विवेक काटजू। इस्लामाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आमेर फारूक ने 28 अगस्त को अदालत में कहा कि ‘पाकिस्तान युद्ध सरीखी स्थिति में है। हर कोई बलूचिस्तान के हालात देख सकता है।’ अदालत ने यह टिप्पणी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ यानी पीटीआइ की एक याचिका की सुनवाई के दौरान की थी।

पीटीआई ने यह याचिका रैली की अनुमति में अवरोध अटका रहे इस्लामाबाद प्रशासन के खिलाफ लगाई थी। फारूक की टिप्पणी यही दर्शाती है कि पाकिस्तान बलूच विद्रोहियों विशेषकर बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी यानी बीएलए के हमलों से थर्राया हुआ है। कुछ दिन पहले ही ऐसे एक हमले में 70 से अधिक लोगों की मौत हो गई, जिसमें सुरक्षाकर्मी भी शामिल थे।

पाकिस्तान में हिंसक टकरावों को लेकर नेताओं और वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों की बयानबाजी बहुत आम है, लेकिन न्यायाधीशों की ओर से तब तक ऐसा कुछ सुनने को नहीं मिलता, जब तक कि कोई सुनवाई ऐसे मामलों से जुड़ी हुई न हो। ऐसे में, फारूक की टिप्पणी वहां उपजी निराशा को ही दर्शाती है। राजनीतिक बिरादरी भले ही आतंकवाद को मिटाने के दावे-वादे करती रहे, लेकिन उससे आम धारणा पर कुछ खास असर नहीं पड़ेगा।

पाकिस्तान यह दावा करता है कि जम्मू-कश्मीर का मुद्दा विभाजन का अधूरा एजेंडा है। यह सरासर झूठ है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के केंद्रशासित प्रदेश भारतीय संघ के अभिन्न अंग हैं। इस मामले में पाकिस्तान सच्चाई पर पर्दा डालता आया है और सच यही है कि बलूचिस्तान का मुद्दा ही विभाजन का अधूरा अध्याय है, जिसकी तार्किक परिणति नहीं हो पाई।

इतिहास के पन्ने पलटें तो पाएंगे कि ब्रिटिश संसद ने जुलाई, 1947 में जब भारत स्वतंत्रता अधिनियम पारित किया, तब यहां 560 रियासतें थीं। अधिनियम ने ब्रिटिश इंडिया को भारत और पाकिस्तान नाम के दो देशों में विभाजित किया। उक्त 560 रियासतों को भी तकनीकी रूप से उसने ‘स्वतंत्र’ घोषित कर दिया। कानूनी स्थिति तो यही कहती थी।

हालांकि राजनीतिक रूप से अंग्रेजों ने अपनी स्थिति के अनुरूप इन रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ विलय की सलाह भी दी। इस सिलसिले में ये रियासतें भारत और पाकिस्तान का हिस्सा बनती गईं। इस कड़ी में आज के बलूचिस्तान को देखें तो तब वह स्टेट आफ कलात यानी कलात रियासत हुआ करता था।

कलात का यही दृष्टिकोण था कि अंग्रेजों के साथ उसके संबंध भारतीय रियासती तंत्र के अंतर्गत नहीं थे। इसीलिए उसका मामला अन्य रियासतों से अलग था और इस लिहाज से ब्रिटिश राज की समाप्ति के बाद रियासतों के भारत या पाकिस्तान के साथ जुड़ाव वाली कसौटी उस पर लागू नहीं होती थी।

वास्तव में विभाजन से काफी पहले ही उसने इस मामले में ब्रिटिश अदालत में अपना पक्ष रखा था कि उसकी प्रकृति एवं स्वरूप अन्य रियासतों से अलग है और उसकी पैरवी करने वाले वकील कोई और नहीं, बल्कि मोहम्मद अली जिन्ना थे। पाकिस्तान बनने के बाद भी कलात इसी रुख पर अडिग रहा कि वह एक स्वतंत्र देश है।

यहां तक कि 1947 तक कराची में उसका दूतावास भी रहा। उस समय कराची ही पाकिस्तान की राजधानी थी। मुस्लिम लीग के नेताओं ने भी अगस्त 1947 की शुरुआत में कलात से वादा किया था कि वह स्वतंत्र बना रह सकता है। हालांकि पाकिस्तान बनने के बाद मुस्लिम लीग और जिन्ना अपने वादे से पलट गए और कलात को अपने साथ जोड़ने के लिए बल प्रयोग से नहीं हिचके।

परिणामस्वरूप, कलात के नवाब को 1948 में पाकिस्तान के साथ विलय करना पड़ा। इस प्रकार बलूचिस्तान पाकिस्तानी प्रांत बना, लेकिन नवाब के छोटे भाई को यह प्रस्ताव मंजूर नहीं था कि कलात का वजूद खत्म हो जाए और बलूच लोग पाकिस्तान में पंजाबियों के गुलाम बन जाए। यही भावना बलूच राष्ट्रवाद का मूल आधार है, जो 1948 से ही विद्रोह की चिंगारी बनी हुई है। पाकिस्तानी सेना ने हमेशा इन भावनाओं का पूरी निर्ममता से दमन किया है।

बीते सात दशकों के दौरान बलूच समाज में काफी बदलाव हुआ है। अतीत में उस पर कबीलाई सरदारों का नियंत्रण होता था। कबीलाई पहचान अभी भी अहम है, लेकिन अब बलूचों का एक पेशेवर वर्ग भी उभरा है। पंजाबियों के वर्चस्व वाले पाकिस्तान के खिलाफ अपने विद्रोह को अभिव्यक्ति देने के लिए उन्होंने हिंसक और अहिंसक, दोनों प्रकार के नए तौर-तरीके खोजे हैं।

2006 में बुगती कबीले के सरदार नवाब अकबर खान बुगती की हत्या के बाद से बलूच लोग पाकिस्तानी सेना के प्रति बहुत आक्रोशित हैं। बुगती पाकिस्तानी राज्य प्रतिष्ठान में भी अहम भूमिकाओं में रहे, लेकिन उनकी व्यापक पहचान बलूच विद्रोह के प्रतीक पुरुष के रूप में रही।

उनकी हत्या के बाद बलूच विद्रोह की आग इतनी तेजी से भड़की कि उस पर पाकिस्तानी सेना नाना प्रकार के प्रयासों के बावजूद काबू नहीं कर पाई। वह संदिग्धों को पकड़कर उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित कर देती है, जो बाद में ‘गायब’ हो जाते हैं। पाकिस्तानी अदालतों ने सेना की ऐसी तिकड़मों के खिलाफ आदेश जरूर पारित किए हैं, लेकिन यह रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ नहीं।

बलूचिस्तान से जुड़े कुछ पहलुओं से परिचित होना आवश्यक है। पाकिस्तानी सरकार खैबर-पख्तूनख्वा और यहां तक कि सिंध और पंजाब के लोगों को भी वहां सुनियोजित रूप से बसा रही है। परिणामस्वरूप, बलूच लोग अपने ही प्रांत में अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं। खनिज संसाधनों और प्राकृतिक गैस से समृद्ध होने के बावजूद बलूचिस्तान पाकिस्तान का सबसे गरीब प्रांत बना हुआ है, क्योंकि यहां से मिलने वाले राजस्व को कहीं और खर्च किया जाता है।

बलूचिस्तान अहम तट रेखा वाला राज्य है, जहां ग्वादर बंदरगाह स्थित है। चीन ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपैक के अंतर्गत इस बंदरगाह को विकसित किया है। बलूच लोगों को लगता है कि सीपैक से उनके अलावा बाहरी लोगों का ही भला होना है। इससे उपजे आक्रोश के चलते ही बलूच विद्रोहियों ने वहां आवाजाही करने वाले पंजाबियों को मौत के घाट उतारा।

इसके जवाब में पाकिस्तानी सेना मानवाधिकारों को ताक पर रखते हुए बलूचियों का सफाया करने में लगेगी। इस मुहिम में सरकार को अन्य प्रांत के लोगों का समर्थन भी मिलेगा, लेकिन बलूच राष्ट्रवाद की लौ इससे बुझ नहीं पाएगी, क्योंकि अधिकांश बलूच खुद को पाकिस्तानी मानते ही नहीं।

(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)