिकों की तुलना में भारतीय अर्थव्यवस्था में कहीं अधिक बड़े दायरे में सहभागिता कर सकते हैं। ऐसे में बेहतर होगा कि ओसीआइ कार्ड को कुछ नया नाम दिया जाए, ताकि किसी भी प्रकार के भ्रम की गुंजाइश न रहे।

भाजपा सरकार ने भारतीय मूल के लोगों और भारत के बीच कड़ियां जोड़ने की ओर काफी ध्यान दिया है। इसी कड़ी में प्रवासी भारतीय दिवस जैसे वार्षिक आयोजन के साथ ही प्रवासी भारतीय सम्मान भी दिए जाते हैं। पीआइओ की भारतीय सांस्कृतिक जड़ों को समृद्ध करने के लिए उन्हें साधने में कोई हर्ज भी नहीं। पीआइओ को भी भारत के साथ आर्थिक जुड़ाव की दिशा में हरसंभव अवसर दिए जाने चाहिए, जिससे परस्पर लाभ मिल सके।

इसके साथ ही हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि एक समय मजदूरों के रूप में गए भारतीयों ने भी विदेश में स्थानीय संस्कृति को अपना लिया है। मारीशस की ही मिसाल लें तो वहां उम्रदराज पीआइओ भले ही आज भी भोजपुरी बोलते हों, लेकिन उनकी युवा पीढ़ी ने उस क्रियोल भाषा को अपना लिया है, जिसे अधिकांश मारीशसवासी बोलते हैं। यह प्रक्रिया प्रवासी समुदाय की परिपक्वता को ही दर्शाती है।

अमेरिका जैसे देशों में प्रवासी समुदायों को अपनी लाबी बनाने की गुंजाइश दी जाती है, ताकि वे अपने मूल देश और अमेरिका के बीच राजनीतिक कड़ियां जोड़ने का माध्यम बन सकें। वहां सबसे ताकतवर लाबी यहूदियों की है, जो इजरायल के लिए काम करती है। भारत को भी भारतीय पीआइओ संगठनों के साथ सहभागिता को लेकर हिचकना नहीं चाहिए और वहां भारतीय लाबी को मजबूत करने के प्रयास करने चाहिए, जो पहले ही काफी सशक्त हो चुकी है।

इसी लाबी ने परमाणु समझौते में अहम भूमिका निभाई थी। उस समझौते ने भारत-अमेरिका संबंधों की दशा-दिशा ही बदल दी थी। कई यूरोपीय देशों विशेषकर ब्रिटेन में भी ऐसा ही देखने को मिला। हालांकि राजनीतिक रूप से सक्रिय पीआइओ की कुछ मुद्दों पर अलग राय से असहजता की स्थिति भी बन जाती है। खालिस्तान को लेकर अमेरिका और कनाडा में ऐसा देखा भी गया।

भारत को भी पीआइओ की अपने देशों के प्रति निष्ठा को लेकर संदेह नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में भारत के साथ उनके जुड़ाव की कड़ी फायदे के बजाय नुकसान का सबब बन जाएगी। कई बार विदेशी नेता पीआइओ के बीच किसी भारतीय नेता की लोकप्रियता का लाभ भी उठाना चाहते हैं।

स्वाभाविक है कि भारतीय नेताओं को ऐसे मामलों में नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि ऐसी स्थिति दोधारी तलवार की तरह हो जाती है। अच्छी बात है कि भारत के राजनीतिक दलों ने विदेश में भी अपने प्रकोष्ठ बनाने आरंभ कर दिए हैं। एनआरआइ को भारत की राजनीतिक हलचल में दखल का पूरा अधिकार है। हालांकि उन्हें लामबंद करने को लेकर पार्टियों को कुछ संयम का परिचय भी देना चाहिए।

(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)