एस.के. सिंह, नई दिल्ली। दुनिया के करीब तीन दर्जन देश ‘विकसित’ श्रेणी में हैं। इन देशों ने अलग-अलग समय पर इस श्रेणी में जगह बनाई है। सबके लिए परिस्थितियां भी अलग रही हैं। सवाल है कि क्या विकसित देश बनने के लिए भारत को इन देशों का मॉडल अपनाना चाहिए? विशेषज्ञ इसे जरूरी नहीं मानते। उनका कहना है कि हर देश के सामने हालात अलग थे। भारत को भी अपनी अलग राह बनानी होगी। भारत उन बुनियादी बातों को जरूर अपना सकता है जो सभी देशों में समान हैं। इनमें गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा, स्किल्ड मैनपावर, रिसर्च और डेवलपमेंट, उद्यमिता की संस्कृति, विदेशी निवेश और निर्यात पर जोर शामिल हैं। यहां हम अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया की बात करेंगे और जानेंगे कि इन देशों ने विकसित बनने के लिए क्या तरीके अपनाए। चीन की भी चर्चा है क्योंकि वह उच्च मध्य वर्ग श्रेणी में पहुंचने के बाद विकसित बनने की दहलीज पर है।

अमेरिकाः टेक्नोलॉजी में इनोवेशन से मिली गति

अमेरिका की इकोनॉमी ने सिविल वॉर (1861-65) के बाद रफ्तार पकड़ी। वर्ष 1865 से 1898 के दौरान कोयले का उत्पादन आठ गुना और इन्फ्रास्ट्रक्चर में रेलवे ट्रैक छह गुना बढ़ा। 1885 तक अमेरिका स्टील तथा फैक्टरी में बनी वस्तुएं बनाने में ब्रिटेन को पीछे छोड़ कर शीर्ष पर पहुंच गया था। वर्ष 1900 तक अमेरिका की अर्थव्यवस्था इंग्लैंड से बड़ी हो गई थी। अमेरिका की प्रति व्यक्ति जीडीपी 1870 में 4,941 डॉलर थी, जो 1900 में 8,037 और 1930 में 10,695 डॉलर हो गई थी।

पहले विश्व युद्ध में ज्यादातर ताकतवर देशों को बहुत नुकसान हुआ, उन पर कर्ज का बोझ काफी बढ़ गया, लेकिन अमेरिका ज्यादा शक्तिशाली बन कर उभरा। अंग्रेजी इतिहासकार एडम टूज (Adam Tooze) ने अपनी किताब द डिलज (The Deluge) में लिखा है, 1914 के युद्ध से पहले अमेरिका अक्षम राजनीतिक व्यवस्था, खराब फाइनेंशियल सिस्टम और नस्ली हिंसा से जूझ रहा था। एक तरफ वह कुप्रबंधन और लालच से भरी राजनीति का पर्याय बन चुका था तो दूसरी तरफ ज्यादा प्रोडक्शन और प्रॉफिट की होड़ लगी थी। 

पहला विश्व युद्ध दो साल चलने के बाद ऐसी स्थिति बन गई थी कि युद्धरत देश युद्ध की कीमत नहीं झेल पा रहे थे। विश्व व्यापार से अलग-थलग कर दिए जाने के कारण जर्मनी रक्षात्मक हो चुका था। ब्रिटेन और अन्य मित्र देश अमेरिका से बड़े साजो-सामान खरीद रहे थे। अमेरिका की फैक्ट्रियां आम लोगों के इस्तेमाल की चीजों के बजाय सैन्य सामग्री बना रही थीं। अमेरिका के किसान यूरोप के लिए खाना और कपास उगा रहे थे। युद्ध के दौरान यूरोपीय देशों ने अमेरिका से कर्ज भी लिया। इस तरह यूरोप के देश कमजोर होते गए और अमेरिकी अर्थव्यवस्था मजबूत होती गई।

यूरोप में फासीवाद बढ़ने के साथ 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ, तो ये देश एक बार फिर मदद के लिए अमेरिका के पास गए। युद्ध में साजो-सामान की मांग ने मंदी से जूझ रही अमेरिकी अर्थव्यवस्था को उबारने में मदद की। वहां लोगों को नौकरियां मिलीं। बीच में अटलांटिक होने के कारण अमेरिका को उतना नुकसान भी नहीं हुआ जितना यूरोपीय देशों को हुआ था। 1945 तक सभी पुरानी शक्तियों- इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और जापान की हालात खराब हो चुकी थी और अमेरिका बड़ी ताकत बन चुका था।

अमेरिकन एंटरप्राइज इंस्टीट्यूट के सीनियर फेलो जेम्स पेथोकूकिस (James Pethokoukis) ने अमेरिका के विकास के कई प्रमुख कारण बताए हैं। इनमें प्रमुख हैं उद्यमिता की संस्कृति, बिजनेस में जोखिम लेने का चलन,

उद्यमिता को बढ़ावा देने वाला फाइनेंशियल सिस्टम, विश्व स्तरीय रिसर्च विश्वविद्यालयों की भरमार और बिजनेस के माकूल रेगुलेटरी वातावरण।

अमेरिका में टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अनेक इनोवेशन हुए। इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि अमेरिका ने अब तक 411 नोबेल पुरस्कार जीते हैं। इनमें ज्यादातर विज्ञान के क्षेत्र में हैं। अमेरिका की आबादी भले दुनिया का 4% हो, 40% नोबेल जीतने वाले अमेरिका के ही हैं। इनमें 35% नोबेल विजेता दूसरे देशों से आकर बसे हैं। शायद इसलिए क्योंकि यहां की इकोनॉमी और संस्कृति इनोवेशन, शिक्षा और रिसर्च को बढ़ावा देने वाली है।

जापानः टेक्नोलॉजी के साथ नैतिकता और परिश्रम की संस्कृति

अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन ने एक बार कहा था, किसी देश के तेज विकास का सबसे अच्छा तरीका है कि उस पर बमवर्षा की जाए। उनका आशय जापान से था जिसे दूसरे विश्व युद्ध में भीषण तबाही झेलनी पड़ी थी। एक-चौथाई से ज्यादा औद्योगिक क्षमता नष्ट हो गई थी। उसने टेक्नोलॉजी का आयात कर नई शुरुआत की और आयरन, स्टील, पेट्रोकेमिकल, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल और केमिकल इंजीनियरिंग जैसे सेक्टर में दबदबा कायम किया। आयातित टेक्नोलॉजी को अपग्रेड कर उसे 20% ज्यादा सक्षम बनाया। 

जापान सरकार ने शिक्षा में भारी निवेश किया, व्यापक साक्षरता सुनिश्चित की और अपने उद्योगों के लिए कुशल कार्यबल प्रदान किया। निर्यातोन्मुख विकास की रणनीति भी अपनाई। इस रणनीति ने जापानी उद्योगों को विदेशी बाजारों तक पहुंचने और विदेशी मुद्रा कमाने की सहूलियत दी, जिससे आर्थिक विकास में आसानी हुई। सरकार ने भी उद्योग को सस्ता फंड उपलब्ध कराया।

दूसरा विश्व युद्ध और शीत युद्ध खत्म होने (1991) के बीच जापान लगातार तेज गति से आगे बढ़ा। वर्ष 1950 से 1973 तक उसकी विकास दर लगातार 7.5% से अधिक थी। 1965 से 1969 के दौरान तो उसकी ग्रोथ 12% के आसपास थी। श्रमिकों की बढ़ी हुई संख्या और क्वालिटी ने भी इसमें योगदान किया। नेशनल ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च के अनुसार जापान की ग्रोथ में लगभग 30% योगदान इन्हीं का था।

जापान तकनीकी इनोवेशन और मैन्युफैक्चरिंग प्रक्रिया में निरंतर सुधार के लिए जाना जाता है। कोरिया युद्ध में जब अमेरिका शामिल हुआ तो उसके लिए अपने यहां से सैनिक साजो-सामान लाना महंगा और मुश्किल था। उसने जापान को ऑर्डर दिए, जिससे जापान को फायदा मिला। काम में नैतिकता और परिश्रम की संस्कृति ने भी इसके आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जापानी श्रमिक अपने समर्पण और उत्कृष्टता के लिए जाने जाते हैं।

दक्षिण कोरियाः आरएंडडी पर फोकस का मिला लाभ

दक्षिण कोरिया तेज आर्थिक बदलाव का बेहतरीन उदाहरण है। 1960 के दशक में कोरिया की प्रति व्यक्ति जीडीपी एशिया और अफ्रीका के गरीब देशों के समान थी, लेकिन 1987 तक यह विकसित देशों के बराबर हो गई। इस दौरान श्रमिकों की प्रोडक्टिविटी के साथ रोजगार अनुपात (वर्किंग एज आबादी और वास्तविक रोजगार का अनुपात) भी बेहतर हुआ। 1960 से 1980 के दौरान श्रमिकों की प्रोडक्टिविटी हर साल 5% बढ़ी और रोजगार अनुपात 0.4% की दर से बढ़ा।

उत्तर कोरिया के साथ तीन साल चले युद्ध में ज्यादातर औद्योगिक ढांचा तहस-नहस हो गया था। जुलाई 1953 में युद्ध खत्म हुआ। इसके बावजूद दक्षिण कोरिया ने मोबाइल फोन, सेमीकंडक्टर, ऑटोमोबाइल, केमिकल और स्टील निर्माण में दुनिया में अपनी जगह बनाई है। इसके विकास को विशेषज्ञ ‘हांगांग नदी पर चमत्कार’ कहते हैं। इसने 1950 के दशक में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के रूप में शुरुआत की और वर्ल्ड बैंक के अनुसार अभी यह 33,121 डॉलर प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ दुनिया की 13वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।

इस बदलाव का बड़ा श्रेय वहां की शिक्षा व्यवस्था को जाता है। दक्षिण कोरिया एडवांस रिसर्च और डेवलपमेंट पर जीडीपी का 4.93% खर्च करता है। इसने विकास की गति तेज करने के लिए निर्यात बढ़ाने की नीति बनाई। लेकिन इनोवेशन और टेक्नोलॉजी के कारण ही यह निर्यात में प्रतिस्पर्धी बन सका। वर्ष 2022 में यह दुनिया नौवां सबसे बड़ा निर्यातक और आयातक, दोनों था। वर्ल्ड बैंक के मुताबिक 2022 में इसके गुड्स और सर्विसेज का निर्यात जीडीपी के 48.3% के बराबर था। वर्ष 2012 में यह 56.3% पर पहुंच गया था।

दक्षिण कोरिया एक समय जापान का उपनिवेश था। उस समय उसे कृषि में जापानी टेक्नोलॉजी का काफी फायदा मिला। जापान में श्रम लागत बढ़ने पर वहां के उद्योगपति कोरिया में निवेश करने लगे। वर्ष 1910 से 1940 तक कोरिया में उद्योग सालाना लगभग 10% की दर से बढ़े। बाद में सरकार का संरक्षण (सब्सिडी, टैक्स में छूट) पाकर कई कोरियाई कंपनियां बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां बन गईं। वर्ष 1977-79 के दौरान दो साल तक सरकार का 80% निवेश हैवी इंडस्ट्री स्थापित करने में हुआ। मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों के लिए शिक्षित और स्किल्ड मैनपावर तैयार करने में भी सरकार ने अहम भूमिका निभाई।

कोरिया ने 1960 के दशक में निर्यातोन्मुखी विकास को बढ़ावा दिया। शुरू में यहां से छोटे औद्योगिक सामान का निर्यात होता था, जिनका इस्तेमाल विभिन्न उद्योगों में होता था। वर्ष 1960 में दक्षिण कोरिया का निर्यात सिर्फ 3.28 करोड़ डॉलर का था जो 1977 में 10 अरब डॉलर हो गया। स्टैटिस्टा के मुताबिक 2023 में इसने 632 अरब डॉलर का निर्यात किया। 

दक्षिण कोरिया को शीत युद्ध का भी फायदा मिला। कम्युनिस्ट खेमे में जाने से रोकने के लिए अमेरिका ने सैनिक और तकनीकी मदद तो की ही, वैश्विक संस्थानों ने भी खुले हाथों से कर्ज दिया। कोरिया युद्ध के समय अमेरिका ने वहां अपना सैनिक अड्डा बना रखा था। 1970 के दशक में दक्षिण कोरिया का 20% निर्यात वियतनाम तथा आसपास के देशों में मौजूद अमेरिकी सैनिकों को होता था।

संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन (UNIDO) ने ब्लूमबर्ग इनोवेशन इंडेक्स का हवाला देते हुए लिखा है कि दक्षिण कोरिया में आरएंडडी पर फोकस का श्रेय मेकैनिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर ह्युई जाए पाक (Heui Jae Pahk) को जाता है। वे कोरिया के व्यापार, उद्योग और ऊर्जा मंत्रालय में स्ट्रैटजिक आरएंडडी प्लानिंग कार्यालय के प्रेसिडेंट थे। उनका कहना था कि विकासशील और विकसित, दोनों देशों में आर्थिक और औद्योगिक विकास का वाहक आरएंडडी ही है। वे मिडल इनकम ट्रैप (ग्लोबल वैल्यू चेन में निचले स्तर पर फंस कर रह जाना) से बचने के लिए भी इसे जरूरी मानते थे। उनका कहना था, मध्य आय वर्ग के देशों को आधुनिक इंडस्ट्री और स्किल्ड जॉब की जरूरत है जबकि उच्च मध्य आय वर्ग के देशों को टेक्नोलॉजी-इंटेंसिव इंडस्ट्री चाहिए। 

विकासशील देशों के लिए प्रो. पाक का सुझाव था, “शुरू में सरकार के नेतृत्व में आरएंडडी प्रभावी होता है, लेकिन विकास की गति बढ़ने पर निजी क्षेत्र को इसमें आगे आना चाहिए। कोई इनोवेशन अलग-थलग रहकर सफल नहीं हो सकता। टेक्नोलॉजी का अपने आप में कोई महत्व नहीं है। अगर उसका कोई बाजार नहीं तो वह बेकार है। अकादमिक, सरकार और निजी क्षेत्र के बीच समन्वय जरूरी है। विकसित देशों के साथ भी समन्वय होना चाहिए।”

नवंबर 1997 में दक्षिण कोरिया को विदेशी मुद्रा संकट का सामना करना पड़ा और आईएमएफ से बेलआउट की नौबत आ गई। तब करीब 35 लाख कोरिया वासियों ने 227 टन सोना इकट्ठा किया और आईएमएफ का कर्ज लौटाने में सरकार की मदद की। सिर्फ दो साल में कोरिया ने खोई प्रतिष्ठा दोबारा हासिल कर ली।

चीनः उत्पादकता ने निभाई बड़ी भूमिका

चीन में आर्थिक सुधारों की शुरुआत 1978 में हुई। ग्रामीण उद्योगों और निजी बिजनेस को बढ़ावा दिया गया। विदेश व्यापार और निवेश के नियम आसान बनाए गए। बाजार को अनेक वस्तुओं की कीमतें तय करने की छूट दी गई। औद्योगिक उत्पादन के साथ वर्कफोर्स को शिक्षित बनाने में निवेश किया गया। 1978 से पहले चीन की सालाना औसत ग्रोथ रेट 6% के आसपास रहती थी, उदारीकरण के बाद यह 9% से अधिक रहने लगी। ऐसे साल भी बीते जब ग्रोथ रेट 13% पहुंच गई थी।

ओ.पी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर और चीनी मामलों की जानकार डॉ. गुंजन सिंह बताती हैं, “1966 से 1976 तक चीन की अर्थव्यवस्था बड़ी खराब हालत में थी। माओ की मौत के एक साल बाद तक लड़ाई चली। 1978 में आधिकारिक रूप से आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई, लेकिन उसे गति पकड़ने में एक दो साल लगे। उसके बाद लोगों की प्रति व्यक्ति आय काफी तेजी से बढ़ी।”

उस समय का श्रमिक वर्ग सांस्कृतिक क्रांति के दौर से आया था। उनकी उच्च शिक्षा बिल्कुल नहीं हो पाई थी क्योंकि लगभग 10 साल तक स्कूल-कॉलेज बंद थे। लोग लंबे समय तक शिविरों में रहे। शिक्षा न होने के कारण उन्हें छोटा-बड़ा कोई भी काम करने में परेशानी नहीं थी।

गुंजन के अनुसार, “चीन में आर्थिक सुधार के साथ प्रांतीय नेताओं को काफी आजादी दी गई। एक तरह से ट्रायल एंड एरर का तरीका अपनाया गया। राज्यों के स्तर पर जो पॉलिसी सफल हुई, उनको राष्ट्रीय स्तर पर अपनाया गया। इससे पता चला कि कौन सी इंडस्ट्री चीन के लिए काम कर रही है।”

आईएमएफ ने एक अध्ययन में पाया कि चीन की तेज विकास दर में श्रमिकों की उत्पादकता ने भी बड़ी भूमिका निभाई। वर्ष 1953 से 1978 तक चीन में श्रमिकों की प्रोडक्टिविटी सालाना 1.1% की दर से बढ़ी, लेकिन 1979 से 1994 के दौरान यह हर साल 3.9% बढ़ी। वर्ष 1979 से 1994 तक 15 वर्षों में चीन की ग्रोथ में 42% योगदान प्रोडक्टिविटी बढ़ने का था। तुलनात्मक रूप से अमेरिका की प्रोडक्टिविटी वृद्धि दर 1960 से 1989 तक 0.4% थी।

1978 से पहले चीन की ग्रोथ में कैपिटल फॉर्मेशन का हिस्सा 65%, मजदूर का 17% और बाकी प्रोडक्टिविटी का रहता था। बाद में प्रोडक्टिविटी का हिस्सा 50% से अधिक हो गया। प्रोडक्टिविटी आधारित ग्रोथ ज्यादा सस्टेनेबल होती है। 1978 से पहले हर पांच में से चार, यानी 80% चीनी नागरिक खेती में काम करते थे, लेकिन 1994 में यह अनुपात घट कर 50% पर आ गया। आर्थिक सुधारों के बाद ग्रामीण इलाकों में गैर-कृषि बिजनेस तेजी से बढ़ा। ग्रामीण उद्योगों के उभरने से करोड़ों कृषि मजदूर मैन्युफैक्चरिंग में गए।

गुंजन के अनुसार, “उन दिनों वहां कम्यून सिस्टम हुआ करता था। किसान मुनाफे पर अपनी उपज नहीं बेच सकते थे। उपज सरकार की मानी जाती थी। कृषि मजदूरों को खाना, शिक्षा आदि सरकार मुहैया कराती थी। कृषि मजदूरों को वेतन नहीं मिलता था, लेकिन सरकार उनकी सभी बुनियादी जरूरतें पूरी करती थी। आर्थिक सुधारों के बाद किसानों को उपज का एक हिस्सा सरकार को देना था, बाकी वे मुनाफे पर बाजार में बेच सकते थे। इस तरह कृषि भी मुनाफे का काम हो गया। कम्यून व्यवस्था में यह निश्चित होता था कि कौन सी फसल उगाई जाएगी। किसान अलग फसल नहीं उगा सकते थे। नई व्यवस्था में किसानों को इससे भी छूट मिली। उन्होंने डायवर्सिफाई किया और जिस फसल में मुनाफा दिखा उसकी खेती करने लगे।”

कृषि में मुनाफा होने और कम्यून व्यवस्था भंग होने से अतिरिक्त लेबर फोर्स सामने आई। वह लेबर फोर्स शहरों में काम करने के लिए उपलब्ध थी। महिलाएं भी बड़ी संख्या में सर्विस सेक्टर में आईं जो पहले कृषि क्षेत्र में थीं। गुंजन बताती हैं, “उसके बाद वहां तीन-चार स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाए गए। जब वे प्रॉफिटेबल हुए तो ऐसे और जोन विकसित किए गए। विदेशी निवेशकों को वहां पैसा लगाने की अनुमति थी। उन्हें टैक्स में छूट देने के साथ सरकार की तरफ से अन्य सुविधाएं दी गईं। इस तरह वे इलाके एफडीआई के लिए आकर्षक हो गए।”

विदेशी पूंजी आने से नई फैक्ट्रियां लगीं, नौकरियों का सृजन हुआ, चीन अंतरराष्ट्रीय बाजार से जुड़ा और उसे विदेशी टेक्नोलॉजी भी मिली। आर्थिक उदारीकरण से चीन के निर्यात में भी तीव्र बढ़ोतरी हुई। 1981 से 1994 के दौरान निर्यात सालाना 19% की दर से बढ़ा। दिसंबर 2001 में वह डब्लूटीओ का सदस्य बना तो निर्यात और बढ़ने लगा।

गुंजन के मुताबिक, “चीन ने ज्वाइंट वेंचर का मॉडल भी बनाया। उसने कहा कि जो विदेशी कंपनी यहां मैन्युफैक्चरिंग करना चाहती है उसे किसी चाइनीज कंपनी के साथ साझा उपक्रम बनाना पड़ेगा। इससे चीनी कंपनियों को टेक्नोलॉजी ट्रांसफर हुआ। धीरे-धीरे वहां के मजदूर भी स्किल्ड होते जा रहे थे। इस तरह चीन ने सुनियोजित तरीके से अपनी इकोनॉमी को खोला।”

वे कहती हैं, “चीन को एक पार्टी की व्यवस्था होने का भी फायदा मिला। सरकार ने जो तय कर दिया उसे मानना सबके लिए जरूरी है। अगर सरकार कहती है कि पैसे कम मिलने पर भी ज्यादा काम करना है, तो लोगों को करना पड़ेगा। वे इसका विरोध नहीं कर सकते।”

ग्लोबल रिसर्च फर्म नेटिक्सिस की चीफ इकोनॉमिस्ट (एशिया पैसिफिक) एलिसिया गार्सिया हेरेरो भारत से तुलना करती हुई कहती हैं, “1950 के आसपास भारत और चीन की इकोनॉमी लगभग समान थीं। उसके बाद कई दशकों तक चीन की अर्थव्यवस्था भारत की तुलना में बहुत अच्छी स्थिति में नहीं थी। लेकिन उसके बाद चीन ने काफी उदारवादी नीतियां अपनाईं, जबकि भारत की इकोनॉमी काफी हद तक नियंत्रित थी। चीन के बैंक हों या कंपनियां, वे रोजगार का सृजन कर रही थीं। चीन ने बहुत पहले अपने संसाधनों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।”

क्या भारत को चीन का मॉडल अपनाना चाहिए, इस सवाल पर एलिसिया कहती हैं, “यह जरूरी नहीं। दोनों देशों की राजनीतिक व्यवस्था अलग है। चीन में एक पार्टी की सरकार है, ऑटोक्रेसी है, इसलिए वहां किसी भी फैसले को लागू करवाना आसान होता है। भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली है, यहां सबको साथ लेकर चलना पड़ता है।”