डा. एके वर्मा: भारतीय संविधान का प्रथम अनुच्छेद कहता है ‘इंडिया, दैट इज भारत’ अर्थात ‘इंडिया, जो भारत है।’ तो भारत है क्या? उस भारत का संपूर्ण इतिहास क्या है? क्या हमें भारत और भारत के इतिहास के बारे में बताया गया है? जब भी इतिहास के पुनर्लेखन की बात होती है तो संशय पैदा होता है कि कहीं इतिहास की पुस्तकों से छेड़छाड़ तो नहीं की जाएगी? कुछ विद्वानों को लगता है कि इससे मध्यकालीन इतिहास या मुस्लिम इतिहास को हिंदुत्व के चश्मे से लिखा जाएगा। चाहे मुस्लिम आक्रांता रहे हों या अंग्रेज, दोनों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से इतिहास लिखवाया, जिसमें उन्होंने स्वयं को भारतीय समाज और संस्कृति से श्रेष्ठ दिखाया।

स्वतंत्रता के बाद सरकार ने ध्यान नहीं दिया कि आक्रांताओं की ओर से गढ़े गए तथ्यों, विदेशी-कलम और दृष्टिकोण से लिखा इतिहास बच्चों को क्यों पढ़ाया जा रहा है? जैसे-जैसे नए तथ्य और शोध सामने आए, इतिहास के पुनर्लेखन की मांग जोर पकड़ती गई। इंग्लैंड में डेविड ह्यूम ने 18वीं शताब्दी में गंभीर शोध कर ‘हिस्ट्री आफ इंग्लैंड’ लिखी, जो आज वहां कोई नहीं पढ़ता, क्योंकि नए तथ्यों के आलोक में वह पुस्तक अप्रासंगिक हो गई। भारत में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? क्यों अपने तथ्यों, अपने दृष्टिकोण और अपनी कलम से हम अपना इतिहास नहीं लिख सकते?

सच्चा एवं संपूर्ण इतिहास जानना न केवल हमारा मौलिक अधिकार है, वरन हमारी अस्मिता को सम्मान, शक्ति एवं गौरव प्रदान करने का सशक्त माध्यम भी है। इससे हमें अपनी गलतियों, भूलों और सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक विसंगतियों को जानने और सुधारने का अवसर भी मिलेगा। आज समावेशी-राजनीति और समावेशी-विकास की व्यापक चर्चा होती है, पर कोई समावेशी इतिहास की बात नहीं करता। हाल में प्रकाशित ‘ब्रेवहार्ट्स आफ भारत’ में विक्रम संपत ने इसका उल्लेख किया है।

प्रथम, हमारे इतिहास को ऐसे लिखा गया है, जैसे हम पिछड़े, असभ्य और कमजोर समाज रहे हों, लेकिन भारतीय समाज के विकसित स्वरूप और सभ्यता के प्रतिमान बिंदुओं का कोई उल्लेख नहीं। द्वितीय, भारतीय इतिहास मूलतः दिल्ली-केंद्रित है। उसमें दक्षिण भारत के सशक्त चालुक्य, सप्तवाहन, चोल-साम्राज्य, विजयनगर, त्रावणकोर, असम के अहोम, मणिपुर, नगालैंड और अन्य सीमांत प्रदेशों जैसे ओडिशा, बंगाल के गणपति साम्राज्य, मुर्शिदाबाद और बंगाल के नवाबों आदि की कोई चर्चा नहीं। राजपूतों और मराठों के शौर्य, पराक्रम और योगदान को जो स्थान मिलना चाहिए, वह भी नहीं मिला। तृतीय, इतिहास में महिला शासकों जैसे रानी दुर्गावती, गढ़वाल की रानी कर्णावती, मदुरै की रानी मंगम्मल, मराठा रानी ताराबाई, अहिल्याबाई होल्कर और भोपाल की बेगमों के शौर्य-पराक्रम की घोर उपेक्षा की गई है। इतिहास के पुनर्लेखन में इन उपेक्षित आयामों को जोड़ा जाना चाहिए।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल में असम के अहोम साम्राज्य के परमवीर सेनानायक लचित बारफुकन की 400वीं जन्म-शताब्दी पर कहा कि उन्होंने सरायघाट युद्ध में मुगलों को हराया और औरंगजेब का असम में प्रवेश रोका। प्रधानमंत्री का संकेत भारतीय इतिहास को समावेशी बनाने की ओर था। असंख्य रणबांकुरे और वीरांगनाओं को आज कोई नहीं जानता, जैसे कि कश्मीर के ललितादित्य, मेवाड़ के महाराणा कुंभा, गुजरात की रानी नेकीदेवी, अहमदनगर की चांदबीबी, त्रावनकोर के मार्तंड वर्मा और अवध की बेगम हजरतमहल आदि।

भारतीय इतिहासकारों की एक पीढ़ी ने देश के इतिहास के साथ अन्याय किया है। उन्होंने भारतीय इतिहास को बौद्धिक-विमर्श से निकाल कर कभी लोक-क्षेत्र में लाने की चेष्टा नहीं की। परिणामस्वरूप किसी की दिलचस्पी अपने पुरातन इतिहास और उसके वीरों-वीरांगनाओं में नहीं हुई। भारतीय इतिहास को शुष्क विषय के रूप में हमें पढ़ाया गया। भारत में मुगल आक्रांताओं के बाद के इतिहास का ‘फोकस’ केवल मुगलों पर रहा। अंग्रेजों के आगमन पर वह ब्रिटेन केंद्रित हो गया। भारत बहुत बड़ा देश था, जो असंख्य छोटी-छोटी देसी रियासतों से मिलकर एक राष्ट्र के रूप में रहा है। इन छोटे राज्यों और रियासतों में अनेक का गौरवशाली इतिहास था, लेकिन क्या उनकी कहीं चर्चा होती है?

राजनीतिक विमर्श के केंद्र में दक्षिण के राज्यों, पूर्वोत्तर या अन्य छोटे भारतीय राज्यों का कोई अस्तित्व नहीं। स्वतंत्रता के 75 वर्षों बाद भी भारत में राजनीतिक-विमर्श समावेशी नहीं हो सका। क्यों? यही स्थिति इतिहास की है। अब कुछ इतिहासकारों ने इसका बीड़ा उठाया है कि वे भारतीय इतिहास को दिल्ली पर केंद्रित न रखकर उसे समावेशी बनाएंगे। उनके इस प्रयास को हिंदुत्व से जोड़ने का भरपूर प्रयास किया जाएगा, परंतु हमें स्मरण रहे कि विजय अंत में सत्य की ही होगी। भारतीयों को प्रत्येक कालखंड के सच्चे और संपूर्ण इतिहास को जानने का अधिकार है। देश के विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की जिम्मेदारी है कि वे अपने-अपने क्षेत्राधिकार के ‘स्थानीय-इतिहास’ को छात्रों के लिए अनिवार्य करें, जिससे नई पीढ़ी को अपनी विरासत को जानने और उससे जुड़ने का अवसर मिले। जैसे उत्तर प्रदेश के बहराइच क्षेत्र में राजा सुहेलदेव पासी ने सोमनाथ मंदिर को 17 बार लूटने वाले महमूद गजनवी के सेनापति और हिंदुओं का कत्लेआम करने वाले मसूद गाजी को भयानक युद्ध में मार गिराया था, मगर क्या राजा सुहेलदेव के बारे में बहुत कुछ उल्लेख है?

आज जब इतिहास के पुनर्लेखन की बात होती है तो हमें स्पष्ट होना चाहिए कि इसका अर्थ उसे समावेशी बनाने से है। इतिहास के उस अंश को उजागर करने से है, जिस पर पर्दा पड़ा हुआ है, न कि उपलब्ध इतिहास से कोई छेड़छाड़ करने से। जब तक हम भारत के इतिहास को समावेशी नहीं बनाएंगे, उसमें दलितों, पिछड़ों, जनजातियों और सर्व-समाज के वीरों-वीरांगनाओं के योगदान की याद नहीं दिलाएंगे, तब तक हम अपने समाज, राजनीति और विकास को सच्चे अर्थों में समावेशी नहीं बना सकेंगे।

(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)