नई दिल्ली, अनुराग मिश्र। आंग सन म्यांमार के 'राष्ट्रपिता' कहे जाते हैं। 1947 में उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही थी कि अगर बर्मा में यूनिटी इन डायवर्सिटी के साथ खेला गया तो हम ऐसी स्थिति में पहुंच जाएंगे जहां से हमारा निकलना मुश्किल हो जाएगा और बर्मा पूरी तरह से बर्बाद हो जाएगा। इस सलाह के विपरीत काम बर्मा की सेना ने किया और म्यांमार में तख्तापलट और अस्थिरता का दौर दिन-ब-दिन बढ़ता गया। फलस्वरूप जातीय संघर्ष तेज होते गए और आपसी लामबंदी ने एक जमाने में सबसे बड़े चावल निर्यातक देश को गुरबत में धकेल दिया। वहीं चीन ने म्यांमार की दरकती स्थिति का फायदा उठाया और उसका इस्तेमाल अपने फायदे के लिए किया। कुछ दिनों पहले आर्मी चीफ जनरल मनोज पांडेय ने कहा था कि इंडो-म्यांमार बॉर्डर पर स्थिति हमारी चिंता का विषय है। म्यामांर आर्मी और जातीय सशस्त्र संगठन और पीडीएफ की गतिविधियों पर हमारी नजर है। म्यांमार आर्मी के 416 लोग बॉर्डर पार कर आ चुके हैं। म्यामांर के कुछ नागरिक भी मिजोरम और मणिपुर में शरण लिए हुए हैं। इंडो-म्यांमार बॉर्डर के दूसरी तरफ कुछ उग्रवादी ग्रुप भी हैं जो दबाव महसूस कर रहे हैं और बॉर्डर पार कर मणिपुर में हमारी तरफ आने की कोशिश कर रहे हैं। हमने म्यांमार बॉर्डर पर अपनी तैनाती मजबूत की है। करीब 20 असम राइफल्स की बटालियन तैनात हैं। फेंस को और मजबूत करने को लेकर भी बात चल रही है।

म्यांमार में चल रहे इस संघर्ष ने चिंता बढ़ा दी है। वहीं, भारत के लिए ये और बड़ी चिंता की बात है। दरअसल, संघर्ष की वजह से म्यांमार से हजारों शरणार्थी पहले ही मिजोरम में आकर बस चुके हैं। फरवरी 2021 में सैन्य तख्तापलट के बाद से अब तक 31 हजार शरणार्थी आ चुके हैं। शरणार्थियों के आने से पूर्वोत्तर भारत में तनाव फैलने की आशंका है। म्यांमार के चिन जातीय समूह का मणिपुर के कुकी के साथ अच्छे संबंध हैं। वहीं, मणिपुर के मैतेई उग्रवादी संगठनों की म्यांमार में भी मौजूदगी है।

भारत के लिए चिंता की बात, बढ़ी शरणार्थियों की आमद

पार्ले पॉलिसी इनीशिएटिव के साउथ एशिया के स्पेशल एडवाइजर नीरज सिंह मन्हास कहते हैं कि म्यांमार में संकट का भारत पर उसकी तात्कालिक सुरक्षा और क्षेत्र में उसके बड़े रणनीतिक हितों दोनों के संदर्भ में काफी प्रभाव पड़ा है। संकट का सबसे सीधा प्रभाव म्यांमार के साथ भारत की सीमा पर सुरक्षा स्थिति पर पड़ा है। म्यांमार की सेना और जातीय विद्रोही समूहों के बीच हुई लड़ाई के परिणामस्वरूप सीमा पार हिंसा में वृद्धि हुई है, कुछ हमले भारतीय क्षेत्र में भी हुए हैं। उदाहरण के लिए, जनवरी 2024 में, म्यांमार में एक सशस्त्र जातीय अल्पसंख्यक समूह ने कहा है कि उसने बांग्लादेश और भारत के साथ सीमा के पास एक शहर और कई जुंटा चौकियों पर कब्जा कर लिया है, जो संकटग्रस्त सेना के लिए नवीनतम झटका है। इसके अतिरिक्त, स्थिति के परिणामस्वरूप, म्यांमार से भारत में शरणार्थियों की आमद हुई है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि तख्तापलट के बाद से 100,000 से अधिक लोग म्यांमार से भाग गए हैं, जिनमें से एक बड़ी संख्या भारत में शरण मांग रही है। शरणार्थियों की बाढ़ के परिणामस्वरूप भारत के संसाधनों पर दबाव पड़ा है, जिससे सुरक्षा और आतंकवाद पर देश की चिंताएं भी बढ़ गई हैं।

इंडो-पैसिफक जियोपॉलिटिक्स मामलों के जानकार आकाश साहू बताते हैं कि भारत की भूमिका इस लिहाज से महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि शरणार्थियों को उस पार भेजने के लिए लड़ाई जारी है। वहीं कभी-कभी म्यांमार के सैन्यकर्मी भी भारत की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं जिन्हें जल्द ही वापस भेज दिया जाता है। भारत के साथ सीमा साझा करने वाले राखीन राज्य में एक ईएओ अराकान आर्मी ने कब्जा कर लिया है। पलेतवा में भारत की मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर स्थिति है। बॉर्डर सिक्योरिटी और इंफ्रास्ट्रक्टर कॉर्पोरेशन को लेकर भारत ने केवल सैन्य सरकार के साथ ही आधिकारिक संबंध बनाए रखे हैं। हालांकि साझा सीमा क्षेत्र होने के कारण, कुछ ईएओ के साथ कामकाजी संबंध विकसित करने में फिलवक्त कोई हर्ज नहीं है।

लेफ्टिनेंट कर्नल जे.एस.सोढ़ी कहते हैं कि भारत के संदर्भ में देखें तो मणिपुर, मिजोरम का बॉर्डर पहाड़ियों वाला है और वहां पर घुसपैठ संभव है। लगातार म्यांमार में चल रहे ऑपरेशन में चीन की भूमिका है। आतंकवादी संगठनों को भारत में अस्थिरता पैदा करने के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। चीन हमेशा भारत में अस्थिरता चाहता है ऐसे में म्यांमार में अस्थिरता और भारत से साझा बॉर्डर का फायदा चीन उठाना चाहता है। इस पर भारत को सचेत रहना होगा।

म्यांमार की विफलता से पूर्व की ओर देखो नीति पर पड़ सकता है असर

नीरज सिंह कहते हैं कि म्यांमार में संकट के परिणामस्वरूप, क्षेत्र में भारत के रणनीतिक हित अधिक व्यापक रूप से प्रभावित हुए हैं। भारत की पूर्व की ओर देखो नीति (दक्षिण पूर्व एशिया के साथ भारत के आर्थिक और भू-राजनीतिक संबंधों को बेहतर करना चाहती है) में म्यांमार एक महत्वपूर्ण देश है। ऐसे में म्यांमार की विफलता एशिया में एक बेहतरी का संकेत नहीं है। इससे भारत समेत सभी के लिए रणनीतिक नुकसान हो सकते हैं।

ड्रग्स की बढ़ सकती है तस्करी

नीरज सिंह बताते हैं कि भारत सरकार के पूर्व विशेष सचिव प्रताप एम हेब्लिकर के साथ मेरी हालिया बातचीत में उन्होंने कहा कि यदि म्यांमार एक असफल राज्य बन गया तो भारत को कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। इससे आतंकवादियों और अन्य भारत-विरोधी तत्वों के लिए सुरक्षित पनाहगाह की स्थापना होगी। इसके अतिरिक्त, इससे अवैध अप्रवास के साथ-साथ नशीली दवाओं की तस्करी की संभावना भी बढ़ जाएगी।

फिलवक्त म्यांमार में स्थाई समाधान की उम्मीद नहीं

आकाश साहू कहते हैं कि इससे भारत को म्यांमार में व्यापक जुड़ाव बनाए रखने और उसकी रक्षा करने में मदद मिलेगी। सुरक्षा और आर्थिक हित की जहां तक बात है तो भारत ने अपनी सुरक्षा स्थिति पर चिंता जताई है। भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए पूर्वोत्तर क्षेत्र की अखंडता महत्वपूर्ण है। अस्थायी युद्धविराम के उभरने के बाद भी म्यांमार संकट जारी रहने की उम्मीद है। यह एशिया की सुरक्षा को अस्थिर करने वाले कारकों में से एक है। विशेष रूप से इंडो-पैसिफिक, ताइवान मुद्दा और दक्षिण चीन सागर में उभरता तनाव चिंताजनक है। म्यांमार में शांतिपूर्वक कोई समाधान तभी प्राप्त किया जा सकता है जब सभी साथ मिलकर बैठे। वर्तमान परिस्थितियां संकेत देती हैं कि निकट भविष्य में कोई संभावना नहीं हैं।

चीन की भूमिका अहम

लेफ्टिनेंट कर्नल जे.एस.सोढ़ी कहते हैं कि इसमें चीन की भूमिका अहम है। वर्टनर डिजनर ने एक किताब लिखी है ग्रेट गेम इन द ईस्ट। उन्होंने आंकड़ों और तथ्यों के साथ बताया है कि पूर्वोत्तर राज्यों में चीन की अस्थिरता पैदा करने की मंशा है। चीन ने म्यांमार में तात मदाओ को पैसा दिया। कई गुटों को पोषित किया। म्यांमार में यूनाइटेड वॉर स्टेट आर्मी है जिसे चीन हथियार और पैसा देता है। इसके प्रभुत्व वाले इलाकों में म्यांमार का सैनिक नहीं जा सकता है। इनके पास बख्तरबंद गाड़ियों से लेकर सैन्य साजो-साामान मौजूद है। ब्रदरहुड एलायंस के रूप में भी जाना जाता है, जून 2019 में गठित अराकान आर्मी , म्यांमार नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस आर्मी और ता'आंग नेशनल लिबरेशन आर्मी के बीच एक गठबंधन है । 27 अक्तूबर, 2023 को इस एलायंस ने म्यांमार की सैन्य सरकार पर हल्ला बोला। इसे ऑपरेशन 1027 के नाम से जाना जाता है। इसको अमेरिका और पश्चिमी देशों का समर्थन है। 10 जनवरी को चीन ने ब्रदरहुड एलायंस और सेना के बीच सीजफायर करवाया पर ये कितने दिन रहेगा यह कहना मुश्किल है।

समाधान तलाशने में भारत की भूमिका हो सकती है महत्वपर्ण

नीरज सिंह कहते हैं कि म्यांमार में समस्या का समाधान सीधे तरीके से नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर, भारत और अन्य देशों के पास स्थिति से निपटने में सहायता के लिए विभिन्न प्रकार की कार्रवाई करने की क्षमता है। सबसे महत्वपूर्ण चीजों में से एक जो की जा सकती है वह है पूरे म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली के लिए प्रयास करते रहना। भारत म्यांमार में युद्धविराम की मध्यस्थता में सहायता के लिए अपने प्रभाव का उपयोग करने में भी भूमिका निभाने में सक्षम है क्योंकि देश में जातीय समूहों से निपटने का उसका एक लंबा इतिहास है। अंत में, भारत के पास म्यांमार में संकट से उत्पन्न अधिक व्यापक कठिनाइयों को हल करने के लिए क्षेत्र के अन्य देशों के साथ सहयोग करने की क्षमता है। इसमें आतंकवाद से लड़ने, शरणार्थियों को सहायता प्रदान करने और सुरक्षा मुद्दों से निपटने के लिए मिलकर काम करना शामिल है।

टकराहट से उपजी पृष्ठभूमि ने बिगाड़ी म्यांमार में स्थिति

लेफ्टिनेंट कर्नल जे.एस.सोढ़ी बताते हैं कि म्यांमार का नाम 1989 तक बर्मा था। सैन्य सरकार ने 1989 में देश का नाम अंग्रेजी में बर्मा से बदलकर म्यांमार करने की घोषणा की । म्यांमार की आबादी 5.4 करोड़ है है। सेना के 1962 के सत्ता संभालने के बाद से यूनिटी इन डायवर्सिटी के साथ खेलना शुरू किया। जिसका परिणाम म्यांमार भुगत रहा है। 1988 के बाद बनी सैन्य जुंटा की सरकार ने देश के सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण और जातीयता के मुद्दे को नये सिरे से तूल देना एक साथ शुरू किया। परिणामस्वरूप जातीय संघर्ष तेज होते गए। आज कैरेन, वा, शेन जैसे 20 बड़े एथेनिक समूहों के पास अपनी सशस्त्र सेना और राजनीतिक पार्टियां हैं लेकिन इनकी पहचान अब विचारधारा नहीं बल्कि इनकी जातीयता है। म्यांमार में जुंटा आर्मी और मिलिशिया पीडीएफ के बीच तनाव बढ़ गया है। म्यांमार में बढ़ते तनाव के कारण मिजोरम हाई अलर्ट पर है क्योंकि म्यांमार के जिस राज्य (चिन) में यह लड़ाई हो रही है, वह मिजोरम के चम्फाई से लगती है।

सोढ़ी बताते हैं कि म्यांमार में मुख्य 135 एथिनिक जातियां है जिनमें से सात अल्पसंख्यक समूह है। जिसमें से सबसे प्रमुख बामार है जिसकी आबादी दो तिहाई है। बामार सबसे प्रभुत्वशाली और बहुसंख्यक समूह है। म्यांमार की सैन्य सरकार ने दो बार सत्ता संभाली। पहली 1962 से 2011, दूसरी 2021 से अब तक। म्यांमार की सरकार को तात मदाओ के नाम से जाना जाता है। सैन्य सरकार ने सत्ता संभालने के बाद म्यांमार की जनता पर अत्याचार करने के लिए चार प्रणाली का इस्तेमाल किया। पहला सारे गांव के गांव जला दिए। एयर स्ट्राइक की गई। लोगों को गिरफ्तार करें और उनका उत्पीड़न करो। गिरफ्तारी न देने वाले लोगों को उन्हें जान से मार दो। संयुक्त राष्ट्र की स्टडी के अनुसार 3,452 लोग मारे गए हैं और हजारों को विस्थापित कर दिया। म्यांमार में सबसे अधिक बौद्ध धर्म को मानते हैं।

इनमें से बहुत से अल्पसंख्यक एथेनिक समूहों को बर्मा के शासक विदेशी मानते हैं। इनका कोई नागरिक अधिकार नहीं है। यह किसी सम्पत्ति पर अपना अधिकार नहीं जता सकते, यहां तक कि अपने समूह से बाहर शादी भी नहीं कर सकते। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने फूट डालो राज करो की नीति के तहत समूहों के पिछड़ेपन का फायदा उठाकर उनके बीच की कबीलाई दुश्मनी को लगातार बढ़ावा दिया। 1948 में आजादी के बाद सत्ता में आये देशी शासकों ने भी इसी नीति को आगे बढ़ाया और समूहों के बीच के मतभेदों को दूर करने की कोशिश करने के बजाय इसे और ज्यादा जटिल बनाया। बर्मा की सबसे पहली राजनीतिक पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ बर्मा ने जनता की एकता के लिए काम किया था लेकिन आजादी के पांच साल बाद ही 1953 में कम्युनिस्ट पार्टी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। उस समय यह देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी थी।

1980 तक बर्मा का आन्तरिक संघर्ष मुख्यत: विचारधारा पर ही केन्द्रित रहा। इस संघर्ष के दौरान एथेनिक समूहों में सशस्त्र दस्ते गठित हुए। इसकी काट के लिए सेना ने इन्हीं समूहों के बीच से हत्यारे दस्ते तैयार किये। 1980 के दशक में भारी फूट बिखराव के बाद कम्युनिस्ट पार्टी खत्म हो गयी। इसके साथ ही विचारधारा पर केन्द्रित संघर्ष भी कभी ना खत्म होनेवाले जातीय संघर्ष में तब्दील हो गया।

चीन से प्रभावित रहा बर्मा

बर्मा एक तरफ चीन से सटा है और दूसरी ओर इसकी सीमा बंगाल की खाड़ी और हिन्द महासागर में खुलती है। आजादी के बाद सत्ता किसी की भी रही हो लेकिन बर्मा के शासकों के साथ चीन के रिश्ते हमेशा अच्छे बने रहे। केवल 2008 से 2014 तक का एक छोटा सा दौर था जब चीन के बजाय अमरीका की ओर रहा।

बर्मा आर्थिक और रणनीतिक दोनों तरह से चीन के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण था। दक्षिणी चीन के औद्योगिक क्षेत्र बर्मा के रास्ते आसानी से हिन्द महासागर से जुड़ सकते थे। इस जुड़ाव से चीन को खाड़ी के देशों, मध्य पूर्व के देशों और यूरोपीय देशों के साथ जोड़ने वाला व्यापारिक मार्ग छोटा हो सकता था। मालवाहक जहाजों को मलक्का जलडमरू और दक्षिण चीन सागर से होकर नहीं आना पड़ता और चीन का नौपरिवहन खर्च घटता। इसके अलावा बर्मा चीन के तैयार माल का अच्छा बाजार और कच्चे माल का, खासतौर पर तेल, गैस और धातु खनिजों का स्रोत भी हो सकता था। मौके का फायदा उठाकर चीन ने बर्मा में ढांचागत परियोजनाओं और खनन में भारी–भरकम निवेश करना शुरू किया। इसके साथ ही दोनों देशों के बीच व्यापार भी तेजी से बढ़ा। 1989 में दोनों देशों के बीच लगभग 32 करोड़ डॉलर का व्यापार हुआ था, जिसमें चीन को 6 करोड डॉलर का लाभ हुआ। 2008 में द्विपक्षीय व्यापार 8 गुना बढ़कर 2.6 अरब डॉलर हो गया और चीन का लाभ 20 गुना बढ़ा।

भारत पड़ोसी म्यांमार में "थ्री ब्रदरहुड अलायंस" (3बीएचए) द्वारा बढ़ते विद्रोही हमले पर सावधानीपूर्वक नजर रख रहा है।