विवेक काटजू। पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर का हालिया अमेरिका दौरा द्विपक्षीय संबंधों की दृष्टि से बेहद अहम रहा। इसके समूचे क्षेत्र और विशेष रूप से भारत के लिए भी गहरे निहितार्थ हैं। इसे समझने के लिए मुनीर के दौरे की कड़ियां जोड़ते हैं। मुनीर का हफ्ते भर से अधिक का अमेरिकी दौरा 12 दिसंबर से शुरू हुआ। इस दौरान उन्होंने अमेरिकी विदेश और रक्षा मंत्री के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के उप-प्रमुख से मुलाकात की। वह चेयरमैन आफ द जाइंट चीफ्स आफ स्टाफ के चेयरमैन (वरिष्ठतम अमेरिकी जनरल) और अमेरिका की पश्चिमी कमान के मुखिया सहित कई सैन्य अधिकारियों से भी मिले। पश्चिमी कमान ही पाकिस्तान से जुड़े मामले देखती है। मुनीर अमेरिकी थिंक-टैंक्स के सदस्यों से भी मिले। संयुक्त राष्ट्र महासचिव से मिलने वह न्यूयार्क भी गए।

इस सबसे यही जाहिर होता है कि अमेरिका ने उनके स्वागत में लाल कालीन बिछाया हुआ था। उसने मुनीर की ऐसी आवभगत की, मानो वह पाकिस्तान की वरिष्ठ राजनीतिक हस्ती हों। ऐसा कर अमेरिका ने पाकिस्तान की इस वास्तविकता को ही स्वीकृति दी कि सेनाप्रमुख शीर्ष सैन्य कमांडर होने के साथ ही सबसे महत्वपूर्ण 'राजनीतिक' हस्ती भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो मुनीर का शायद ही ऐसा स्वागत किया गया होता, विशेषकर तब जब पाकिस्तान में एक कार्यवाहक सरकार है और आठ फरवरी को वहां चुनाव प्रस्तावित हैं। कुछ नेता इन चुनावों को लटकाना चाहते थे। पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने उनकी आपत्तियों को खारिज कर दिया।

यदि कुछ अप्रत्याशित घटित नहीं होता तो पाकिस्तान की नेशनल असेंबली और प्रांतीय विधानसभाओं के लिए आठ फरवरी को चुनाव होने तय हैं। नेशनल असेंबली 336 सदस्यों की है। इनमें से 266 का प्रत्यक्ष चुनाव होता है। शेष सीटें गैर-मुस्लिमों और महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। इन सीटों को आम चुनावों में राजनीतिक दलों के प्रदर्शन के आधार पर आवंटित किया जाता है। जहां तक सामान्य सीटों की बात है तो शेष चार राज्यों में मिलाकर जितनी सीटें हैं, उससे ज्यादा अकेले पंजाब में हैं। इसलिए जिस पार्टी की पंजाब पर पकड़ हो जाए, पाकिस्तान पर उसी का नियंत्रण हो जाता है। यह पाकिस्तान की राजनीति का अटल तथ्य है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि मुनीर यह सुनिश्चित करने में लगे हुए हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान और उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ यानी पीटीआइ चुनाव में सफल न हो पाए। इमरान अभी जेल में ही हैं। सेना के दबाव के चलते कई पीटीआइ नेताओं ने पार्टी छोड़ दी। माना जा रहा है कि मुनीर सेना को नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग यानी पीएमएल-एन के पक्ष में लामबंद करने का प्रयास करेंगे। तीन बार पाकिस्तान की कमान संभाल चुके शरीफ दो महीने पहले ही लंदन से लौटे हैं और तबसे रैलियां एवं बैठक कर रहे हैं, लेकिन उनका पुरना करिश्मा नदारद दिख रहा है। मुनीर के साथ उनके रिश्ते बढ़िया हैं।

वास्तव में यह शरीफ ही थे जिन्होंने गठबंधन सरकार की कमान संभाल रहे अपने भाई शहबाज शरीफ पर जोर डाला कि वह मुनीर को सेनाप्रमुख बनाएं, जबकि इस राह में कुछ तकनीकी मुश्किलें भी थीं। फिलहाल तो यही लगता है कि चुनाव बाद नवाज शरीफ के नेतृत्व में कुछ अन्य दलों की मिली-जुली सरकार बनेगी, क्योंकि सेना किसी भी कीमत पर इमरान को सत्ता से दूर रखना चाहेगी।

शरीफ के सत्ता संभालने की स्थिति में मुनीर का रसूख भी बना रहेगा और समय के साथ शरीफ भी सत्ता पर अपनी पूरी पकड़ बनाने का प्रयास करेंगे, जैसा कि वह अतीत में कर चुके हैं। अमेरिका में मुनीर की खातिरदारी से यह भी झलकता है कि वाशिंगटन को हाल-फिलहाल इमरान के सत्ता में लौटने के कोई आसार नहीं दिखते। अमेरिका और इमरान के बीच रिश्तों में गड़बड़ मार्च 2022 में तब शुरू हुई, जब उन्होंने आरोप लगाया कि अमेरिका की शह पर उन्हें प्रधानमंत्री पद से हटाने का अभियान चलाया जा रहा है।

मुनीर के अमेरिकी दौरे को भारत के दृष्टिकोण से भी देखना होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिका पाकिस्तान को लेकर अपनी नाराजगी त्यागने को तैयार है, क्योंकि अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ 20 साल चली लड़ाई में पाकिस्तान ने अमेरिका का साथ दिया। तालिबान के तहरीक-ए-तालिबान-पाकिस्तान यानी टीटीपी को समर्थन ने पाकिस्तान को कुपित किया हुआ है। जिस दिन मुनीर वाशिंगटन पहुचे उसी दिन टीटीपी ने डेरा इस्माइल खान में एक हमला किया, जिसमें 23 सैनिक मारे गए। वहीं, अफगान शरणार्थियों को बेदखल करने को लेकर भी तालिबान पाकिस्तान से नाराज है।

अमेरिका नहीं चाहता कि अफगानिस्तान में किसी प्रकार का अराजक माहौल बने, क्योंकि उससे आतंकी समूहों की गतिविधियों के लिए बहुत अनुकूल स्थितियां बन जाएंगी। इसलिए अमेरिका नहीं चाहेगा कि काबुल पर पाकिस्तान का दबाव एक हद से अधिक बढ़े। मुनीर को यह संदेश भी दिया गया होगा कि वह काबुल पर सख्ती भले ही करें, लेकिन उस दायरे तक नहीं कि स्थितियां बिगड़ने लगें।

अमेरिका यह भी नहीं चाहता कि पाकिस्तान पूरी तरह चीन की कठपुतली बन जाए। चीन-पाकिस्तान रिश्तों में लगातार मजबूती का रुख रहा है और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे जैसी परियोजनाओं ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। पता नहीं अमेरिका या फिर कोई और शक्तिशाली देश चीन-पाकिस्तान की मजबूत कड़ी को कमजोर करने में सक्षम होगा या नहीं, लेकिन अमेरिका पाकिस्तान में प्रभावी बने रहना चाहता है।

अमेरिका की मंशा यही है कि ईरान से लेकर पाकिस्तान, अफगानिस्तान और मध्य एशियाई देशों तक पूरी तरह चीन का दबदबा न बन जाए। इसीलिए अमेरिका पाकिस्तान के साथ नए सिरे से अपने रिश्तों को मजबूत करने में लगा हुआ है। आसिम मुनीर भी जानते हैं कि पाकिस्तान को आर्थिक बदहाली से बाहर निकालने में अमेरिका से बेहतर मददगार देश कोई और नहीं हो सकता।

अमेरिका और पाकिस्तान दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है और यदि पाकिस्तानी चुनाव में इमरान खान ने कोई उलटफेर कर सत्ता में वापसी कर समीकरण नहीं बदले तो पाकिस्तान एवं अमेरिका के रिश्ते और परवान चढ़ते जाएंगे। भारत के लिए इसके गहरे निहितार्थ हैं। अमेरिका हिंद-प्रशांत में जहां भारत को साझेदार बनाएगा, वहीं पाकिस्तान के साथ अपने रिश्तों को बहाल कर हमारे पश्चिम में अपने प्रभुत्व को बढ़ाएगा।

(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)