नई दिल्ली। पिछले तीन-चार दशकों में चीन का आर्थिक विकास निवेश, घरेलू खपत और निर्यात पर आधारित था। लेकिन हाल में तीनों मोर्चों पर चीन की स्थिति कमजोर हुई है। नतीजा, कोरोना काल छोड़ दें तो 2023 में चीन की विकास दर तीन दशक में सबसे कम, 5.2% रह गई। नई दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर ऑफ चाइनीज एंड साउथ-ईस्ट एशियन स्टडीज में प्रोफेसर और भारत के जाने-माने साइनोलॉजिस्ट डॉ. बी.आर. दीपक ग्रोथ के इस आंकड़े पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि जमीनी हालात इतनी ग्रोथ को नहीं दिखाते। उनके अनुसार चीन के 30 करोड़ लोग डिफॉल्टर हो चुके हैं, वे बैंकों का कर्ज लौटाने में सक्षम नहीं हैं। रियल एस्टेट सेक्टर में संकट के कारण जो स्थिति उपजी है, उसे सुधारने में 10 साल लग सकते हैं। ‘वुल्फ वॉरियर डिप्लोमेसी’ के कारण चीन को विकसित देशों के साथ आयात-निर्यात में भी मुश्किल आई है। अमेरिका की तुलना में चीन की जीडीपी 75% के आसपास पहुंच गई थी, लेकिन आगे इसके घटने के आसार हैं। इन हालात में फिलहाल चीन के सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनने की संभावना बहुत कम है। प्रो. दीपक के साथ जागरण प्राइम के एस.के. सिंह की बातचीत के मुख्य अंश-

-चीन की आर्थिक स्थिति लगातार डांवाडोल दिख रही है। वर्ष 2023 में उसकी जीडीपी ग्रोथ 5.2% रही, जो (कोविड काल को छोड़कर) तीन दशक में सबसे कम है। इसके क्या कारण हैं?

मेरे विचार से चीन की आर्थिक स्थिति बिगड़ने के कारण सिस्टेमिक हैं। चीन के विकास के तीन प्रमुख स्तंभ कहे जा सकते हैं- निवेश, खपत और निर्यात। आर्थिक स्थिति बिगड़ने का सबसे बड़ा सिस्टेमिक कारण यह है कि अभी तक चीन की ग्रोथ मुख्य रूप से इन्वेस्टमेंट आधारित रही है। चीन की करीब 45% ग्रोथ निवेश पर आश्रित है। इन्वेस्टमेंट और रियल एस्टेट का आपस में सीधा संबंध है। चीन की जनता ने अपना लगभग 70% निवेश रियल एस्टेट में कर रखा है। दिक्कत यह है कि इस तरह की इन्वेस्टमेंट सस्टेनेबल नहीं होती। चीन की सरकार खुद कहती है कि वहां करोड़ों सरप्लस बिल्डिंग हैं। वहां घोस्ट सिटी (वीरान शहर) बढ़ती जा रही हैं।

लोगों ने रियल एस्टेट में जब निवेश किया तो उनका उद्देश्य फायदा कमाना था। जिन लोगों ने पहले निवेश किया था उन्होंने मुनाफा कमाया भी, लेकिन उसके बाद लोगों ने महंगे दामों पर रियल एस्टेट में निवेश किया। चीन के केंद्रीय बैंक के अनुसार 2022 के अंत तक 78 करोड़ चीनी नागरिक कर्ज में थे और उन पर लगभग सारा रियल एस्टेट का कर्ज था। चीन की विकास दर गिरने का यह एक बड़ा फैक्टर है। रियल एस्टेट के साथ सीमेंट, स्टील, होम अप्लायंसेज जैसी इंडस्ट्रीज जुड़ी होती हैं। उन पर भी इस संकट का असर हुआ है।

चीन-अमेरिका संबंधों में तनाव, ट्रेड वॉर, हाईटेक वॉर के चलते चीन में विदेशी निवेश में भी गिरावट आ रही है। अब डी-कपलिंग या डी-रिस्किंग के कारण बहुत सी कंपनियां भारत, वियतनाम तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के दूसरे देशों में जा रही हैं। सैमसंग, फॉक्सकॉन जैसी कंपनियां भारत आई हैं।

-चीन में घरेलू मांग (खपत) में कमी क्यों आई?

वहां कर्ज के दुष्चक्र में केंद्र सरकार, स्थानीय सरकारें और बड़ी-बड़ी इकाइयां हैं। इसलिए खपत की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। एक आंकड़ा यह भी है कि चीन के 30 करोड़ लोग डिफाल्टर हैं, वे बैंक को कर्ज लौटाने में सक्षम नहीं हैं। देश की आर्थिक स्थिति के प्रति लोगों का कॉन्फिडेंस निचले स्तर पर पहुंच गया है। चीन का दावा है कि उसके पास 40 करोड़ मध्यवर्गीय हैं, लेकिन कॉन्फिडेंस कम होने के कारण वे लोग खर्च नहीं कर रहे हैं।

-और पिछले साल निर्यात भी गिरा है…।

पिछले तीन-चार दशकों में चीन ने निर्यात के मोर्चे पर बेहतरीन प्रदर्शन किया है। यही कारण है कि उसके 130 से ज्यादा ट्रेडिंग पार्टनर हैं। पहले अमेरिका सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर हुआ करता था, लेकिन 2013 के बाद चीन ने उसकी जगह ले ली। लेकिन नेशनल डेवलपमेंट एंड रिफॉर्म कमीशन के आंकड़े बताते हैं वर्ष 2023 की पहली छमाही में चीनी के आयात और निर्यात की वैल्यू 2.9 लाख करोड़ डॉलर के आसपास थी। एक साल पहले की तुलना में देखें तो इसमें 4.7% की गिरावट आई।

(चीन के जनरल एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ कस्टम्स के अनुसार वर्ष 2023 में चीन का निर्यात 4.6% घटकर 3.38 लाख करोड़ डॉलर और आयात 5.5% घटकर 2.56 लाख करोड़ डॉलर रह गया। सालाना ट्रेड वॉल्यूम 5.94 लाख करोड़ डॉलर रहा और इसमें 5% गिरावट आई है।)

जो निर्यात उनकी ताकत हुआ करता था, वह कमजोर हो रहा है। अमेरिका चीन का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर होने के साथ चीनी वस्तुओं का सबसे बड़ा बाजार भी था। लेकिन ट्रेड वॉर, हाईटेक वॉर, चिप वॉर आदि के चलते अमेरिका को चीन के निर्यात में कमी आई है। पिछले साल चीन से अमेरिका को निर्यात 23.1% गिर गया। यूरोपियन यूनियन को चीन का निर्यात भी 20.6% गिरा है।

इस तरह देखें तो एक समय फर्स्ट वर्ल्ड देशों में चीन का जो बोलबाला था, वह अब नहीं रहा। हालांकि बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) से जुड़े देशों और थर्ड वर्ल्ड देशों में अभी चीन का दबदबा है। उनके साथ चीन का लो-एंड और मीडियम-एंड कमोडिटी का कारोबार है। भारत में भी चीन से आयात में बढ़ोतरी हुई है।

-इन तीनों के अलावा और क्या कारण मानते हैं?

कुछ तो चीन की अपनी गलतियां हैं। जैसे, लंबे समय तक जीरो कोविड पॉलिसी अपनाने की वजह से आर्थिक स्थिति तहस-नहस हो गई। और फिर उनकी ‘वुल्फ वॉरियर डिप्लोमेसी’ है। इससे विकसित देशों में चीन की छवि बहुत खराब हुई। उन्हें लगा कि चीन पूरी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बदलने की कोशिश कर रहा है। इससे विकसित देश घबरा गए और चीन के खिलाफ अमेरिका के साथ लामबंद हो गए।

-निकट भविष्य को लेकर आपका क्या अनुमान है?

आज चीन के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह निवेश आधारित मॉडल को खपत आधारित मॉडल में कैसे बदले। यह स्ट्रक्चरल समस्या है और मुझे नहीं लगता कि साल-दो साल में यह समस्या दूर होगी। इकोनॉमी के इस मॉडल को बदलने में लंबा समय लगेगा, क्योंकि खपत बढ़ाने के लिए लोगों के पास पैसा होना चाहिए। पिछले तीन-चार दशकों में चीन में जो निवेश हुआ, उसमें सरकार की बड़ी भूमिका थी। ग्रोथ का 45% सरकार की तरफ से ही आता था। दूसरी तरफ लोगों के पास जो पैसा है, वह उधार का है। इसे हम सस्टेनेबल मॉडल नहीं कह सकते। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि रियल एस्टेट समस्या के कारण जो स्थिति उपजी है, उसे सुधारने में 10 साल भी लग सकते हैं।

-हाल तक कहा जा रहा था कि अगले कुछ वर्षों में चीन की इकोनॉमी अमेरिका से भी बड़ी हो जाएगी। क्या अब भी ऐसा लगता है?

पिछले चार दशकों में चीन की आर्थिक गति के आधार पर विशेषज्ञ अनुमान लगा रहे थे कि चीन 2027, 2030 या फिर 2035 तक अमेरिका को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाएगा। लेकिन मौजूदा स्थिति को देखते हुए ऐसा नहीं लगता। पिछले दिनों उन्होंने जो आंकड़े जारी किए उसके अनुसार 2023 में उनकी जीडीपी ग्रोथ 5.2% थी। मुझे नहीं लगता कि इसमें पूरी सच्चाई है, क्योंकि जमीनी हालात इतनी ग्रोथ को नहीं दिखाते। वास्तविक विकास दर एक प्रतिशत के आसपास होगी, या यह भी संभव है कि वह नेगेटिव हो।

चीन की जीडीपी का आकार अमेरिका के 70% से 75% तक पहुंच गया था, लेकिन अब जो परिस्थितियां बन गई हैं, उनके आधार पर एक चीनी लेखक ने ही लिखा है कि अगले एक दशक में यह अनुपात घटकर 50% रह जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो दुनिया में अनिश्चितता बढ़ेगी, क्योंकि पिछले कुछ दशकों के दौरान विश्व जीडीपी ग्रोथ में उसका योगदान काफी रहा है। कई बार यह योगदान 30% से 35% तक था। लेकिन मुझे लगता है कि यह अब धीरे-धीरे कम होता जाएगा।

-क्या आगे बदलाव संभव है?

आगे स्थिति इस बात पर निर्भर करेगी कि चीन स्ट्रक्चरल बदलाव कैसे करता है। अभी तक बीमा और बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में उसने विदेशी निवेशकों को अनुमति नहीं दी है। प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र में भी उन्होंने विदेशी निवेश आने नहीं दिया। कई ऐसे सेक्टर हैं जिनमें चीन की कंपनियों का एकाधिकार है। चीन को अनेक बुनियादी सुधार करने पड़ेंगे। जब तक चीन विभिन्न सेक्टर को विदेशी निवेश के लिए नहीं खोलेगा, तब तक विकसित देशों की कंपनियां वहां पैसा नहीं लगाएंगी।

ग्लोबलाइजेशन का वह दौर अब खत्म हो गया है जब पूंजी एक देश से मुक्त रूप से दूसरे देश में जा रही थी। आजकल विकसित देशों में खासकर चीन के प्रति जो रवैया है, उससे लगता नहीं कि आने वाले दिनों में ज्यादा विदेशी कंपनियां वहां निवेश करेंगी। हालांकि इलेक्ट्रिक वाहन जैसे गिने-चुने क्षेत्र में विदेशी कंपनियां निवेश कर रही हैं। टेस्ला ने वहां काफी पैसा लगाया है। चीन इलेक्ट्रिक वाहनों का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है। लेकिन सवाल है कि क्या सिर्फ इलेक्ट्रिक वाहन सेक्टर चीन की निवेश आधारित इकोनॉमी को खपत आधारित इकोनॉमी में बदल सकेगा? मुझे नहीं लगता कि ऐसा होने वाला है।

-क्या आबादी कम होने का भी कोई असर है?

दो साल से चीन की आबादी कम हो रही है। इसका कामकाजी वर्ग की आबादी पर सीधा प्रभाव पड़ेगा। पिछले चार दशक में चीन के तेज विकास में वहां की 30 करोड़ कामकाजी आबादी का बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्हीं के बूते चीन ने मैन्युफैक्चरिंग में अपना दबदबा बनाया और रियल एस्टेट सेक्टर में इतने दशकों तक ग्रोथ बनी रही। चीन निश्चित रूप से रोबोट, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मैकेनाइजेशन का इस्तेमाल बढ़ा रहा है, लेकिन क्या ये सब उपाय घटती कामकाजी आबादी की जगह ले सकेंगे? मुझे इसकी संभावना कम दिखती है।

चीन की आबादी धीरे-धीरे वृद्ध हो रही है। भारत के मुकाबले वहां 35 से 65 साल की उम्र के लोग काफी ज्यादा हैं। बाजार सिकुड़ने के कारण कॉलेज से निकलने वाले छात्रों को नौकरियां नहीं मिलती हैं। चीन में कॉलेज-यूनिवर्सिटी से निकलने वाले 16 से 24 आयु वर्ग में बेरोजगारी की दर 21.2% है। यह आंकड़ा जून 2023 का है। उसके बाद वहां के नेशनल ब्यूरो ऑफ स्टैटिसटिक्स ने आंकड़े देना ही बंद कर दिया। माना जाता है कि वास्तविक आंकड़े काफी ज्यादा हैं। यह 40% के आसपास हो सकता है। चीन में हर साल कम से कम एक करोड़ यूनिवर्सिटी ग्रेजुएट निकलते हैं। उनके लिए काम नहीं होना चिंताजनक है। इससे समाज में अव्यवस्था भी फैलती है, जो हमने हाल में देखा भी।

मैं अक्सर चीन जाता रहता हूं। पहले वहां विदेशी लोगों की जो भीड़ होती थी, वह अब देखने को नहीं मिलती है। कोविड-19 से पहले वहां हर साल 30 से 40 लाख विदेशी पर्यटक आते थे, 2022 के अंत में यह आंकड़ा सिर्फ 57 हजार रह गया था। इससे पता चलता है कि चीन के प्रति लोगों का आकर्षण कम हुआ है। उन्हें आकर्षित करने के लिए पिछले साल चीन ने कुछ यूरोपीय देशों के नागरिकों को बिना वीजा आने की अनुमति दी। इसके बावजूद मुझे नहीं लगता कि वहां पहले की तरह विदेशी टूरिस्ट जाएंगे।

कुल मिलाकर देखें तो चीन काफी नाजुक स्थिति से गुजर रहा है। हालांकि अभी तक उन्होंने इस बात को स्वीकार नहीं किया है। लेकिन जो आंकड़े बाहर आ रहे हैं, उनसे यही लगता है कि वहां हालात मुश्किल भरे हैं।