दिव्य कुमार सोती। पिछले कुछ समय से जम्मू संभाग में सुरक्षा बलों पर घात लगाकर किए जाने वाले हमलों की संख्या में खासी तेजी आई है। इन हमलों में स्थानीय तत्वों द्वारा आतंकियों को खुफिया जानकारी उपलब्ध कराने और उन्हें प्रश्रय देने के मामले सामने आते रहने के बावजूद हम जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित कट्टर इस्लामिक तत्वों की मौजूदगी को स्वीकारने से बचते रहते हैं जो आज भी समाज, प्रशासन और मुख्यधारा की राजनीति में मौजूद हैं।

यही कारण है कि यह इलाका जिस इस्लामिक कट्टरपंथ के मूल रोग से ग्रस्त है, उसका कभी उपचार नहीं हो पाया। इसकी कीमत हमें अपने जवानों और आम नागरिकों के खून से आए दिन चुकानी पड़ती है। अगर किसी को कोई संदेह हो तो जम्मू-कश्मीर के डीजीपी आरआर स्वैन का हालिया बयान बहुत कुछ कहता है।

स्वैन ने कहा कि पाकिस्तान यहां समाज के हर हिस्से में वैचारिक घुसपैठ करने में सफल रहा है। आतंकियों के घर जाना और उनसे सहानुभूति जताना मुख्यधारा के नेताओं के लिए भी सामान्य बात है। स्वैन सरकारी पद पर रहते हुए जितना बोल सकते थे, बोल गए। समझने वाले समझ सकते हैं कि उनका संकेत किनकी ओर था।

वर्तमान में जम्मू से मणिपुर तक जो घट रहा है, उसका व्यापक भूराजनीतिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण आवश्यक है। 2020 से ही चीन के साथ भारत का सैन्य तनाव कायम है। पूर्वी लद्दाख में चीन के साथ भड़का तनाव पूर्वोत्तर तक पसर गया है। अपेक्षाकृत शांत रहने वाले उत्तराखंड एवं हिमाचल के मध्यवर्ती क्षेत्र में भी तनाव के चिह्न दिखने लगे हैं, क्योंकि भारत ने चीनी सीमा पर बढ़ती सैन्य हलचल के चलते यहां भी सैन्य तैनाती बढ़ाई है और सैन्य कमांड ढांचे में भी अहम बदलाव किए हैं।

नियंत्रण रेखा पर 2021 से संघर्ष विराम है, लेकिन पाकिस्तान से आतंकियों की घुसपैठ जारी है। इसके चलते ही जम्मू संभाग में आतंकी हमले बढ़ रहे हैं। इस क्षेत्र में तैनात रहीं सेना की अनुभवी आतंक निरोधक टुकड़ियों को लद्दाख भेजने से स्थिति और गंभीर हुई है। जम्मू से लगते पंजाब में भी खालिस्तानी तत्व फिर से सक्रिय हुए हैं।

जम्मू में बढ़ते हमलों के बीच तमाम लोग पाकिस्तान के साथ युद्ध विराम समाप्त करने की बात कह रहे हैं, मगर बदली हुई परिस्थितियों में सरकार के लिए यह फैसला आसान नहीं है, क्योंकि इसका अर्थ होगा दो मोर्चों पर सीधी सैन्य झड़पों की ओर कदम बढ़ाना। हालांकि, चीन को लेकर भारत सरकार ने हाल में नीति बदली है, जिसमें दलाई लामा और ताइवान के साथ भारतीय नेतृत्व द्वारा निकटता का प्रदर्शन और चीन के साथ द्वीपसमूहों को लेकर विवाद में उलझे फिलीपींस में ब्रह्मोस मिसाइलों की तैनाती जैसे कदम शामिल हैं।

वर्ष 2020 में चीन के साथ सैन्य झड़पों के बाद से ही जम्मू क्षेत्र में भारतीय सुरक्षा बलों पर आतंकी हमलों का दौर शुरू हुआ और पाकिस्तान ने अपने सैन्य दस्तों में सक्रिय रहे लोगों को भी इस क्षेत्र में भेजा। ऐसे में इस घटनाक्रम को चीन-पाकिस्तान सहयोग के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें चीन पाकिस्तान के जरिये सुनिश्चित कर रहा है कि लद्दाख में उसकी सेना का सामना कर रहीं भारतीय सेनाएं निश्चिंत न रह पाएं।

आवश्यकता पड़ने पर जम्मू में किए जा रहे इन छोटे हमलों को पुलवामा जैसी किसी बड़ी घटना में भी बदला जा सकता है, ताकि भारत दो मोर्चों पर उलझ जाए। ऐसे में आवश्यक है कि कुछ बेहद कठोर और त्वरित कदम उठाकर जम्मू संभाग से आतंकियों और उनके मददगारों का जल्द सफाया किया जाए।

पूर्वी सीमा पर भी भारत के लिए चुनौतियां कम नहीं हैं। म्यांमार में सैनिक सरकार देश के सीमावर्ती प्रदेशों में सशस्त्र विद्रोह कर रही कबीलाई शक्तियों के सामने पस्त पड़ती दिख रही है। म्यांमार विखंडन की राह पर है। अमेरिका और चीन इसमें अपना-अपना हित साधने में लगे हैं। एक ओर अमेरिका चिन, रखाइन और भारत के मिजोरम और मणिपुर के ईसाई हो चुके कुकी-चिन आदिवासियों को एकजुट एक ईसाई राष्ट्र का निर्माण करना चाहता है।

वहीं चीन म्यांमार की केंद्रीय सत्ता को कमजोर होता देख उत्तर में शान और कचिन में पूर्ववर्ती बर्मा कम्युनिस्ट पार्टी के विखंडन से उपजे सशस्त्र उग्रवादी संगठनों जैसे यूनाइटेड वा स्टेट आर्मी और म्यांमार नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस आर्मी के जरिये इन प्रांतों में अपना प्रभाव क्षेत्र बना रहा है। चीन समर्थित इन उग्रवादी संगठनों के पास हजारों गुरिल्ला लड़ाके और चीन द्वारा मुहैया कराए गए उन्नत हथियार हैं। ये उग्रवादी गुट एक तरह से चीन के अनधिकृत सशस्त्र बलों की तरह काम करते हैं।

इनके माध्यम से चीन दशकों तक पूर्वोत्तर में सक्रिय आतंकियों को हथियार और प्रशिक्षण मुहैया कराता आया है। म्यांमार की सीमा पर कुकी-चिन ईसाई उग्रवादियों का कब्जा होने से भारत का म्यांमार के केंद्रीय इलाकों से संपर्क कट रहा है। इसके चलते भारत-म्यांमार के सहयोग से चल रही सामरिक रूप से महत्वपूर्ण कई परियोजनाओं की सुरक्षा पर प्रश्नचिह्न लग रहे हैं, वहीं मणिपुर में भी शांति स्थापित नहीं हो पा रही है।

समस्या यह है कि स्वतंत्रता के बाद से नई दिल्ली द्वारा मणिपुर के मैतेयी हिंदू समुदाय के साथ सौतेले व्यवहार और नेहरू सरकार द्वारा उनके लिए पवित्र काबो घाटी बर्मा को दिए जाने के चलते भारत के विरुद्ध गुस्सा पनपा, जिसका लाभ चीन समर्थित वामपंथी तत्वों ने उठाया। अधिकांश चरमपंथी मैतेयी गुट माओवाद से ही प्रेरित हैं।

अगर भारत-म्यांमार के बीच के सामरिक रूप से महत्वपूर्ण इलाकों को नियंत्रण में ले चुके कुकी-चिन उग्रवादी संगठनों पर नरमी दिखाई जाती है तो जहां चीन इसका लाभ उठाकर मैतेयी माओवादी उग्रवादियों को मजबूत करेगा, वहीं म्यांमार सरकार से हमारे संबंध बिगड़ेंगे। मणिपुर और मिजोरम में ईसाई अलगाववाद भी पनपेगा।

अगर म्यांमार सरकार देश पर अपना नियंत्रण बहाल नहीं कर पाती तो भारत म्यांमार में अपना सामरिक प्रभाव खोएगा। ऐसे में भारत के पास म्यांमार को लेकर भी आसान विकल्प नहीं हैं। हालांकि मणिपुर में शुरुआत सख्त राष्ट्रपति शासन से की जा सकती है, जिसमें दोनों ही समुदायों के हिंसक तत्वों पर कड़ी कार्रवाई हो, क्योंकि चीन के साथ सीधे टकराव या म्यांमार के विखंडन की स्थिति में अस्थिर मणिपुर बेहद गंभीर समस्या बन सकता है।

(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)