प्राइम टीम, नई दिल्ली। भारत अभी निम्न-मध्य आय वर्ग का देश है और इसका सपना एक समृद्ध और विकसित देश बनना है। समावेशी विकास इस मंजिल तक पहुंचने का सबसे अच्छा तरीका हो सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार विकास समाज के हर वर्ग, गांव-शहर और छोटे-बड़े उद्योग सबके लिए होना चाहिए। इसके बिना विकास स्थायी नहीं होगा। शुरुआत क्वालिटी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं से करनी पड़ेगी, क्योंकि अशिक्षित और अस्वस्थ समाज विकसित राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकता। कृषि में लगी देश की 45% वर्कफोर्स को कम करने के लिए उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत है। इस वर्कफोर्स को खपाने के लिए इकोनॉमी में संगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ानी पड़ेगी और मैन्युफैक्चरिंग एमएसएमई को बढ़ावा देना होगा। प्रोडक्टिविटी और रोजगार बढ़ाने में स्टार्टअप की क्षमता को देखते हुए उन पर फोकस भी जरूरी है। युवा आबादी के कारण भारत अभी डेमोग्राफिक डिविडेंड की स्थिति में है, लेकिन सिर्फ 51% वर्कफोर्स एंप्लॉयबल है। इसलिए स्किल डेवलपमेंट अहम हो जाता है। ‘विकसित’ श्रेणी में जाने के लिए प्रति व्यक्ति आय के साथ ह्यूमन डेवलपमेंट के तमाम मानकों में छलांग लगानी पड़ेगी। इन उपायों से मजबूत मध्य वर्ग तैयार होगा जो किसी भी देश को विकसित बनाने के लिए जरूरी है। लेकिन जैसा कि नीति आयोग ने ‘विजन फॉर विकसित भारत @ 2047 एन अप्रोच पेपर’ में लिखा है, बड़ी चुनौती मिडल इनकम ट्रैप से बचने की है। इस ट्रैप में फंसने के कारण अनेक देश मध्य आय वर्ग से उच्च आय वर्ग में नहीं जा सके। पिछले 70 वर्षों के दौरान मुश्किल से एक दर्जन मध्य आय वर्ग के देश विकसित श्रेणी में जाने में सफल हुए हैं।

नीति आयोग ने विकसित भारत की एक परिकल्पना भी दी है। उस भारत में प्रति व्यक्ति आय उच्च आय वर्ग के देशों के बराबर होगी, सामाजिक, सांस्कृतिक और संस्थागत विशेषताएं विकसित देशों के समान होंगी, हर नागरिक के लिए अच्छी क्वालिटी के घर, बिजली-पानी की 24 घंटे सप्लाई, हाई स्पीड ब्रॉडबैंड और बैंकिंग सुविधा, विश्वस्तरीय और अफोर्डेबल स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच और सबके लिए अर्थपूर्ण शिक्षा उपलब्ध होगी।

आयोग के अनुसार विकसित भारत में रोजगार और उद्यमिता के अनेक अवसर होंगे, अत्याधुनिक इंफ्रास्ट्रक्चर होगा, इकोनॉमी वैश्विक प्रतिभाओं, व्यापार और पूंजी को आकर्षित करने वाली होगी, मैन्युफैक्चरिंग, सर्विसेज, कृषि, रिसर्च और डेवलपमेंट तथा इनोवेशन में भारतीय कंपनियां चैंपियन होंगी। गांवों का जीवन स्तर शहरों के बराबर होगा और ग्रामीणों की औसत आय देश की प्रति व्यक्ति आय के समान होगी।

आमदनी का पैमाना

आयोग के मुताबिक, विकसित देश बनने के लिए 2047 तक भारत की इकोनॉमी का आकार 30 ट्रिलियन डॉलर और प्रति व्यक्ति जीडीपी 18,220 डॉलर होनी चाहिए। अभी इकोनॉमी 3.36 ट्रिलियन डॉलर और प्रति व्यक्ति आय 2392 डॉलर है। इस हिसाब से इकोनॉमी का आकार 9 गुना और प्रति व्यक्ति आय 8 गुना करने की जरूरत है। मध्य आय से उच्च आय वर्ग में जाने के लिए 20 से 30 वर्षों तक हर साल 7% से 10% ग्रोथ चाहिए।

किसी देश के विकसित होने का प्रमुख पैमाना है प्रति व्यक्ति आय। इस पैमाने पर वर्ल्ड बैंक देशों को चार श्रेणी में बांटता है। 1 जुलाई 2024 से लागू नए पैमाने के मुताबिक प्रति व्यक्ति सालाना 1145 डॉलर तक सकल राष्ट्रीय आय (जीएनआई) वाले देश निम्न, 1146 से 4515 डॉलर वाले निम्न मध्य, 4516 से 14005 डॉलर वाले उच्च मध्य और 14005 डॉलर से अधिक आय वाले देश उच्च वर्ग में आते हैं। वर्ल्ड बैंक के अनुसार 2023 में भारत की प्रति व्यक्ति जीएनआई 2540 डॉलर थी। इस लिहाज से यह अभी निम्न मध्य आय वर्ग में है। वर्ल्ड बैंक इस पैमाने में हर साल संशोधन करता है, जिसमें आय की सीमा बढ़ती जाती है।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) अपने वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक में विकसित (एडवांस), उभरते (इमर्जिंग) और विकासशील (डेवलपिंग) देशों में अंतर के लिए प्रति व्यक्ति आय के अलावा दो और पैमाने रखता है। पहला है निर्यात में विविधता। तेल निर्यातक देशों की प्रति व्यक्ति आय अधिक होने पर भी वे एडवांस देशों की श्रेणी में नहीं आते, क्योंकि उनका 70% से ज्यादा निर्यात तेल का ही होता है। दूसरा है ग्लोबल फाइनेंशियल सिस्टम के साथ जुड़ाव।

शिक्षा और स्वास्थ्य को प्राथमिकता

समावेशी विकास सिर्फ आर्थिक विकास नहीं है। यह भी जरूरी है कि देश का नागरिक कितना स्वस्थ और शिक्षित है। जेएनयू के रिटायर्ड प्रोफेसर और अर्थशास्त्री अरुण कुमार कहते हैं, “हमें शिक्षा का स्तर सुधारना पड़ेगा। एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ASER) बताती है कि 14 से 18 साल की उम्र के 40% बच्चे दूसरी कक्षा की पढ़ाई नहीं कर सकते। मेरा मानना है कि 95% बच्चों की शिक्षा ऐसी नहीं कि वे वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बन सकें।”

ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के जिंदल स्कूल ऑफ गवर्मेंट एंड पब्लिक पॉलिसी में इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर डॉ. अवनींद्र नाथ ठाकुर के अनुसार, “शिक्षा से बहुत सी चीजें सुधर जाती हैं। कानून व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था और प्रोडक्टिविटी बेहतर होती है।” इसमें सरकार की भूमिका को अहम मानते हुए वे कहते हैं, “भारत की तुलना में अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय 32 गुना है। इसके बावजूद वहां शिक्षा और स्वास्थ्य पर जीडीपी की तुलना में खर्च भारत से ज्यादा है। वहां बजट का 6% शिक्षा पर और 3% स्वास्थ्य पर खर्च होता है। यूरोपीय और स्कैंडिनेवियाई देशों में यह अनुपात और अधिक है।” भारत में यह दो से तीन प्रतिशत है।

उनके मुताबिक, 70% से 80% लोगों की हालत ऐसी नहीं कि वे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सकें। इसका मतलब है कि हम इतनी बड़ी आबादी की पूरी क्षमता का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। शिक्षा के लिए टाइम फ्रेम बहुत छोटा होता है, लगभग 15 साल। अगर इन वर्षों में बच्चों को शिक्षित नहीं किया तो वह पूरी पीढ़ी लायबिलिटी बन जाएगी।

ठाकुर कहते हैं, “सबसे बड़ी चुनौती क्वालिटी हेल्थ और एजुकेशन की है। अगर हमने तत्काल कदम नहीं उठाए और निवेश नहीं किया तो युवा पीढ़ी को एसेट में बदलना मुश्किल हो जाएगा।” उनके मुताबिक, भारत में स्वास्थ्य पर निजी खर्च (आउट ऑफ पॉकेट) बहुत ज्यादा है। निम्न और मध्य आय वर्ग आमदनी का बड़ा हिस्सा शिक्षा और सेहत पर खर्च करेगा तो उसके पास बाकी निवेश के लिए पैसे नहीं बचेंगे। इन खर्चों की वजह से लोग ‘लो इनकम लो इन्वेस्टमेंट ट्रैप’ में फंस जाते हैं।

क्वालिटी शिक्षा का महत्व बताते हुए दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के पूर्व प्रमुख सीनियर प्रोफेसर सुरेंद्र कुमार कहते हैं, “हमने यूनिवर्सिटी तो बहुत सारी खोल दी हैं, इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज भी अनेक हो गए हैं, लेकिन अच्छी रेटिंग वाले संस्थान कितने हैं? आईआईटी-आईआईएम में भी जो पुराने हैं, उनका ही नाम आता है। हमने एम्स खोले तो बहुत, लेकिन नाम सिर्फ दिल्ली एम्स का होता है। अनेक जगहों पर तो फैसिलिटी और फैकल्टी का अभाव है।”

ठाकुर के अनुसार, ज्यादातर देशों में स्किल से जुड़ी जो भी क्रांति हुई उसमें सरकारी संस्थानों से निकले लोगों का योगदान बड़ा था। सरकारी संस्थान या मदद नहीं होने पर यह अवसर संभ्रांत लोगों तक सीमित हो जाएगा। निचले 70% लोग उस अवसर का लाभ उठाने से चूक जाएंगे। इसलिए हमें ऐसी नीति अपनानी पड़ेगी जिससे हर वर्ग की प्रतिभा को सामने लाकर उसका इस्तेमाल किया जा सके।

डेमोग्राफिक डिविडेंड का लाभ कितना

वर्ष 2018-19 के इकोनॉमिक सर्वे के अनुसार भारत का डेमोग्राफिक डिविडेंड 2041 में शिखर पर होगा। उस समय की आबादी में कामकाजी उम्र वाले 20 से 59 साल के लोग 59% होंगे। नीति आयोग के मुताबिक, दुनिया की आबादी बूढ़ी हो रही है लेकिन भारत और अफ्रीका वर्किंग एज आबादी का स्रोत बनेंगे। कुल 144 करोड़ आबादी के साथ भारत दुनिया के सबसे युवा देशों में एक है। यहां की औसत आयु 29 साल है। करीब 50% आबादी 25 साल से कम उम्र की है। दुनिया के 20% युवा भारत में ही हैं। यह स्थिति 2047 तक रहने की उम्मीद है। दुनिया के सबसे ज्यादा स्टेम (STEM) ग्रेजुएट भारत में हैं। हर साल 20 लाख ऐसे ग्रेजुएट निकलते हैं जिनमें 43% महिलाएं होती हैं।

ग्लोबल कंसल्टेंसी फर्म ईवाई के अनुसार, विकसित देशों के साथ कुछ विकासशील देशों में भी लोगों की औसत उम्र बढ़ने के कारण भारत एडवांटेज की स्थिति में है। भारत की करीब 26% आबादी 14 साल से कम और 67% आबादी 15 से 64 साल की है। 65 साल या इससे अधिक के सिर्फ 7% लोग हैं। इसके विपरीत 65 साल से अधिक वाले अमेरिका में 17% और यूरोप में 21% हैं। ईवाई का आकलन है कि वर्ष 2030 तक भारत में कामकाजी उम्र वाली आबादी 104 करोड़ होगी। अगले एक दशक में दुनिया में आने वाली नई वर्कफोर्स में 24.3% भारतीय होंगे।

विशेषज्ञों के अनुसार, इस डिविडेंड का लाभ लेने में तीन प्रमुख चुनौतियां हैं- उच्छ शिक्षा उपलब्ध कराना, शिक्षित युवाओं को रोजगार देना और रोजगार के लायक स्किल उपलब्ध कराना। प्रो. सुरेंद्र कुमार कहते हैं, “प्रोडक्टिव रोजगार उपलब्ध नहीं कराएंगे तो वह वर्ग डिविडेंड के बजाय लायबिलिटी बन जाएगा। आज यही हो रहा है। हमें शिक्षा और रोजगार दोनों पर काम करना पड़ेगा।”

अभी इंडस्ट्री की जरूरत और उपलब्ध स्किल में काफी अंतर है। मैनपॉवर ग्रुप एंप्लॉयमेंट आउटलुक (2023) के अनुसार बेहतर प्रतिभा वाले श्रमिकों की भर्ती करना 79% उद्योगों के लिए चुनौती भरा था। भारत के पास कम स्किल वाली लेबर फोर्स की भरमार है। इसलिए विकास के एजेंडे में उनका ध्यान रखना जरूरी है।

प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, “डिविडेंड तभी होगा जब अच्छी शिक्षा और रोजगार होंगे, युवा प्रोडक्टिव होंगे, लेकिन भारत में युवाओं में बेरोजगारी दर सबसे ज्यादा है। अभी सबसे बड़ी समस्या तो यही है कि 95% युवाओं को अच्छी शिक्षा नहीं मिलती और शिक्षित युवाओं के सामने रोजगार की समस्या है। हम डेमोग्राफिक डिविडेंड के बजाय डेमोग्राफिक डिजास्टर की ओर बढ़ रहे हैं।” डॉ. अवनींद्र ठाकुर मानते हैं, “अगर हमने अभी इस अवसर को खोया तो शायद इसे हमेशा के लिए खो देंगे।”

डेमोग्राफी का फायदा मिलने का समय इसलिए भी सीमित है, क्योंकि भारत में आबादी बढ़ने की रफ्तार कम हो रही है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के मुताबिक प्रति महिला टीएफआर (एक महिला कितने बच्चों को जन्म देती है) 2.0 हो गई है, जो 2.1 की रिप्लेसमेंट दर से कम है। टीएफआर 2026-30 के दौरान 1.80 और 2031-35 के दौरान 1.72 रहने का अनुमान है। भारतीय नागरिकों की औसत उम्र 2021 में 28.4 साल थी, जो 2036 में 34.7 साल हो जाएगी। आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार, वर्ष 1971-81 के दौरान आबादी हर साल औसतन 2.5% बढ़ रही थी, जो 2011-16 के दौरान 1.3% रह गई। वर्ष 2031-41 में 0.5% से भी कम रह जाएगी। जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों में अभी यह दर है।

बदलना होगा इकोनॉमी का ढांचा

विकसित देशों में जीडीपी और रोजगार का बड़ा हिस्सा इंडस्ट्री से आता है। डॉ. अवनींद्र ठाकुर कहते हैं, “विकसित अर्थव्यवस्था में संगठित क्षेत्र सबसे बड़ा होता है। अमेरिका में 98%-99% संगठित क्षेत्र ही है, फ्रांस में तो कृषि भी संगठित है। असंगठित से संगठित में जाने का एक फायदा यह है कि हमें मालूम होता है कि इकोनॉमी की दशा-दिशा क्या है। हम उसी हिसाब से नीतियां बना सकते हैं और उसके असर को भी देख सकते हैं।”

आरबीआई के डिप्टी गवर्नर माइकल देबब्रत पात्रा ने पिछले दिनों एक भाषण में कहा, “भारत की 80% से ज्यादा वर्कफोर्स असंगठित क्षेत्र में है। भारत का भविष्य नौकरियों को संगठित बनाने में है। इस लिहाज से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की भूमिका केंद्रीय हो जाती है।” वर्ष 2021-22 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 2019-20 में जो नई वर्कफोर्स आई उनमें 98% असंगठित क्षेत्र में गई। वर्ष 2019-20 में 89% वर्कफोर्स असंगठित क्षेत्र में थी।

एक और समस्या है कि इंडस्ट्री जिस रफ्तार से बढ़ रही है, रोजगार उस रफ्तार से भी नहीं बढ़ रहे क्योंकि ज्यादातर इंडस्ट्री कैपिटल इंटेंसिव हो रही हैं। प्रो. सुरेंद्र इसे स्ट्रक्चरल बदलाव से जोड़ कर देखते हैं। ग्रॉस वैल्यू एडेड (जीवीए) में कृषि का हिस्सा 1990-91 में 33.91% था, जो 2018-19 में घट कर 19.77% पर आ गया। रोजगार में कृषि की हिस्सेदारी भी 63.30% से घट कर 41.67% पर आ गई। लेकिन कृषि में रोजगार में आई गिरावट मैन्युफैक्चरिंग में नहीं खपी। रोजगार में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 10.68% से मामूली बढ़ कर 11.16% ही हुआ। यही नहीं, जीवीए में इंडस्ट्री का हिस्सा 19.60% से घट कर 16.35% रह गया। टेक्नोलॉजी के विकास के साथ ज्यादा पूंजी निवेश और हाई स्किल वाले कर्मचारियों की मांग बढ़ी, लेकिन कुल श्रम बल की मांग घटी।

एंप्लॉयबिलिटी बढ़ाना जरूरी

एसएंडपी ग्लोबल मार्केट इंटेलिजेंस के मुताबिक विशाल वर्कफोर्स भारत को ग्लोबल डिजाइन और मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने में मदद कर सकती है। लेकिन इसके लिए श्रमिकों की स्किलिंग क्षमता बढ़ाने की जरूरत है। देबब्रत पात्रा के अनुसार, “भारत के लिए चुनौती यह है कि सिर्फ 51% वर्कफोर्स एंप्लॉयबल है। स्किल बढ़ाने की बड़ी जरूरत है, ताकि स्किल गैप कम हो और एंप्लॉयबिलिटी बढ़ाई जा सके।” पात्रा के अनुसार, “शिक्षित लेबर फोर्स का योगदान तभी श्रेष्ठ होता है जब इन्फ्रास्ट्रक्चर भी उच्च क्वालिटी का हो। भारत में प्रति व्यक्ति इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश की दर 2020 में 90.6 डॉलर थी। विश्व स्तरीय बनने के लिए इन्फ्रा में निवेश वृद्धि दर 3.5% से बढ़ा कर कम से कम 6% करने की जरूरत है।”

एसएंडपी ने कहा है कि एआई और रोबोटिक्स जैसी नई टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में स्किलिंग पर फोकस होना चाहिए। स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर करने और बढ़ाने की जरूरत है ताकि लोग ज्यादा उम्र तक काम कर सकें। शिक्षा, स्किलिंग, सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण तथा स्वच्छता जैसे बेहतर सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर से ज्यादा प्रोडक्टिव वर्कफोर्स तैयार होगी।

स्किल गैप दूर करने के लिए उच्च शिक्षा अहम है। डॉ. ठाकुर कहते हैं, “आज जो स्किल डिमांड में है कल उसकी जरूरत कम हो जाएगी, उसकी जगह मशीन ले लेगी। इसलिए उच्च शिक्षा बहुत जरूरी है। लोगों को इस लायक बनाना पड़ेगा कि वे कोई भी नया स्किल हासिल कर सकें।”

प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, अगले कुछ वर्षों के दौरान युवाओं की संख्या काफी तेजी से बढ़ेगी। लेकिन दूसरी ओर, चैट जीपीटी जैसे टूल के एडवांस लेवल आने पर बहुत से स्किल्ड जॉब भी खत्म हो जाएंगे। वे सवाल करते हैं, “अभी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल शुरू हुआ है तब बेरोजगारी की यह हालत है, तो आगे चलकर जब मशीनों की भूमिका बढ़ेगी तब क्या होगा?”

अधिक उत्पादकता से बढ़ेगी किसानों की आय

छोटी होती जोत किसानों की आय बढ़ाने में बड़ी बाधा है। वर्ष 2010-11 में दो हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसान 84.9% थे, और कृषि जनगणना 2015-16 में ऐसे किसानों का अनुपात बढ़ कर 86.1% हो गया। वर्ष 2019 के नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) के अनुसार दो हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसान परिवार 89.4% हो गए।

किसान संगठन भारत कृषक समाज के चेयरमैन अजय वीर जाखड़ का मानना है कि उत्पादकता बढ़ाने के लिए कृषि रिसर्च में निवेश दोगुना करना पड़ेगा। वे बताते हैं, “कृषि रिसर्च में निवेश का 10 गुना रिटर्न मिलता है। सरकार एक रुपया लगाती है तो देश को 10 रुपये का रिटर्न मिलता है। लेकिन पिछले 20 वर्षों में कृषि में 90% मौकों पर आरएंडडी पर खर्च में हुई वृद्धि महंगाई दर से कम रही है। यानी खर्च वास्तव में घटा है। यह खर्च कम से कम दोगुना करना पड़ेगा, तभी प्रोडक्टिविटी बढ़ेगी।”

कंसल्टिंग फर्म ईवाई के पार्टनर और कृषि मामलों के प्रमुख सत्यम शिवम सुंदरम उत्पादकता बढ़ाने के लिए इनपुट को बेहतर बनाना जरूरी मानते हैं। उनके मुताबिक, “इसमें बीज की क्वालिटी, सिंचाई में टेक्नोलॉजी लाना (जैसे माइक्रो इरिगेशन), प्रिसीजन खेती आदि शामिल हैं। हार्वेस्टिंग में भी नई टेक्नोलॉजी आ गई है जिनका प्रयोग बढ़ाने की जरूरत है।” उत्पादकता के साथ उपज का उचित स्टोरेज भी महत्वपूर्ण है। सत्यम के अनुसार, “प्याज, आलू जैसी चीज अगर हम स्टोरेज में रखते हैं तो वहां नमी का ध्यान रखना पड़ेगा। जिस इलाके में जो उपज ज्यादा होती है वहां उसके हिसाब से स्टोरेज का इंतजाम करना पड़ेगा।”

थिंक टैंक सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी (CSTEP) के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर डॉ. जय आसंदी के अनुसार, भारत की बड़ी आबादी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। जलवायु परिवर्तन, तापमान में वृद्धि और कुछ इलाकों में कम बारिश सचमुच हमारे लिए चुनौती बनेगी। यह न सिर्फ समावेशी विकास के लिए बल्कि हमारी खाद्य सुरक्षा के लिए भी गंभीर चुनौती है।

मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा बढ़ाना आवश्यक

दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रो. सुरेंद्र कुमार कहते हैं, “1960-70 के दशक में हम श्रम सघन टेक्सटाइल जैसे क्षेत्रों को डेवलप करने की बात करते थे। आज वह संभव नहीं है। टेक्नोलॉजी इतनी डेवलप हो गई है कि पुराने तरीके से आप प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। हमें एक तरफ सेमीकंडक्टर या डिफेंस जैसे आधुनिक क्षेत्र में जाना पड़ेगा, तो दूसरी तरफ फूड प्रोसेसिंग जैसी श्रम-सघन इंडस्ट्री को साथ लेकर चलना पड़ेगा।”

तमाम प्रयासों के बावजूद इकोनॉमी में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा नहीं बढ़ रहा है। डॉ. अवनींद्र ठाकुर बताते हैं, “उदारीकरण के बाद 1991 से अभी तक जीडीपी में इंडस्ट्री के हिस्से में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। यह 25% के आसपास बना हुआ है। इसमें मैन्युफैक्चरिंग लगभग 17% है।” 2011 में नेशनल मैन्युफैक्चरिंग पॉलिसी लाई गई। उसमें 10 साल में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा बढ़ाकर 25% करने का लक्ष्य रखा गया। लेकिन न तो जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा बढ़ा न वांछित नौकरियां पैदा हुईं।

यस बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री इंद्रनील पान के अनुसार, “सरकार को मैन्युफैक्चरिंग और कृषि, दोनों सेक्टर में रोजगार सृजन पर ध्यान देने की जरूरत है। मैन्युफैक्चरिंग में टेक्सटाइल और लेदर जैसे श्रम-सघन सेक्टर पर फोकस करने की आवश्यकता है।”

हाल में मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, स्किल इंडिया जैसी कई पहल हुईं और सप्लाई साइड को मजबूत करने की कोशिश की गई। कंपनियों के लिए कर्ज लेना आसान किया गया, इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत करने की दिशा में भी कदम उठाए गए। सवाल उठता है कि इतने प्रयासों के बावजूद वांछित सफलता क्यों नहीं मिल रही है। प्रो. ठाकुर के विचार से एक बड़ा कारण यह है कि भारत की मैन्युफैक्चरिंग पॉलिसी में डिमांड साइड की पूरी अनदेखी की जा रही है। कोई उद्योग बढ़ता है तो उसके दो बाजार होते हैं- घरेलू और अंतरराष्ट्रीय। चीन को देखें तो वहां की इंडस्ट्री घरेलू के साथ अंतरराष्ट्रीय बाजार को भी बड़े पैमाने पर सप्लाई करती है। भारत के साथ समस्या यह है कि यहां न तो घरेलू डिमांड इतनी है कि इंडस्ट्री के विस्तार को सपोर्ट कर सके, न ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में यह इतना प्रतिस्पर्धी है कि चीन, वियतनाम, बांग्लादेश, मलेशिया जैसे देशों से मुकाबला कर सके।

मैन्युफैक्चरिंग टेक्नोलॉजी में भारत काफी हद तक आयात पर निर्भर है। प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, “टेक्नोलॉजी की कमी का भी नुकसान हो रहा है। हमने दक्षिण कोरिया के साथ एफटीए किया लेकिन उसका हमें ही नुकसान हुआ। उनका माल तो यहां बिक जाता है, हमारा माल वहां नहीं बिकता क्योंकि हमारे पास वैसी टेक्नोलॉजी नहीं होती है।”

टेक्नोलॉजी के महत्व पर ग्लोबल रिसर्च फर्म नेटिक्सिस की चीफ इकोनॉमिस्ट (एशिया पैसिफिक) एलिसिया गार्सिया हेरेरो कहती हैं, “पेटेंट के मामले में चीन, यूरोपियन यूनियन या अमेरिका से तुलना करें तो भारत को अभी लंबा सफर तय करना है। मेरे विचार से इनोवेशन में छलांग लगाने के लिए भारत को गठजोड़ करने की जरूरत है, खास कर अमेरिका के साथ। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में अमेरिका के साथ गठजोड़ के अलावा वैज्ञानिक सहयोग और आदान-प्रदान भारत के लिए अहम हो सकता है।”

वे बताती हैं, “चीन ने अपनी इकोनॉमी खोलने के साथ आयात शुल्क भी भारत की तुलना में बहुत कम रखा था। उसने महसूस किया कि इनपुट सस्ता होने पर ही वह मैन्युफैक्चरिंग ताकत बन सकता है। इससे चीन में उत्पादन लागत कम हो गई। श्रम भी सस्ता था। सप्लाई चेन बनने की शुरुआत में यह बात बहुत मायने रखती है।” इसलिए उनकी राय में “आयात शुल्क तत्काल कम करने की जरूरत है। अभी भारतीय कंपनियों के लिए दूसरे देशों से इंटरमीडिएट गुड्स आयात करना बहुत महंगा पड़ता है।”

अच्छी बात है कि इस दिशा में प्रयास शुरू हो गए हैं। ब्रिटिश पॉलिसी इंस्टीट्यूट चैथम हाउस के सीनियर रिसर्च फेलो डेविड लुबिन के अनुसार, सरकार मैन्युफैक्चरिंग पर फोकस कर रही है। 14 चुनिंदा सेक्टर के लिए 1.97 लाख करोड़ रुपये की पीएलआई स्कीम लाई गई है। सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री के लिए अलग से 76000 करोड़ रुपये की योजना है। इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश भी मैन्युफैक्चरिंग के प्रति सरकार की गंभीरता को दर्शाता है। केंद्र सरकार का पूंजीगत खर्च 2015 में जीडीपी का 1.5% था, जो अब 3.2% हो गया है।

आरबीआई के पात्रा का कहना है, 1990 से मैन्युफैक्चरिंग की औसत ग्रोथ 7% रही है। वर्ष 2030-31 तक जीवीए में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 20% करने के लिए सालाना 8.5% ग्रोथ चाहिए। इसका हिस्सा 25% करने के लिए हर साल मैन्युफैक्चरिंग का योगदान 12.5% बढ़ाना पड़ेगा। इसके लिए चौथी औद्योगिक क्रांति (ऑटोमेशन, डेटा एक्सचेंज, साइबर सिस्टम, आईओटी, क्लाउड कंप्यूटिंग, स्मार्ट फैक्टरी, एडवांस रोबोटिक्स) को अपनाना पड़ेगा। इसमें स्किल्ड लेबर फोर्स की भूमिका बड़ी होगी।

एमएसएमई बन सकते हैं बड़ा माध्यम

एमएसएमई मंत्रालय की तरफ से दिसंबर 2023 में राज्यसभा में दी गई जानकारी के अनुसार जीडीपी में इनकी 29%, मैन्युफैक्चरिंग में 41% और निर्यात में 45% हिस्सेदारी है। मंत्रालय के उद्यम पोर्टल पर (13 अगस्त 2024 तक) 4.87 करोड़ एमएसएमई रजिस्टर्ड हैं जिनमें करीब 20 करोड़ लोग काम करते हैं। रजिस्टर्ड उद्यमों में 67,838 मझोले आकार वाले हैं।

समावेशी विकास के रास्ते भारत को विकसित देश बनाने में छोटे-मझोले उद्योगों (एमएसएमई) की अहम भूमिका है। विशेषज्ञों के अनुसार सस्ते इनोवेशन का हब बन कर ये मैन्युफैक्चरिंग निर्यात में भारत की भागीदारी बढ़ा सकते हैं। ग्रामीण इलाकों में इकाइयां लगने से माइग्रेशन कम होगा, इकोनॉमी संतुलित होगी और वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी। लेकिन यह सब हासिल करने के लिए कुछ चुनौतियों से निपटना जरूरी है।

छोटे-मझोले उद्योगों की संस्था फिस्मे (FISME) के सेक्रेटरी जनरल अनिल भारद्वाज के अनुसार, “समस्या यह है कि भारत में ज्यादातर आंत्रप्रेन्योरशिप पसंद से नहीं, बल्कि थोपी गई है। नौकरी नहीं मिली तो लोग आजीविका के लिए कुछ न कुछ कर रहे हैं। हमें चॉइस आंत्रप्रेन्योरशिप में जाना पड़ेगा, यानी लोग अपनी पसंद से उद्यमी बनें।”

भारत में 6.4 करोड़ एमएसएमई होने के बावजूद बिजली का इंडस्ट्रियल कनेक्शन पूरे देश में सिर्फ 35 लाख है। इसमें कोल्ड स्टोरेज, सिनेमा, मॉल आदि को निकाल दें तो करीब 30 लाख मैन्युफैक्चरिंग उद्यमी बचते हैं। भारद्वाज एक और तथ्य बताते हैं, “10 से ज्यादा कर्मचारी वाले उद्योगों की संख्या सिर्फ 2.5 लाख है। इनमें सरकारी कंपनियां और कॉरपोरेट भी शामिल हैं। इन्हें हटा दें तो 10 से ज्यादा कर्मचारी वाली सिर्फ 2.25 लाख फैक्ट्रियां हैं।” भारत के आकार के लिहाज से यह संख्या बहुत कम है।

एमएसएमई के लिए 2024-25 के पूर्ण बजट में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। बैंक कर्ज लेने की असेसमेंट प्रक्रिया में क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की भूमिका खत्म कर दी गई है। स्पेशल मेंशन एकाउंट (एसएमए) कैटेगरी में आने वाले एमएसएमई के रिवाइवल में मदद के लिए फंड गठित करने की घोषणा की गई है। मुद्रा स्कीम में कर्ज की सीमा 10 लाख रुपये से बढ़ाकर 20 लाख रुपये कर दी गई है। सरकारी निजी साझेदारी (पीपीपी) मॉडल पर ई-कॉमर्स एक्सपोर्ट हब बनाने की भी घोषणा है।

बढ़ता मध्य वर्ग बनेगा विकास का आधार

सशक्त मध्य वर्ग एक स्थायी उपभोक्ता आधार बनाता है जो निवेश को भी प्रोत्साहित करता है। निवेश से विकास को गति मिलती है। निजी निवेश के लिए पर्याप्त खपत होना भी जरूरी है, जो मध्य वर्ग से ही आती है। मशहूर ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कींस ने 1936 में अपनी किताब ‘द जनरल थ्योरी ऑफ एंप्लॉयमेंट, इंटरेस्ट एंड मनी’ में मध्य वर्ग और आर्थिक विकास के बीच संबंधों के बारे में लिखा था कि निवेश बढ़ाने के लिए एक स्थायी मध्यवर्गीय खपत आवश्यक है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की एक रिपोर्ट के अनुसार 2027 तक भारत का मध्य वर्ग चीन, अमेरिका और यूरोप से भी बड़ा हो जाएगा। रिसर्चगेट का आकलन है कि 2035 तक दुनिया का हर चौथा मध्यवर्गीय उपभोक्ता भारतीय होगा।

हंसा रिसर्च कंजूमर सेल्स सर्वे के मुताबिक जब परिवार निम्न आय से मध्य आय वर्ग में जाते हैं तो उनकी खरीदारी की आदतें बदल जाती हैं। आमदनी बढ़ने पर परिवार अच्छी क्वालिटी के कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक्स और जूतों पर भी खर्च बढ़ाते हैं। यह ट्रेंड घरों की खरीद-बिक्री में भी दिख रहा है। प्रॉपर्टी कंसल्टेंसी फर्म एनारॉक के अनुसार 2024 की पहली छमाही में देश के सात प्रमुख शहरों में लांच हुए नए घरों में लक्जरी (1.5 करोड़ से अधिक) और प्रीमियम सेगमेंट (80 लाख-1.5 करोड़) ज्यादा रहे। कुल लांचिंग में इनका हिस्सा 28-28 प्रतिशत था। मिड सेगमेंट (40-80 लाख) वाले घर 26% थे और अफोर्डेबल (40 लाख से कम) घरों की संख्या सिर्फ 19% थी।

एसबीआई रिसर्च ने इनकम टैक्स रिटर्न फाइलिंग के आधार पर अगस्त 2023 में ‘द एसेंट ऑफ द न्यू मिडल क्लास’ रिपोर्ट जारी की। इसके मुताबिक आकलन वर्ष 2022-23 में लगभग 7.8 करोड़ रिटर्न फाइल हुए और 2046-47 में यह संख्या 48.2 करोड़ पहुंच जाने का अनुमान है। रिटर्न फाइल करने वालों की औसत आय (वेटेड मीन) आकलन वर्ष 2014 में 4.4 लाख थी जो अब 13 लाख हो गई है। 2047 में इसके 49.7 लाख हो जाने का अनुमान है।

रक्षाः अपनी टेक्नोलॉजी विकसित करने की जरूरत

किसी आर्थिक शक्ति के पास सैन्य शक्ति भी हो तो उसका दोहरा लाभ मिलता है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का कहना है कि अगर हम विकसित राष्ट्र बनाना चाहते हैं, तो हमें आधुनिक हथियारों और उपकरणों के साथ मजबूत सशस्त्र बलों की आवश्यकता होगी। हाल के वर्षों में भारत रक्षा सामग्री का निर्यातक बन कर भी उभरा है। वर्ष 2022 में हमने कुल 15,920 करोड़ रुपये के रक्षा उपकरणों का निर्यात किया, जो 2014 में 1941 करोड़ रुपये था।

रिटायर्ड लेफ्टिनेंट कर्नल जे.एस.सोढ़ी के अनुसार, रक्षा में दो बातें महत्वपूर्ण हैं, पहला रिसर्च और दूसरा स्टेम (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथ्स)। अगर हम डिफेंस सेक्टर में महाशक्ति बनना चाहते हैं तो रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर अधिक खर्च करना होगा। अभी हम हथियार बना रहे हैं लेकिन टेक्नोलॉजी बाहर की है। अगर आप खुद टेक्नोलॉजी विकसित करना चाहते हैं तो स्टेम में छात्रों की संख्या बढ़ानी होगी। इससे हमारे डिफेंस इंपोर्ट में कमी आएगी।” सिपरी (SIPRI) के अनुसार भारत दुनिया के शीर्ष हथियार आयातकों में है।

पारले पॉलिसी इनीशिएटिव के साउथ एशिया के सीनियर एडवाइजर नीरज सिंह मन्हास कहते हैं, “डिफेंस सेक्टर में संभावनाओं के साथ कई चुनौतियां भी हैं। भारत ने तकनीक के क्षेत्र में कई काम किए हैं। एआई, साइबर वारफेयर और स्पेस महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं जहां भारत को लगातार बेहतर करना है। इन सेक्टरों में लगातार नया कर भारत वैश्विक मंच पर अपनी पहचान मजबूत कर सकता है।”

स्टार्टअपः हर सेक्टर को गति देगा गति

वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के उद्योग संवर्धन और आंतरिक व्यापार विभाग ने अब तक 1.41 लाख स्टार्टअप को मान्यता दी है। स्टार्टअप इंडिया फैक्ट बुक के तथ्य बताते हैं कि ये दूर-दराज के इलाकों तक पहुंच कर समावेशी विकास को आगे बढ़ा रहे हैं। देश के 80% जिलों में कम से कम एक मान्यता प्राप्त स्टार्टअप है।

स्टार्टअप्स को कानून सलाह देने वाली अहमदाबाद की फर्म लीगलविज.इन के संस्थापक शृजय शेठ कहते हैं, “स्टार्टअप में दो बातें महत्वपूर्ण होती हैं- इनोवेशन और तेजी। बड़ी कंपनियां आम तौर पर स्थापित ट्रेड प्रैक्टिस का पालन करती हैं, इसलिए उन्हें अमल में समय लगता है। लेकिन स्टार्टअप विभिन्न समस्याओं का समाधान निकालने में सूक्ष्म दृष्टिकोण अपनाते हैं। इसलिए वे कम समय और कम खर्च में सॉल्यूशन निकाल सकते हैं।”

बड़ी कंपनियों की तुलना में स्टार्टअप तेज और एडेप्टेबल होते हैं। वे ऐसे इनोवेशन कर सकते हैं जो उनके ग्राहकों के कम बजट में फिट बैठे। वे ऐसा इनोवेशन भी करने में सक्षम होते हैं जिन्हें सीमित संसाधनों के बूते दूर-दराज के इलाकों में पहुंचाया जा सके। सॉफ्टवेयर ऐज ए सर्विस (SaaS) एक्सेलरेटर उपेक्खा के मैनेजिंग पार्टनर प्रसन्ना कृष्णमूर्ति के अनुसार, “भारत को स्केल के अगले स्तर तक पहुंचाने के लिए हमें अनेक कठिन चुनौतियों का समाधान तलाशना होगा। स्टार्टअप उन बाजारों में अधिक जाते हैं जहां खास सेवाओं की पहुंच नहीं है या कम है। ऐसे बाजारों में प्रवेश करना उनके लिए भी आसान होता है।”

देश में स्टार्टअप कल्चर विकसित करने में 16 जनवरी 2016 को शुरू की गई स्टार्टअप इंडिया पहल का योगदान अहम है। लेकिन देश को समृद्ध बनाने में इनकी संभावनाओं के पूर्ण दोहन के लिए कुछ चुनौतियों से निपटना भी जरूरी है। प्रसन्ना के अनुसार, “रेगुलेटरी सैंडबॉक्स (जहां स्टार्टअप अपने प्रोडक्ट की लाइव टेस्टिंग कर सकें) तक स्टार्टअप की पहुंच आसान हो, सरकारी/सरकारी कंपनियों की खरीद प्रक्रिया में उनके लिए उचित और आसान शर्तें रखी जाएं।”

पर्यावरण की चुनौतियों का रखना होगा ध्यान

ऊर्जा के मामले में भारत काफी हद तक आयात पर निर्भर है। जलवायु परिवर्तन नई चुनौती बन कर उभरा है। डब्ल्यूआरआई इंडिया की कार्यकारी निदेशक उल्का केलकर कहती हैं, “दुनिया का कोई भी देश एनर्जी के क्षेत्र में गरीब रहकर अमीर नहीं बना है। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन का जोखिम बढ़ेगा, पॉलिसी को भी उसके अनुकूल और डिसेंट्रलाइज्ड बनाना होगा। यहां तक कि न्यू एनर्जी इंफ्रास्ट्रक्चर या ट्रांसपोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर भी जलवायु परिवर्तन के कारण खतरे में होंगे।”

सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरनमेंट की निदेशक सुनीता नारायण का कहना है कि जैसे-जैसे जीवाश्म ईंधन कम होगा, कर राजस्व भी कम हो जाएगा। हमें ग्रीन एनर्जी से राजस्व उत्पन्न करने के नए तरीके तलाशने होंगे। उद्योग अपने कार्बन फुटप्रिंट को कम करने के लिए बहुत कुछ कर सकता है। लागत घटाने को जरूरी मानते हुए वे कहती हैं, “ग्रीन एनर्जी फाइनेंसिंग अब भी पिछड़ा हुआ है। हमें जिस परिवर्तन की जरूरत है उसे पूरा करने के लिए पूंजी की लागत अब भी बहुत ज्यादा है। आप रिन्यूबल एनर्जी प्रोजेक्ट को प्रैक्टिकल नहीं बना सकते।”

टेरी की डायरेक्टर जनरल डॉ. विभा धवन ने कहा, “कृषि में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। वहीं जलवायु परिवर्तन फसल चक्र और पैदावार को प्रभावित करता है। फसल पैटर्न में बदलाव का विकल्प खाद्य और पोषण सुरक्षा, भूमि और पानी की उपलब्धता, आजीविका और कृषि आय आदि पर निर्भर करता है। एकीकृत खेती को बढ़ावा, कृषि प्रबंधन प्रथाओं में बदलाव, जलवायु प्रतिरोधी और जलवायु अनुकूल फसलें टिकाऊ कृषि विकास में योगदान दे सकती हैं।”

नीति आयोग ने भी अपने अप्रोच पेपर में कुछ चुनौतियां बताई हैं। इसके मुताबिक, विकसित देश बनने के लिए हमें मैन्युफैक्चरिंग, लॉजिस्टिक्स और आरएंडडी में विश्वस्तरीय क्षमता विकसित करनी पड़ेगी। ग्लोबल लीडर बनने के लिए अपने मानदंड को और ऊपर ले जाना होगा। हम ऊर्जा के मामले में हम आयात पर काफी हद तक निर्भर हैं। दूसरी तरफ लोगों को कम कीमत पर ऊर्जा चाहिए। इसके साथ जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का भी ध्यान रखना है। लॉजिस्टिक्स और बिजली की लागत कम करने की जरूरत है, भारत को ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग और सर्विसेज हब बनाने के लिए कृषि में लगी वर्कफोर्स को इंडस्ट्री में लाना पड़ेगा, शहरी और ग्रामीण आय के बीच अंतर कम करके संतुलित क्षेत्रीय विकास को बढ़ावा देना होगा।

भारत की संभावनाओं और भावी जोखिमों के बारे में इसका कहना है, “दुनिया की आबादी बूढ़ी हो रही है लेकिन भारत और अफ्रीका वर्किंग एज आबादी का स्रोत बनेंगे। जियो-इकोनॉमिक लैंडस्केप पश्चिम से पूर्व की तरफ आ रहा है तो भू-राजनीतिक लैंडस्केप भी उत्तर से दक्षिण की तरफ बढ़ रहा है। वर्ष 2047 तक दुनिया की 50% जीडीपी एशिया से होगी। अंतरिक्ष, समुद्र और डेटा में सभी देशों की रुचि बढ़ रही है और इन तीनों क्षेत्रों में भारत मजबूती से आगे बढ़ रहा है। दूसरी तरफ दुनिया अधिक विभाजित हो रही है और आमदनी का अंतर बढ़ रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़, हीट वेव, दावानल और महामारी की घटनाएं भविष्य में बढ़ने की आशंका है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी तेजी से विकसित होने वाली टेक्नोलॉजी के भावी खतरे भी हैं जिनसे अभी हम अनजान हैं।”

भारत को इन चुनौतियों को ध्यान में रखकर ही आगे बढ़ना होगा। भारत की आजादी के 100 साल और डेमोग्राफिक डिविडेंड का चरम दोनों लगभग एक साथ आ रहे हैं। इसलिए भारत को 2047 तक विकसित बनाने का लक्ष्य हम चूक नहीं सकते।