राजीव सचान। कंगना रनौत फिर से चर्चा और विवाद में हैं। इस बार इसका कारण है उनकी फिल्म इमरजेंसी, जो इंदिरा गांधी पर केंद्रित है। इस फिल्म को लेकर उपजे विवाद के कारण छह सितंबर की उसकी रिलीज टल गई है। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि सेंसर बोर्ड ने फिल्म को प्रमाण पत्र जारी करने के लिए कुछ और समय मांग लिया है। इस पर कंगना ने अपनी निराशा व्यक्त की है। उनकी फिल्म की रिलीज पर रोक लगाने वाली एक याचिका पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में दायर की जा चुकी है और एक जबलपुर उच्च न्यायालय में। आने वाले दिनों में ऐसी कुछ और याचिकाएं दायर हों तो हैरानी नहीं।

किसी फिल्म की रिलीज पर रोक लगाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने में कुछ गलत नहीं। ऐसा कई फिल्मों के मामले में हो चुका है। इसमें भी कुछ गलत नहीं कि किसी फिल्म से नाराज लोग उसका लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करें या फिर इंटरनेट मीडिया पर उसे न देखने की मुहिम चलाएं, जैसा कि फिल्म लाल सिंह चड्ढा के मामले में देखने को मिला था और हाल में रिलीज वेब सीरीज आइसी-814 को लेकर हो रहा है। ऐसा भारत में ही नहीं, दुनिया के अन्य देशों में भी होता है। इन दिनों मलयालम भाषा की चर्चित फिल्म आडुजीवितम-द गोट लाइफ का खाड़ी के देशों और विशेष रूप से सऊदी अरब में विरोध हो रहा है। विरोध इसलिए हो रहा है, क्योंकि इसमें केरल के मोहम्मद नजीब की रोंगटे खड़े कर देने वाली आपबीती का चित्रण किया गया है, जिन्हें सऊदी अरब में गुलाम की तरह रखा गया था।

सऊदी अरब के कई लोग कह रहे हैं कि यह फिल्म उनके देश की गलत छवि दिखाती है। वे ऐसा फिल्म देखने के बाद कह रहे हैं। इसके बाद भी खाड़ी के देशों ने इस फिल्म को प्रतिबंधित नहीं किया है। भारत में लोग फिल्म इमरजेंसी को देखे बगैर उसे प्रतिबंधित करने ही नहीं, बल्कि कंगना से सार्वजनिक तौर पर माफी मांगने के साथ उनकी गिरफ्तार की भी मांग कर रहे हैं। यह मांग करने वालों में जय संविधान का राग अलापने वाले भी शामिल हैं। इससे विचित्र और कुछ नहीं कि किसी को फिल्म बनाने के ‘अपराध’ में गिरफ्तार करने की मांग की जाए और वह भी तब, जब फिल्म रिलीज न हुई हो। कंगना की फिल्म का विरोध कई सिख संगठन कर रहे हैं। इनमें सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी यानी एसजीपीसी भी है। पंजाब और कुछ राज्यों में इस फिल्म पर पाबंदी लगाने की मांग को लेकर प्रदर्शन हो चुके हैं।

सिख संगठनों का कहना है कि फिल्म में सिखों का गलत चित्रण किया गया है, लेकिन आखिर कैसे? इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं, क्योंकि जो विरोध कर रहे हैं, उन्होंने फिल्म देखी ही नहीं है, क्योंकि वह रिलीज ही नहीं हुई है। जो देखा गया है, वह है इस फिल्म का ट्रेलर। 2 मिनट 53 सेकेंड के इस ट्रेलर में चंद सेकेंड के लिए भिंडरांवाले को यह कहते हुए दिखाया गया है, ‘तुम्हारी पार्टी (कांग्रेस) को वोट चाहिए और मुझे चाहिए खालिस्तान।’ सिख संगठनों का कहना है कि भिंडरांवाले ने ऐसा कभी नहीं कहा। यह सच हो सकता है, क्योंकि जब कभी भिंडरांवाले से पूछा जाता था कि क्या आप खालिस्तान चाहते हैं तो उसका जवाब होता था, ‘मैं नहीं मांग रहा, लेकिन बीबी (इंदिरा गांधी) देगी तो ले लूंगा।’ इसका यह मतलब नहीं कि भिंडरांवाले का खालिस्तान से कोई लेना-देना नहीं था। यदि भिंडरांवाले का खालिस्तान से कुछ लेना-देना नहीं था तो दुनिया भर के खालिस्तान समर्थक उसका पोस्टर लहराकर उसका गुणगान क्यों करते हैं? क्या ये वही खालिस्तानी नहीं, जो कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका आदि में भिंडरांवाले का पोस्टर लेकर राष्ट्रीय ध्वज जलाते-फाड़ते-रौंदते रहते हैं?

फिल्म इमरजेंसी के ट्रेलर में कुछ सेकेंड का एक और दृश्य है, जिसमें सिख भेष वाले बंदूकधारी लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाते दिख रहे हैं। यदि किसी को इस पर भी आपत्ति है तो यह हास्यास्पद है। दुनिया जानती है कि खालिस्तानी आतंकियों ने पंजाब में हजारों लोगों को मारा। कहीं कंगना की फिल्म का विरोध इसलिए तो नहीं किया जा रहा है ताकि खालिस्तानी आतंकियों की करतूतों पर पर्दा पड़ा रहे? यह ध्यान रहे कि 1984 के सिख विरोधी दंगों की तो खूब चर्चा होती है और उचित ही होती है, लेकिन खालिस्तानी आतंकियों के हाथों पंजाब में जो हजारों हिंदू-सिख मारे गए, उनकी चर्चा कभी नहीं होती। सिख संगठनों का तर्क है कि कंगना की फिल्म भाईचारा बिगाड़ेगी। गजब यह है कि ऐसा वे भी कह रहे हैं, जो भिंडरांवाले समेत अन्य खालिस्तानी आतंकियों का महिमामंडन करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। आखिर खालिस्तानी आतंकियों का गुणगान करते समय इन संगठनों को भाईचारे की चिंता क्यों नहीं होती?

फिल्म इमरजेंसी के विरोध ने संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती के बेतुके विरोध की याद दिला दी है। इस फिल्म को देखे बगैर करणी सेना ने उसके खिलाफ हंगामा खड़ा कर दिया था। जैसी धमकियां आज कंगना को मिल रही हैं, वैसी ही दीपिका पादुकोण को दी जा रही थीं। सड़कों पर उतरकर हिंसा और हंगामा किया जा रहा था। आखिरकार फिल्म तब रिलीज हो सकी, जब उसका नाम बदलकर पद्मावत कर दिया गया। फिल्म रिलीज होने पर पता चला कि उसमें वैसा कुछ था ही नहीं, जिसे लेकर हंगामा किया जा रहा था। कोई किसी फिल्म से असहमत हो सकता है, लेकिन यह बेतुका है कि उसकी विषयवस्तु से परिचित हुए और उसे देखे बिना उसका विरोध किया जाए। इससे भी खराब बात है फिल्म की रिलीज रोकने के लिए धमकियों का सहारा लेना और सेंसर बोर्ड एवं सरकार को चेताना। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी संगठन समानांतर सेंसर बोर्ड न बनने पाए।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)