नई दिल्ली, विवेक तिवारी । खाद्यान्न सुरक्षा के लिए मिट्टी की सेहत का ध्यान रखना बेहद जरूरी है। लेकिन अंधाधुंध खेती, रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल और औद्योगिकीकरण से मिट्टी की सेहत बिगड़ रही है। भारत सहित पूरी दुनिया में मिट्टी की उत्पादक शक्ति में पिछले कुछ दशकों में कमी आई है। युनाइटेड नेशन एजुकेश्नल, साइंटिफिक एंड कल्चरल ऑर्गनाइजेशन (यूनेस्को) ने चेतावनी जारी करते हुए कहा है कि 2050 तक पृथ्वी की 90 प्रतिशत उपजाऊ भूमि का क्षरण हो सकता है। इससे आने वाले समय में वैश्विक जैव विविधता और मानव जीवन के लिए बड़ा संकट पैदा होगा। गौरतलब है कि मरुस्थलीकरण के विश्व एटलस के अनुसार, 75 फीसदी उपजाऊ मिट्टी का क्षरण पहले ही हो चुका है, जिसका सीधा असर 3.2 अरब लोगों पर पड़ रहा है। यदि यही स्थिति बनी रही तो 2050 तक स्थितियां बेहद गंभीर हो सकती हैं। साइंस जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक भारत में मिट्टी के अम्लीय होने से अगले 30 सालों में मिट्टी की ऊपरी 0.3 मीटर सतह से 3.3 बिलियन टन अकार्बनिक कार्बन का नुकसान हो सकता है।

पृथ्वी पर जीवन को बनाए रखने में मिट्टी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, फिर भी अक्सर इसकी उपेक्षा की जाती है। इसका प्रबंधन ठीक से नहीं किया जाता। यूनेस्को की ओर से मोरक्को में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान संगठन के 194 सदस्य देशों से अपील की गई है कि वो अपनी मिट्टी के संरक्षण को प्राथमिकता दें। वहीं मिट्टी की उर्वराशक्ति को बढ़ाने के लिए भी प्रयास करें। कार्यक्रम के दौरान यूनेस्को ने अपने अंतरराष्ट्रीय भागीदारों के साथ मिलकर 'विश्व मृदा स्वास्थ्य सूचकांक' स्थापित करने की भी बात कही है। यह सूचकांक अलग अलग क्षेत्रों और पारिस्थितिकी प्रणालियों में मृदा गुणवत्ता के विश्लेषण और तुलना के लिए मानकीकरण उपाय में मदद करेगा।

भारत के 30 फीसदी भूभाग में हो रहा है उपजाऊ मिट्टी का क्षरण

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली द्वारा 2024 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, भारत के 30% भूभाग में उपजाऊ मिट्टी का क्षरण हो रहा है, और 3% क्षेत्र में विनाशकारी रूप से उपजाऊ मिट्टी की क्षति हो रही है। इसका मतलब है कि भारत प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर 20 टन से अधिक उपजाऊ मिट्टी खो देता है। अब तक 1,500 वर्ग किलोमीटर से अधिक उपजाऊ भूमि का नुकसान हो चुका है। असम और ओडिशा में ब्रह्मपुत्र घाटी में मिट्टी का क्षरण सबसे तेजी से हो रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक शिवालिक और हिमालय से आसपास के क्षेत्र भी गंभीर रूप से उपजाऊ मिट्टी के नुकसान से प्रभावित हैं।

मिट्टी होती जा रही अम्लीय, घट रहा ऑर्गेनिक कार्बन

खेती के लिए रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल और औद्योगिक गतिविधियों के चलते भारत में मिट्टी तेजी से अम्लीय होती जा रही है। साइंस जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, भारत में मिट्टी के अम्लीय होने से अगले 30 वर्षों में मिट्टी की ऊपरी 0.3 मीटर सतह से 3.3 बिलियन टन अकार्बनिक कार्बन (SIC) की हानि हो सकती है। चीन के इंस्टीट्यूट ऑफ सॉयल के वैज्ञानिकों की ओर से किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि आने वाले समय में मिट्टी में मौजूद कार्बन के नुकसान के सबसे ज्यादा मामले भारत और चीन में देखे जा सकते हैं। इन देशों में नाइट्रोजन की मात्रा के कारण मिट्टी में अम्लता भी बढ़ रही है।

भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान के प्रिंसिपल साइंटिस्ट और सॉयल केमिस्ट्री एंड फर्टिलिटी के विभाग प्रमुख डॉक्टर एके विश्वास कहते कहते हैं कि किसी भी पौधे के विकास के लिए कुल 17 पोषक तत्वों की जरूरत होती है। इसमें से 14 मिट्टी से आते हैं। बाकी पानी, धूप और हवा से आते हैं। 14 पोषक तत्वों के अलावा भी पौधे को कई तरह के माइक्रो न्यूट्रिएंट्स की जरूरत होती है। भारत में ज्यादा मिनरल सॉयल पाई जाती है। इसमें पोटेशियम भरपूर होता है। लेकिन खेती, औद्योगिकीकरण और अन्य कारणों से मिट्टी में पोटेशियम की कमी होने लगी है। आज हमारे किसान मिट्टी में पोषक तत्व के तौर पर नाइट्रोजन खूब डालते हैं क्योंकि नाइट्रोजन की कमी के लक्षण पौधे में दिखने लगते हैं। लेकिन कई ऐसे पोषक तत्व हैं जिनकी कमी पौधे को देख कर पता नहीं लगाई जा सकती है। किसान खेतों में मुख्य रूप से फर्टिलाइजर के तौर पर नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटेशियम डालते हैं। लेकिन मिट्टी में बोरॉन, कोबाल्ट, निकल जैसे कई ऐसे सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं जिनके बिना इन फर्टिलाइजर का पूरी तरह से फायदा पौधे को नहीं मिलता। उदाहरण के तौर पर पर अगर मिट्टी में निकल कम है तो बहुत से फर्टिलाइजर मिट्टी में अच्छे से काम नहीं करेंगे। हम जो भी पोषक तत्व या ऑर्गेनिक मैटर मिट्टी में डालते हैं उसका मात्र 3 फीसदी ही मिट्टी में मिल पाता है। बाकी पानी, हवा या अन्य माध्यमों से चला जाता है। ऐसी स्थिति में हमें संतुलित मात्रा में पोषक तत्व मिट्टी में डालने की जरूरत है जो देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग है। मिट्टी में किस पोषक तत्व की कमी है इसका पता हम मिट्टी की जांच के जरिए लगा सकते हैं।

क्लाइमेट चेंज के चलते भी बड़े पैमाने पर मिट्टी की उर्वरा शक्ति का क्षरण हो रहा है। हमारी मिट्टी की ऊपरी ढाई इंच मिट्टी बनने में कई सौ साल लगे हैं। इसका क्षरण होने से मिट्टी की उपजाऊ शक्ति पर गंभीर असर पड़ता है। हमारी मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन भी लगातार घट रहा है। भारत सरकार लैंड डिग्रेडेशन न्यूट्रिलिटी पर काम कर रही है, ताकि जितनी भूमि का क्षरण हो हम उतनी भूमि को दोबारा उपजाऊ बना सकें।

आईसीएआर की संस्था राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण और भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो के अनुमान के मुताबिक 147 मिलियन हेक्टेयर उपजाऊ भूमि का क्षरण अब तक हो चुका है। इसमें से 83 मिलियन हेक्टेयर भूमि जल क्षरण के कारण, 25 मिलियन हेक्टेयर भूमि रासायनिक क्षरण के कारण, 12 मिलियन हेक्टेयर भूमि वायु क्षरण के कारण, 1.1 मिलियन हेक्टेयर भूमि भौतिक क्षरण के कारण और 7 मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता या क्षारीयता के कारण क्षरित हुई है। भारत सरकार ने 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर भूमि को फिर से उपजाऊ बनाने का लक्ष्य रखा है।

रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय झांसी के कुलपति डॉक्टर ए.के. सिंह कहते हैं कि भारत में मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन की बेहद कमी है। मिट्टी में इसकी मात्रा एक फीसदी से कम नहीं होनी चाहिए। लेकिन देश में ज्यादातर भूमि जहां फसलों का उत्पादन अधिक होता है इसकी मात्रा 0.5 फीसदी या इससे कम है। वहीं किसान पराली जला कर अपने खेतों को बंजर बना रहे हैं। मिट्टी के लिए ऑर्गेनिक कार्बन बेहद जरूरी है। अगर मिट्टी में इसकी कमी हो जाए तो किसानों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले केमिकल फर्टिलाइजर भी काम करना बंद कर देंगे। इसका फसलों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। अच्छी फसल के लिए मिट्टी में आर्गेनिक कार्बन होना बेहद जरूरी है। अगर किसान पराली न जलाएं तो दूरगामी परिस्थिति में उनकी आय बढ़ सकती है। मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन की मात्रा बढ़ाने के लिए किसानों को गोबर की खाद, डेंचा आदि का इस्तेमाल करना चाहिए। किसानों को खेत कभी खाली नहीं छोड़ने चाहिए। खेत खाली होने से भी ऑर्गेनिक कार्बन का नुकसान होता है।

इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सेमी एरॉयड ट्रॉपिक (ICRISAT) के ग्लोबल रिसर्च प्रोग्राम के डिप्टी डायरेक्टर डॉक्टर शैलेंद्र कुमार कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन, बढ़ती गर्मी और असमय बारिश से मिट्टी की ऊपरी उपजाऊ परत का लगातार नुकसान हो रहा है। देश में ऐसे इलाकों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है जहां खेती के लिए पर्याप्त पानी की उपलब्धता नहीं होती है। ऐसे इलाकों में मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन की कमी एक बड़ी समस्या होती है। ऐसे हालात में मिलेट्स खाद्य जरूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। मिलेट्स के पौधों की जड़ें मजबूत होती हैं। तेज बारिश में भी इनका पौधा गिरता नहीं है। वहीं जड़ें गहरी होने के चलते सूखे के दौरान इनका पौधा पारंपरिक फसलों की तुलना में ज्यादा समय तक जीवित रह जाता है। मिलेट्स के पौधे तेज गर्मी भी बर्दाश्त कर लेते हैं। मिलेट्स पोषक तत्वों से भी भरपूर हैं। ऐसे में आम लोगों को बेहतर पोषण प्रदान करने के लिए भी ये एक बेहतर विकल्प है।

जलवायु परिवर्तन के चलते गर्मी और असमय बारिश लगातार बढ़ रही है। मौसम से इस बदलाव से खेती और जमीन की उर्वरा शक्ति पर भी असर पड़ रहा है। वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर अलग अलग प्रजाति के पेड़ लगा कर वन विविधता बढ़ाई जाए तो जमीन को और अधिक उपजाऊ बनाया जा सकता है। वहीं जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को भी कम किया जा सकता है। कनाडा के नेशनल फ़ॉरेस्ट इन्वेंटरी डेटा का अध्ययन करने पर वैज्ञानिकों ने पाया कि वन विविधता को संरक्षित करने पर जमीन की उत्पादकता बढ़ती है। डेटा मॉडल पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि जमीन पर अलग तरह के पेड़ लगाने पर जमीन में नाइट्रोजन और कार्बन की मात्रा तेजी से बढ़ती है। इसके चलते जमीन अधिक उपजाऊ हो जाती है।

अध्ययन के मुताबिक वन विविधता बनाए रखने पर मिट्टी में एक दशक में कार्बन का भंडारण 30 से 32 फीसदी तक और नाइट्रोजन का भंडारण 42 से 50 फीसदी तक बढ़ जाता है। कनाडा के न्यू ब्रंसविक विश्वविद्यालय के वानिकी और पर्यावरण प्रबंधन संकाय के प्रोफेसर एंथनी आर टेलर के मुताबिक इस अध्ययन में राष्ट्रीय वन सूची में शामिल सैकड़ों भूखंडों के डेटा का विश्लेषण किया है ताकि प्राकृतिक वनों में पेड़ों की विविधता और मिट्टी के कार्बन और नाइट्रोजन में परिवर्तन के बीच संबंधों की जांच की जा सके। ज्यादातर प्रयोगों में पाया गया कि पेड़ों की ज्यादा विविधता वाले क्षेत्रों की मिट्टी में कार्बन और नाइट्रोजन का अधिक संचय हो सकता है। यूएस इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल चेंज बायोलॉजी में पोस्टडॉक्टरल एक्सचेंज फेलो और पोस्टडॉक्टोरल अध्ययन के प्रमुख लेखक शिनली चेन कहती हैं कि, आज जलवायु परिवर्तन के इस दौर में इस अध्ययन के परिणाम जलवायु परिवर्तन के प्रभावाओं को कम करने की राहत दिखाते हैं । "हमारे नतीजे बताते हैं कि पेड़ों की विविधता को बढ़ावा देने से न केवल जमीनक की उपज में वृद्धि होती है बल्कि वैश्विक जलवायु परिवर्तन को भी कम किया जाता है।

इन वजहों से मिट्टी में घट जाते हैं पोषक तत्व

  • तेज हवाएं मिट्टी के कणों को उड़ा कर ले जाती हैं। खास तौर पर सूखे इलाकों में या खाली पड़े खेतों से।
  • भारी बारिश या पानी का तेज बहाव मिट्टी के कणों को अलग करके ले जा सकता है।
  • जंगलों को काटने से वनस्पतियाँ नष्ट हो जाती हैं वहीं मिट्टी ढ़ीली हो जाती है। ऐसे में पोषक तत्वों का नुकसान होता है।
  • खेतों की ज्यादा जुताई, लगातार फसलों का उत्पादन, और खाली पड़े खेत मिट्टी का कटाव बढ़ाते हैं।
  • किसी खेत में अगर बड़ी संख्या में जानवर चरते हैं तो वहां भी मिट्टी में पोषक तत्वों का नुकसान होता है।
  • National Soil Survey and Land Use Bureau के अनुसार, भारत में लगभग 30% उपजाऊ मिट्टी का क्षरित हो चुकी है।
  • इसमें से लगभग 29% समुद्र में खो जाती है, 61% एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित हो जाती है, और 10% जलाशयों में जमा हो जाती है।

    मिट्टी की सेहत सुधारने को हो रहे कई प्रयास

  • भारत सरकार स्वॉयल हेल्थ कार्ड योजना चला रही है।
  • परंपरागत कृषि विकास योजना के तहत जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है।
  • यूरिया की नीम कोटिंग की जा रही है। इसके चलते यूरिया धीमी गति से पानी में घुलता है ऐसे में पौधे के लिए लंबे समय तक नाइट्रोजन उपलब्ध रहती है।
  • केंद्र सरकार पोषक तत्वों (फॉस्फोरस और पोटेशियम) पर सब्सिडी देती है।
  • नमो ड्रोन दीदी योजना के जरिए उर्वरकों का बेहतर इस्तेमाल हो रहा है।
  • मल्टीस्पेक्ट्रल सेंसर से लैस ड्रोन बड़े खेतों में पोषक तत्व स्तर, कार्बनिक पदार्थ सामग्री और नमी के स्तर जैसे मिट्टी के स्वास्थ्य मापदंडों को मैप कर सकते हैं।