राज कुमार सिंह। अंततः चंपई सोरेन भी भाजपाई हो गए। 67 साल के चम्पाई लगभग साढ़े तीन दशक तक झारखंड मुक्ति मोर्चा यानी झामुमो के प्रमुख नेता रहे। लगभग सभी झामुमो सरकारों में मंत्री भी रहे। मनी लांड्रिंग केस में गिरफ्तारी के चलते इस्तीफा देकर हेमंत सोरेन ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया, पर जमानत मिलते ही पद वापस लिया तो वह बागी हो गए।

दो फरवरी को झारखंड के मुख्यमंत्री बने चम्पाई को तीन जुलाई को पद छोड़ना पड़ा और 28 अगस्त को झामुमो से इस्तीफा देकर वह 31 अगस्त को भाजपाई हो गए। दशकों तक वह झामुमो के ‘धनुष-बाण’ से जिस ‘कमल’ पर निशाना लगाते रहे, अब उसी को खिलाने की जिम्मेदारी उन पर होगी।

हेमंत सोरेन ने मुख्यमंत्री पद वापस लेकर चम्पाई को फिर से मंत्री बनाया था, लेकिन शायद उन्हें यह अपमानजनक लगा। इसी साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनावों में बहुमत मिलने पर भाजपा चम्पाई को मुख्यमंत्री बनाएगी या नहीं, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन उन्हें विश्वास हो गया था कि झामुमो में मंत्री पद से आगे उनके लिए रास्ता बंद है। कह सकते हैं कि अपने राजनीतिक भविष्य के लिए चम्पाई ने एक जुआ खेला है, पर भाजपा वह जुआ क्यों बनी?

‘कोल्हान का टाइगर’ कहे जाने वाले चम्पाई सोरेन की गिनती अच्छी छवि के संघर्षशील आदिवासी नेताओं में होती है, लेकिन झामुमो का चेहरा तो शिबू सोरेन और उनके बेटे हेमंत ही रहे। 152 दिन मुख्यमंत्री रहकर चम्पाई झारखंड के सबसे लोकप्रिय आदिवासी नेता बन गए, ऐसा मानने का कोई तार्किक आधार नहीं।

फिर भाजपा के पास बाबूलाल मरांडी जैसा आदिवासी नेता है। नाराजगी के चलते भाजपा छोड़ने वाले पूर्व मुख्यमंत्री मरांडी वापस लौट आए हैं और फिलहाल प्रदेश अध्यक्ष हैं। 35 साल की उम्र में मुख्यमंत्री बनने वाले अर्जुन मुंडा भी भाजपा के ही नेता हैं। गैर आदिवासी नेताओं को साथ लेकर ये दो बड़े आदिवासी नेता जो नहीं कर पा रहे थे, वह चुनाव से ऐन पहले कमल थामने वाले चम्पाई कर देंगे?

भाजपा की नजर खनिज संपदा संपन्न राज्य झारखंड की सत्ता पर है। इसमें कोई बुराई भी नहीं। हर दल सत्ता के लिए ही राजनीति करता है, पर अपने सामर्थ्य के बजाय बाहरी नेताओं के सहारे हासिल सत्ता अक्सर अस्थिर साबित होती है। दलबदल के खेल से सत्ता का तात्कालिक सुख तो मिल सकता है, लेकिन पैरों तले की जमीन खोखली हो जाती है, क्योंकि सत्ताकेंद्रित नेता कभी किसी के सगे नहीं होते।

आखिर भाजपा अपनों पर भरोसा करने के बजाय राज्य-दर-राज्य गैरों पर दांव क्यों लगा रही है? यह खेल 2014 से ही शुरू हो गया था। तब तक शहरी वर्गों की ही पार्टी मानी जाने वाली भाजपा की यह मजबूरी समझी भी जा सकती थी, क्योंकि उसके पास अनेक सीटों के लिए तो मजबूत प्रत्याशी ही नहीं थे।

मसलन हरियाणा जैसे राज्य में जहां भाजपा कभी देवीलाल या ओमप्रकाश चौटाला तो कभी बंसीलाल सरकार में जूनियर पार्टनर रही, वहां भी उसे लोकसभा चुनाव में आधे से ज्यादा बाहरी उम्मीदवार उतारने पड़े थे, पर विश्व का सबसे बड़ा दल बन जाने के दावे के बावजूद दलबदलुओं पर निर्भरता कम होने के बजाय बढ़ती क्यों जा रही है? इस बार लोकसभा चुनाव में बड़ी संख्या में दलबदलुओं पर दांव लगाया गया। रातोरात लोग दल बदल कर भाजपा प्रत्याशी बन गए।

दलबदलुओं पर दांव लगाकर चुनावी नैया पार करने की कवायद करने वाली भाजपा अकेली नहीं है। कांग्रेस ने भी लोकसभा चुनाव में दलबदलुओं पर दांव लगाने में संकोच नहीं किया, मगर मतदाताओं का रुझान दलबदल का खेल खेलने वाले दलों और नेताओं के लिए सबक होना चाहिए।

सबसे बड़े दल भाजपा और सबसे पुराने दल कांग्रेस की ही बात करें तो इन दोनों ने मिलकर 76 दलबदलुओं को लोकसभा चुनाव में टिकट दिया, लेकिन ज्यादातर हार गए। इनमें से मात्र 20 ही संसद पहुंच पाए यानी 73 प्रतिशत हार गए। कांग्रेस ने अन्य दलों से आए 33 नेताओं पर दांव लगाया, जिनमें से 26 को जनता ने नकार दिया।

दूसरी ओर भाजपा ने 43 दलबदलुओं को टिकट दिया, जिनमें मतदाताओं ने 30 को नकार दिया। इनमें कई दिग्गज भी शामिल रहे। मसलन पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की पत्नी परनीत कौर। वह अपनी परंपरागत सीट पटियाला से सिर्फ एक बार 2014 में आप के उम्मीदवार से हारी थीं, लेकिन इस बार भाजपा के टिकट पर लड़ीं तो मतदाताओं ने तीसरे स्थान पर खिसका दिया।

पंजाब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के पौत्र रवनीत सिंह बिट्टू कांग्रेस के टिकट पर लुधियाना से तीन बार सांसद चुने गए, पर इस बार भाजपा से लड़े तो हार गए, फिर भी उन्हें केंद्र सरकार में राज्यमंत्री बनाया गया। दलबदल के जरिये सरकारें गिराने और चुनावी बिसात बिछाने का खेल कांग्रेस काल से ही चलता आ रहा है, लेकिन आज कांग्रेस का क्या हाल है?

अपने ऐतिहासिक पराभव काल से गुजर रही कांग्रेस की इस दुर्दशा के लिए वे खेल भी कम बड़े कारक नहीं रहे। येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल कर उसे बनाए रखने के एकसूत्रीय सोच के चलते ही कांग्रेस इस संकटकाल से गुजर रही है, पर उसकी दुर्दशा से भाजपा कोई सबक क्यों नहीं सीखना चाहती?

उसे अपने पुराने निष्ठावान नेता-कार्यकर्ताओं की कीमत पर भी अन्य दलों के नेताओं को गले लगाने और आगे बढ़ाने में कोई संकोच क्यों नहीं? दशकों पुराने संबंधों के बावजूद जो नेता कांग्रेस के सगे नहीं हुए, वे महज सत्ता-स्वार्थ की खातिर भाजपा से जुड़कर उसके सगे हो जाएंगे? भाजपा को समझना चाहिए कि ‘गैरों पर करम’ करते हुए अंतत: ‘अपनों पर सितम’ की यह राजनीति दीर्घकाल में आत्मघाती भी साबित हो सकती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)