जागरण प्राइम टीम, नई दिल्ली। आज से 10 साल पहले जब निर्भया के साथ हुई जघन्य वारदात सामने आई तो लोगों की आंखों में आंसू आ गए थे। सवाल उठा कि कोई इतना निर्मम कैसे हो सकता है। तब समाज और सिस्टम अनेक खामियां भी उजागर हुई थीं। मसलन, अगर निर्भया को सार्वजनिक परिवहन की उचित व्यवस्था मिलती तो शायद उसका यह अंजाम न हुआ होता। इसी तरह कानून, पुलिस की जांच, मेडिकल जांच आदि की भी खामियां सामने आई थीं। लेकिन तकलीफदेह बात यह है कि नियम-कानून बदलने के बाद भी हालात नहीं बदले हैं।

दोषियों को सजा दिलाने के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट की संख्या बढ़ाई गई, लेकिन इन अदालतों में महिलाओं के खिलाफ अपराध की संख्या अब भी लाखों में है। शुक्रवार को संसद में सरकार की तरफ से दी गई जानकारी के अनुसार, अक्टूबर 2022 तक फास्ट ट्रैक कोर्ट और विशेष पॉक्सो अदालतों में यौन शोषण और पॉक्सो के 1.93 लाख मामले लंबित थे, जबकि फास्ट ट्रैक कोर्ट में कुल लंबित मामलों की संख्या 14 लाख से ज्यादा थी। निर्भया के पिता बद्रीनाथ सिंह कहते हैं कि निर्भया के साथ जो हुआ उसके बाद से अब तक देश में महिला सुरक्षा के मुद्दे पर चर्चा तो हुई पर बदला कुछ नहीं। पुलिस आज भी महिलाओं के खिलाफ अपराध को लेकर संवेदनशील नहीं है।

यहां हम 2012 में सामने आई चार प्रमुख खामियों की बात करते हैं और देखते हैं कि एक दशक में उनमें क्या बदला।

खामी नंबर 1

2012: सार्वजनिक परिवहन की कमी

2022: दिल्ली में अब भी जरूरत से कम बसें

निर्भया मामले में सबसे प्रमुख समस्या सार्वजनिक परिवहन को लेकर सामने आई थी। उसके बाद सरकारों ने कई चाक-चौबंद व्यवस्था होने की बात कही थी, लेकिन अभी स्थिति में बड़ा सकारात्मक परिवर्तन नहीं आया है। सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक 2010-11 में दिल्ली में 556 डीटीसी बस रूट थे जो 2018-19 में घटकर 450 हो गए। इसमें लगातार गिरावट आ रही है। 2010-11 में डीटीसी के बेड़े में 6,342 बसें थीं, 2021-22 में यह संख्या घटकर 3,760 रह गई। इस साल 150 इलेक्ट्रिक बसें शामिल होने के बाद बेड़े का आकार बढ़कर 3,910 हुआ है। डीटीसी (3,910) और निजी क्लस्टर (3,240) को मिलाकर दिल्ली की सड़कों पर चल रही सार्वजनिक बसों की कुल संख्या 11,000 के अपेक्षित आंकड़े के मुकाबले मात्र 7,150 है।

विश्व बैंक की रिपोर्ट, ‘इनेबलिंग जेंडर रिस्पॉन्सिव अर्बन मोबिलिटी एंड पब्लिक स्पेसेज इन इंडिया’ बताती है कि भारत में अधिक महिलाएं बस से यात्रा करती हैं। 82 फीसदी महिलाओं का कहना था कि वे सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट में दिन को खुद को सुरक्षित महसूस करती हैं, जबकि 20 फीसदी का कहना था कि वह रात में सेफ महसूस नहीं करती हैं। इस स्टडी में केरल सहित कुछ शहरों को केस स्टडी के तौर पर लिया गया। वहां 68 फीसद महिलाओं ने माना कि उन्हें सफर के दौरान शारीरिक शोषण का शिकार होना पड़ा। सबसे ज्यादा शिकार 18-24 साल की 74 फीसद लड़कियां थीं।

महिलाओं के लिए शहरों में रोजगार के अच्छे अवसर उपलब्ध न हो पाने के लिए अक्सर यह दलील भी दी जाती है कि सार्वजनिक परिवहन उनके अनुकूल नहीं है। इसी तरह शिक्षा के मामले में भी वे पसंदीदा कालेज अथवा संस्थान में कई बार प्रवेश नहीं ले पातीं, क्योंकि उनके लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर करना सुरक्षित नहीं माना जाता। अध्ययन में यह भी पाया गया कि महिलाएं अपनी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अक्सर अधिक सुरक्षित लंबे रूट को पसंद करती हैं, जो उनकी जेब पर भी भारी पड़ता है।

क्या किया जाना चाहिए

विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में चार तरीके से महिलाओं के लिए शहरी परिवहन प्रणाली में सुधार की जरूरत बताई है। पहला, जमीनी स्थिति को महिलाओं के नजरिये से समझा जाए। दूसरे, नीतियों और विकास योजनाओं में महिलाओं की चिंता झलके, इन्हें बनाने में महिलाओं की भूमिका हो। तीसरे, सार्वजनिक परिवहन से जुड़े सभी लोगों की महिलाओं के नजरिये से अनिवार्य ट्रेनिंग हो। कंडक्टर से लेकर स्थानीय कांस्टेबल तक को पता होना चाहिए कि महिलाओं की जरूरतें क्या हैं। चौथा, महिलाओं के अनुकूल इन्फ्रास्ट्रक्चर और सेवाओं में निवेश बढ़ाया जाए। उदाहरण के लिए, अगर कोई नया बस स्टाप बनाया जाता है तो उसमें पर्याप्त लाइटिंग, एसओएस बटन, वाशरूम आदि जरूर बनाया जाना चाहिए। रिपोर्ट में महिलाओं की शिकायतों के निपटारे के लिए प्रभावी तंत्र बनाने की भी सिफारिश की गई है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की अध्यापिका अनुजा अग्रवाल कहती हैं कि महिलाओं से होने वाले अपराधों की स्थिति में बहुत बदलाव नहीं आया है। दरअसल, सख्त कानून बनाने या पुलिस की सख्ती से बदलाव नहीं आएगा। हमें अपने शहरों को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाना होगा। आज भी दिल्ली सहित तमाम शहरों में कई डॉर्क स्पॉट हैं। कई ऐसे इलाके हैं जहां अपराध ज्यादा होते हैं। हमें शहरों में ट्रांसपोर्ट को सुरक्षित बनाना होगा, सड़कों को सुरक्षित बनाना होगा, दफ्तरों को सुरक्षित बनाना होगा। हर नजरिए से एक सुरक्षित माहौल बनाने की जरूरत है।

खामी नंबर 2

2012: नाबालिग को सिर्फ तीन साल सजा

2022: कानून बदला पर नाबालिगों के अपराध कम नहीं हुए

निर्भया मामले के छह दोषियों में से एक ने जेल में खुदकुशी कर ली और चार को फांसी की सजा हुई। लेकिन एक दोषी अपराध के समय 18 साल से कम उम्र का था। जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2000 में प्रावधान था कि 18 साल से कम उम्र के नाबालिग के खिलाफ कोर्ट में वयस्क की तरह सुनवाई नहीं होगी। इसलिए निर्भया के नाबालिग दोषी को रिमांड होम में तीन साल कैद की सजा हुई। तब किसी नाबालिग को अधिकतम इतनी सजा ही दी जा सकती थी। यह सजा सुनाए जाने के बाद कानून के खिलाफ आवाज उठी।

सुप्रीम कोर्ट ने भी हरियाणा के एक मामले में सुनवाई करते हुए इस कानून पर पुनर्विचार करने की बात कही थी। उसके बाद संसद ने पुराने कानून में संशोधन करते हुए जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन) एक्ट 2015 पास किया। उसमें एक प्रावधान यह है कि अगर 16 से 18 साल का नाबालिग जघन्य अपराध करता है तो उसके खिलाफ वयस्क की तरह ही कार्रवाई होगी। नए कानून में नाबालिग को दो वर्गों में बांटा गया। पहला, जो कानून का उल्लंघन करता है और दूसरा, जिसे कानून की मदद की दरकार है।

इस कानून के बाद भी नाबालिगों के अपराध में कोई खास कमी नहीं आई है। बल्कि NCRB के आंकड़ों के अनुसार कुछ वर्षों के दौरान तो इसमें बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2020 की तुलना में 2021 में इनकी संख्या 4.7% ज्यादा है। 2021 में इन मामलों में 37,444 को पकड़ा गया। इनमें से 76.2% 16 से 18 साल के थे।

2011 में नाबालिग द्वारा महिलाओं के खिलाफ अपराध (आईपीसी की धारा 354) की संख्या 573 थी। हाल के वर्षों पर गौर करें तो 2019 में यह संख्या 1220, 2020 में 1154 और 2021 में 1063 थी। नाबालिग द्वारा दुष्कर्म (धारा 376) के मामले 2011 में 1149 थे। इनकी संख्या 2019 में 1249, 2020 में 937 और 2021 में 1218 हो गई। इसी तरह दुष्कर्म की कोशिश (धारा 376/511) के मामले 2019 में 39, 2020 में 33 और 2021 में 29 थे।

क्या किया जाना चाहिए

बदलाव कैसे संभव है, यह पूछने पर निर्भया का केस लड़ने वाली सीनियर एडवोकेट सीमा कुशवाहा कहती हैं, इसके लिए किसी एक क्षेत्र में नहीं बल्कि कई क्षेत्रों में काम करना पड़ेगा। स्कूल ड्रॉपआउट काफी ज्यादा हैं, सरकार को इस पर ध्यान देना पड़ेगा। ऐसे बच्चों को वापस स्कूल भेजने की व्यवस्था करनी पड़ेगी। सोशल मीडिया कंटेंट को कंट्रोल करना होगा, वहां से भी बच्चे अपराध की तरफ बढ़ते हैं। अनेक नाबालिग अपराधियों की पृष्ठभूमि में देखा गया है कि उनके माता-पिता के बीच अक्सर झगड़े होते हैं या वे अलग हो चुके हैं। ऐसे बच्चों का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। जहां तक पुलिस की बात है तो ऐसे मामलों की जांच करने वाली टीम को वीआईपी सिक्युरिटी जैसे रूटीन कामों से अलग रखा जाना चाहिए। कोर्ट में भी जजों और कर्मचारियों की कमी होने से बैकलॉग काफी ज्यादा है। सरकार को उनकी संख्या भी बढ़ानी पड़ेगी।

खामी नंबर 3

2012: महिला अपराध से जुड़े कानून ढीले

2022: कानून सख्त हुए लेकिन न्याय पाना अब भी चुनौतीपूर्ण

सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट रंजीत सिंह कहते हैं, निर्भया मामले के बाद महिला सुरक्षा से जुड़े कानूनों में काफी बदलाव हुए हैं। यौन शोषण से जुड़े कानून को कड़ा किया गया है। प्रक्रिया भी तेज करने की कोशिश हुई है। लेकिन पूरी कानूनी प्रक्रिया अब भी विक्टिम के लिए चुनौती भरी है। एफआईआर दर्ज होने के बाद इन्वेस्टिगेशन, फिर चार्जशीट दायर होती है, इसके बाद स्टेटमेंट रिकॉर्ड होता है, फिर डिफेंस अपना पक्ष रखता है। इन सबमें बहुत समय लग जाता है। इसके अलावा, कानून चाहे जितना बदल जाए, केस का नतीजा इन्वेस्टिगेटिंग ऑफीसर की रिपोर्ट पर निर्भर करता है। इन्वेस्टिगेटिंग ऑफीसर के हाथों में पूरी शक्ति दी गई है और इसमें कोई बदलाव नहीं आया है।

अधिकतम केस में अब भी आरोपी छूट जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में पुलिस जांच की आलोचना की है। इसके बावजूद गलत रिपोर्ट लगाने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई नहीं होती। जब भी कोई बड़ी घटना होती है तो उससे जुड़ा कानून बना दिया जाता है, लेकिन जमीनी स्तर पर उसको लागू करने की कोशिश नहीं होती।

क्या किया जाना चाहिए

रंजीत सिंह कहते हैं, यदि महिलाओं के खिलाफ अपराध पर वास्तव में लगाम लगानी है तो विधायिका के साथ कार्यपालिका और न्यायपालिका को मिल कर काम करना होगा। कई बार हम देखते हैं कि आरोपी को कोर्ट से जमानत मिलती है और वह फिर से जाकर अपराध कर देता है। इसके अलावा इन्वेस्टिगेटिंग ऑफीसर की भी जिम्मेदारी तय करनी होगी। जांच को भी साइंटिफिक बनाना होगा। क्रिमिनल जांच पूरी तरह फॉरेंसिक पर निर्भर करती है। पूरी दुनिया में फॉरेंसिक लैब का इस्तेमाल अपराध से जुड़े मामलों की तह तक जाने के लिए किया जाता है। हमारे यहां फॉरेंसिक की कोई मदद नहीं ली जाती। यह बहुत बड़ी कमजोरी है। तकनीक का इस्तेमाल करके हम कम से समय में बेहतर नतीजे हासिल कर सकते हैं।

खामी नंबर 4

2012: फॉरेंसिक की भूमिका सीमित थी

2022: एडवांस तकनीक से अपराधी का सटीक पता लगाना संभव

दिल्ली मेडिकल काउंसिल की साइंटिफिक कमेटी के चेयरमैन नरेंद्र सैनी कहते हैं कि महिलाओं के खिलाफ अपराध में अपराधी को सजा दिलवाने और सबूतों तक पहुंचने में मेडिकल साइंस की भूमिका पिछले कुछ सालों में काफी बढ़ गई है। चाहे घटनास्थल से सबूत इकट्ठा करने हों या सबूतों का परीक्षण करना हो, इसमें फॉरेंसिक विभाग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पिछले कुछ सालों में तकनीक इतनी एडवांस हो चुकी है कि हम घटना पर मिले सबूतों के जरिए अपराधी का सटीक पता लगा सकते हैं। कुछ वर्षों पहले तक सबूतों की एक समय सीमा में ही जांच हो सकती थी, लेकिन अब आधुनिक तकनीक के माध्यम से महीनों बाद भी हम इन सबूतों की मदद से अपराधी तक पहुंच सकते हैं। पिछले कुछ सालों में महिला के मेडिकल को लेकर भी जागरूकता बढ़ी है। मेडिकल के समय महिला के साथ परिवार के किसी सदस्य या परिचत का होना जरूरी है।

महिला सुरक्षा पर चर्चा तो बहुत, बदला कुछ नहीं : निर्भया के पिता

निर्भया के पिता बद्रीनाथ सिंह कहते हैं कि निर्भया के साथ जो हुआ उसके बाद से अब तक देश में महिला सुरक्षा के मुद्दे पर चर्चा तो हुई पर बदला कुछ नहीं। आज भी महिलाओं के साथ बेहद गंभीर अपराध हो रहे हैं। बदलाव बस ये है कि पहले अपराधी महिलाओं या बच्चियों को अपराध के बाद जिंदा छोड़ देते थे, लेकिन अब उन्हें लगता है कि लड़की की गवाही से कहीं फंस न जाएं, इसलिए उन्हें मार देते हैं। ज्यादातर महिला अपराधों में आरोपी छूट जाते हैं या उन्हें उतनी सजा नहीं मिलती जितनी मिलनी चाहिए। ऐसा इसलिए है कि पुलिस महिला अपराधों को लेकर संवेदनशील नहीं है। किसी मामले की जांच के दौरान सबूत जुटाने में कई बार बड़ी लापरवाही की जाती है जिससे बाद में आरोपी बच निकलता है। देश में ऐसा महौल बनाना होगा कि महिला अपराधों को लेकर पुलिस के साथ ही समाज भी बेहद संवेदनशील हो। इस मुद्दे पर संसद में बहस होनी चाहिए। राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्र में ये मुद्दा प्रमुखता से उठाया जाना चाहिए।

पुलिस की जांच का तरीका धीमा : श्रद्धा के पिता

इन दिनों श्रद्धा वॉल्कर की नृशंस हत्या की खबर चर्चा में है। श्रद्धा के पिता विकास वॉल्कर कहते हैं, महिलाओं की सुरक्षा के लिए बेहद जरूरी है कि महिला मामलों को लेकर पुलिस ज्यादा संवेदनशील बने। नवम्बर 2020 में श्रद्धा ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी। अगर उस समय पुलिस देरी न करते हुए तुरंत कार्रवाई करती तो शायद आज वह जिंदा होती। मैंने भी जब श्रद्धा की गुमशुदगी की शिकायत पुलिस में की तो भी काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। पुलिस की जांच का तरीका भी काफी धीमा था। भारतीय कानून के हिसाब से 18 साल की आयु के बाद बच्चे बालिग हो जाते हैं और कानूनी तौर पर कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र होते हैं। लेकिन इस बात पर भी विचार करने की जरूरत है कि क्या पैरेंट्स का बच्चों पर कोई हक नहीं होता है। अगर एक पिता के तौर पर मैं अपने श्रद्धा को किसी भी तरह रोक पाता तो शायद उसके साथ यह घटना न होती।

हर राज्य में योजनाएं बनीं, पर साथ में मामले भी बढ़े

छत्तीसगढ़ महिला आयोग की अध्यक्ष डॉ. किरणमयी नायक का कहना है कि निर्भया कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा और उनके खिलाफ होने वाले अपराध को रोकने के लिए हर राज्य में योजनाएं बनाई गईं। इसके बाद भी उनके खिलाफ होने वाले केस बढ़े हैं। निर्भया कांड के बाद उनके नाम से जो फंड बनाया गया, उसका सही तरीके से कोई भी राज्य इस्तेमाल नहीं कर रहा है। इस फंड का उपयोग महिला उत्थान के कार्यक्रम में लगाया जाना चाहिए, इसकी निगरानी महिला आयोग को दी जानी चाहिए।