जागरण प्राइम इन्वेस्टिगेशन: ट्यूबवेल के पानी में मिला लेड, यह हृदय, किडनी रोग और हाइपरटेंशन का कारण
गाड़ियों में इस्तेमाल होने वाली लेड-एसिड बैटरी और घड़ी-रिमोट आदि में इस्तेमाल होने वाली हाउसहोल्ड पेंसिल बैटरियों का गलत तरीके से निपटारा हमारे पर्यावरण में जहर घोल रहा है। इनसे निकलने वाले हैवी मेटल खासकर लेड भूजल जमीन और हवा तीनों को प्रदूषित कर रहे हैं।
नई दिल्ली, स्कन्द विवेक धर/अनुराग मिश्र। राष्ट्रीय राजधानी से लगा गाजियाबाद जिले का मुरादनगर। कभी इस शहर की पहचान कपड़ों से होती थी, लेकिन आज-कल यह शहर गाड़ियों से निकलने वाली लेड-एसिड बैटरियों की अवैध रिसाइकलिंग के लिए जाना जाता है। यहां की फैक्टरियों से निकलने वाला लेड हवा को तो प्रदूषित कर ही रहा है, यहां की मिट्टी और पानी को भी जहरीला बना रहा है। जागरण प्राइम ने मुरादनगर के शहजादपुर गांव के खेतों में छुपाकर बनी अवैध फैक्टरियों का जायजा लिया। यहां की एक फैक्टरी के पास स्थित ट्यूबवेल के पानी की जांच में 0.09 एमएल प्रति लीटर लेड धातु पाई गई, जो किसी भी व्यक्ति को बीमार बना देने के लिए पर्याप्त है।
बैटरी से प्रदूषण की समस्या सिर्फ मुरादनगर की नहीं है। देश के ज्यादातर हिस्सों में लेड-एसिड बैटरियों की रिसाइक्लिंग अवैध फैक्टरियों में ही होती है। वहां रिसाइक्लिंग के दौरान बड़ी मात्रा में लेड बाहर निकलता है और जमीन में डंप होता जाता है। मुरादनगर के पूर्व पार्षद विजय डांगर कहते हैं, पहले फैक्टरियां दिल्ली में बैटरी रिसाइकलिंग का काम करती थीं। दिल्ली में सख्ती होने के बाद वही फैक्टरियां मुरादनगर आ गई हैं। आधा दर्जन से अधिक फैक्टरियां अलग-अलग हिस्सों में लगी हैं। डांगर कहते हैं, ये फैक्टरियां दिन में नहीं बल्कि रात में काम करती हैं। इनकी चिमनियों से निकलने वाला धुंआ पूरे इलाके में फैल जाता है, जिसमें सांस लेना भी दूभर होता है।
जागरण प्राइम टीम ने शहजादपुर की इन अवैध फैक्टरियों का दौरा किया और वहां से पानी और मिट्टी के सैंपल लिए। इन सैंपल की एनएबीएल एक्रेडिटेड लैब दिल्ली टेस्ट हाउस से जांच कराई गई। इस जांच में सामने आया कि ट्यूबवेल के पानी में लेड की मात्रा 0.09 एमएल प्रति लीटर है। इस जांच से यह साबित हो गया कि अवैध फैक्टरियों से निकलने वाला लेड पर्यावरण में जा रहा है। पानी और मिट्टी के जरिए यह लेड खाद्य पदार्थों में और अंतत: मानव शरीर में प्रवेश करता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, लेड ऐसा विषैला पदार्थ है जो शरीर की कई प्रणालियों को प्रभावित करता है। छोटे बच्चों के लिए यह विशेष रूप से हानिकारक है। शरीर में लेड मस्तिष्क, किडनी, लीवर और हड्डियों में फैल जाता है। गर्भवती महिला से यह गर्भ में पल रहे शिशु के शरीर में भी पहुंच जाता है, जिससे शिशु का विकास प्रभावित होता है। शरीर में लेड की कोई भी मात्रा सुरक्षित नहीं मानी जाती।
डब्ल्यूएचओ का अनुमान है कि 2019 में केमिकल की वजह से होने वाली कुल 20 लाख मौतों में से आधी लेड के संपर्क में आने की वजह से हुई थी। इसके अलावा लेड एक्सपोजर की इडियोपैथिक बौद्धिक विकलांगता के वैश्विक बोझ में 30%, हृदय रोग के वैश्विक बोझ में 4.6% और क्रोनिक किडनी रोगों के वैश्विक बोझ में 3% हिस्सेदारी है।
देश में लेड-एसिड बैटरियों के उचित निपटारे के लिए 20 साल पहले ही सरकार पॉलिसी बना चुकी है। इसके तहत बैटरी बेचने वाली कंपनियों को ही साइंटिफिक तरीके से यूज्ड बैटरियों को रिसाइकिल करना अनिवार्य है। लेकिन इसका पालन नहीं हो रहा।
पर्यावरण पर काम करने वाली गैर-सरकारी संस्था टॉक्सिक लिंक की प्रवक्ता प्रीति महेश कहती हैं, लेड-एसिड बैटरी को बिना प्रदूषण फैलाये साइंटिफिक तरीके से रिसाइकिल किया जा सकता है। समस्या यह है कि ज्यादातर यूज्ड बैटरियां असंगठित क्षेत्र में रिसाइकिल होने के लिए जाती हैं। इसकी वजह ये है कि असंगठित क्षेत्र, संगठित क्षेत्र की तुलना में यूज्ड बैटरी का अधिक दाम देता है, नकद पैसे देता है और रोजाना बैटरी ले जाने के लिए तैयार रहता है। संगठित क्षेत्र यूज्ड बैटरी लेने में इतनी रुचि नहीं दिखाता है।
मार्केट रिसर्च कंपनी मोरडोर इंटेलिजेंस के मुताबिक, वित्त वर्ष 2020 में भारत में लेड-एसिड बैटरी का बाजार करीब 36 हजार करोड़ रुपए का था, जो सालाना 9.47% की ग्रोथ रेट के साथ वर्ष 2027 तक बढ़कर 64 हजार करोड़ के पार जा सकता है।
गैर-सरकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवयारमेंट (सीएसई) की बैटरी वेस्ट एक्सपर्ट अनन्या दास दिल्ली का उदाहरण देते हुए कहती हैं, राष्ट्रीय राजधानी में हर साल 60 लाख नई गाड़ियां जुड़ जाती हैं। यानी लगभग 17 हजार गाड़ियां हर दिन। बैटरी के प्रदूषण को रोकने के लिए तीन तरह के उपाय किए जा सकते हैं। पहला, ऐसी बैटरियां बनाई जाएं जो हर तरह की गाड़ी में इस्तेमाल हो जाए और कहीं भी चार्ज हो जाए। बैटरियां इस तरह की बनें ताकि उनकी सेकेंड लाइफ को इस्तेमाल किया जा सके। दुनिया में कई जगह ऐसा होता है। बैटरी की रिसाइक्लिंग को भी पूरी तरह से वैध तरीके से करने के लिए कंपनियों को बाध्य करना होगा।
लेड-एसिड बैटरी के अलावा हमारे रिमोट-घड़ी आदि में इस्तेमाल होने वाली हाउसहोल्ड बैटरी भी जमीन-पानी को प्रदूषित कर रही है। देश में हर साल 270 करोड़ हाउसहोल्ड बैटरियां बिकती हैं। प्रीति महेश के मुताबिक, इस्तेमाल के बाद इनके रिसाइकल से कुछ मूल्यवान पदार्थ न मिलने की वजह से इन्हें कूड़े में फेंक दिया जाता है। ये बैटरियां अंतत: लैंडफिल में चली जाती हैं और वहां सालों तक पड़ी रहती हैं। इन बैटरियों से निकला खतरनाक केमिकल जैसे कि जिंक, मैगनीशियम आदि जमीन में समा जाता है। यह आसपास की जमीन और पानी दोनों को जहरीला बना देता है।
2016 के शहरी कूड़े के निस्तारण से संबंधित नियमों में बैटरी को सीएफएल-एलईडी के साथ अलग कूड़े में रखकर उसका इंडस्ट्रियल वेस्ट की तर्ज पर निस्तारण करने का प्रावधान किया गया था। हालांकि देश के चुनिंदा शहरों में ही ऐसा हो रहा है। अन्य शहरों में ये घरेलू कूड़े के मिक्स में आता है और लैंडफिल में जाकर खत्म होता है।
इस बारे में सरकार का पक्ष जानने के लिए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के चेयरमैन तन्मय कुमार को प्रश्नावली भेजी गई थी, लेकिन खबर के प्रकाशन करने तक उनका जवाब नहीं आया। यदि उनका जवाब आता है तो खबर अपडेट की जाएगी।