संजय गुप्त। मानसून की वापसी के बाद लगभग आधे भारत में मौसम बदलने का सिलसिला शुरू हो जाता है और उत्तर पश्चिम की तरफ से आने वाली हवाओं के चलते कुछ ही दिनों में हल्की ठंड का आभास होने लगता है। ठंड के चलते हवा में प्रदूषणकारी कण बढ़ जाते हैं, क्योंकि वे धरती की सतह से ज्यादा ऊपर उठ नहीं उठ पाते। इसी के चलते प्रदूषण बढ़ने लगता है। प्रदूषण के इन कणों में वाहनों का उत्सर्जन, लकड़ी, उपले या कोयला जलाने से निकलने वाला धुआं और धूल तो शामिल होती ही है, पराली का धुआं भी शामिल होता है।

बीते कुछ दिनों से पंजाब से खबरें आ रही हैं कि वहां पराली जलनी शुरू हो गई है। पिछले लगभग एक दशक से उत्तर भारत और खास तौर से दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण बढ़ते ही केंद्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न प्रदूषण रोधी एजेंसियां सक्रिय हो जाती हैं। चूंकि सबसे पहले दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण सिर उठाता है, इसलिए दिल्ली सरकार की प्रदूषण रोधी गतिविधियां भी बढ़ जाती हैं। दिल्ली सरकार ने प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए ग्रेप सिस्टम बनाया हुआ है। इसके तहत दिल्ली-एनसीआर में एक्यूआइ बढ़ने यानी हवा की गुणवत्ता खराब होते ही चरणबद्ध तरीके से तरह-तरह की पाबंदियां लगाई जाने लगती हैं। इनमें निर्माण कार्यों और औद्योगिक गतिविधियों पर रोक तथा आड-इवन सिस्टम लागू करने से लेकर अन्य प्रदेशों के डीजल वाहनों के प्रवेश पर पाबंदी भी शामिल है। अभी तक का अनुभव यही बताता है कि ये उपाय प्रभावी नहीं साबित होते। यह किसी से छिपा नहीं कि पंजाब, हरियाणा आदि में पराली जलाने के उपाय कारगर नहीं हो पा रहे हैं।

पंजाब में पराली जलने की खबरें आने से यही साबित होता है कि उसे जलाने से रोकने के जो प्रबंध किए गए हैं, वे आधे-अधूरे ही हैं। कहां कितनी पराली जलाई गई, इसका आंकड़ा तो सामने आ जाता है, लेकिन कोई नहीं जानता कि उसे जलाने से रोकने में सफलता कब मिलेगी? शायद इसी कारण पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पराली जलने से रोकने के उपाय हवा में ही हैं। कुल मिलाकर इस बार भी इसके आसार नहीं कि पंजाब और अन्य राज्यों में पराली को जलने से रोका जा सकेगा। वायु प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए सरकारों को जो कड़े कदम उठाने चाहिए, वे इसलिए नहीं उठाए जा पा रहे हैं, क्योंकि उन्हें लेकर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति होती रहती है और नौकरशाही भी समय पर सही फैसला करने के बजाय हीलाहवाली करती है।

दिल्ली-एनसीआर समेत देश के अन्य बड़े शहरों में सड़कों पर अतिक्रमण और उसके चलते ट्रैफिक जाम आम है। इसके अलावा रिहायशी इलाकों में औद्योगिक गतिविधियां संचालित होना भी आम है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि औद्योगिक क्षेत्रों को सही रूप में विकसित नहीं किया जा सका है। समस्या यह भी है कि इसके बारे में कोई परवाह नहीं की जाती कि निर्माण स्थलों पर धूल को नियंत्रित किया जाए। सरकारें चाहें तो निर्माण स्थलों और साथ ही सड़कों से उड़ने वाली धूल को नियंत्रित कर सकती हैं, लेकिन इसके लिए वे कोई ठोस उपाय नहीं कर रही हैं। सरकारें और उनकी एजेंसियां अनियोजित औद्योगिक गतिविधियों पर भी लगाम नहीं लगा पा रही हैं। वे कूड़ा-करकट को जलाने से रोकने में भी नाकाम हैं।

प्रदूषण पर नियंत्रण पाने के लिए जैसी राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है, उसका परिचय नहीं दिया जा रहा और इसी के चलते उन कारणों का निवारण नहीं हो पा रहा, जिनसे हवा की गुणवत्ता खराब होती है। चूंकि अपने देश में वायु प्रदूषण को लेकर वैसी जागरूकता नहीं, जैसी होनी चाहिए, इसलिए उसके प्रति समाज का एक छोटा सा वर्ग ही अपनी चिंता दिखाता है। आम तौर पर पर्यावरणविद्, शहरी अभिजात्य वर्ग और कुछ अन्य लोग ही वायु प्रदूषण से चिंतित होते हैं। इसी कारण न तो नेता उसकी परवाह करते हैं और न ही नौकरशाह। यह स्थिति तब है, जब एक के बाद अध्ययन यह बताते हैं कि वायु प्रदूषण मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रहा है। सरकारों के लिए यह आवश्यक है कि वे वायु प्रदूषण पर लगाम लगाने के मामले में वोट बैंक की परवाह करना छोड़ें। अभी वे किसानों से लेकर कारोबारियों तक को वोट बैंक की निगाह से देखती हैं और इसीलिए ठोस कदम नहीं उठातीं। वायु प्रदूषण पर लगाम तब लगेगी, जब प्रदूषण फैलने के कारणों का निवारण करने के लिए कड़वी गोली का सहारा लिया जाएगा और जनता को जागरूक किया जाएगा। यह देखा जा रहा है कि किसान हों या अन्य आम लोग, वे वायु प्रदूषण की मुश्किल से ही चिंता करते हैं। वे न तो इसमें दिलचस्पी लेते हैं कि पराली न जले और न ही इसमें कि तंदूर-अंगीठी आदि का इस्तेमाल न हो।

इसीलिए सर्दियों में कूड़ा-करकट भी जलता रहता है और सड़कों एवं निर्माण स्थलों से धूल भी उड़ती रहती है। औसत लोग यह महसूस ही नहीं करते कि वायु प्रदूषण सबसे अधिक उनके लिए ही जानलेवा साबित होता है। मीडिया से लेकर उच्चतम न्यायालय और प्रदूषण पर निगाह रखने वाली राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं प्रदूषण पर कितनी ही चिंता जताएं, आम आदमी पर उसका कोई फर्क नहीं पड़ता। औसत लोग अपने क्षेत्र के नेताओं के बारे में यह जानने-समझने की कोशिश ही नहीं करते कि वे प्रदूषण के कारणों का निवारण करने के लिए सक्रिय भी हैं या नहीं? इसी का नतीजा यह है कि नेता भी प्रदूषण की रोकथाम के लिए कुछ नहीं करते। उन्हें पता है कि वे प्रदूषण को लेकर कितने भी निष्क्रिय रहें, उनकी राजनीतिक सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।

सरकारों को यह समझना होगा कि वायु प्रदूषण के सिर उठा लेने पर तरह-तरह की पाबंदियां लगाने से प्रदूषण के मूल कारणों का निवारण नहीं होने वाला। प्रदूषण केवल चंद दिनों की समस्या नहीं है। यह पूरे वर्ष की समस्या है। प्रदूषण कम या ज्यादा होता रहता है, लेकिन उससे पूरी तौर पर मुक्ति नहीं मिलती। ऐसे में दूरगामी रणनीति अपनाकर ही उसका सामना किया जा सकता है। प्रदूषण पर लगाम लगाने की चिंता हर समय की जानी चाहिए। वर्ष में कुछ माह उसे लेकर चिंतित होने से कुछ होने वाला नहीं है। चूंकि वायु प्रदूषण किसी राज्य विशेष की समस्या नहीं है, इसलिए सभी सरकारों को उससे मिलकर निपटना होगा।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]