नई दिल्ली, एस.के.सिंह। जलवायु संकट पर मिस्र के शर्म-अल-शेख में COP27 सम्मेलन शुरू होने से पहले संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने बड़ी चेतावनी दी है। उन्होंने कहा है कि विकसित और विकासशील देशों के बीच बढ़ती खाई से जलवायु संकट पर चर्चा बेमानी होती जा रही है। अगर दोनों पक्ष ऐतिहासिक समझौता करने पर सहमत नहीं हुए तो हम महाविनाश से नहीं बच सकेंगे। गुटेरेस के अनुसार जलवायु असमानता अब बिल्कुल स्पष्ट है। अमीर देश ज्यादातर उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं और गरीब देश उसका असर झेल रहे हैं। आपात स्थिति को समझते हुए उत्सर्जन घटाने के अपने लक्ष्यों को कई गुना बढ़ाना पड़ेगा। इसके लिए उत्तर और दक्षिण (अमीर और गरीब देशों) के बीच भरोसा कायम करना जरूरी है। गुटेरेस यह भी कह चुके हैं कि विकासशील देश काफी नाराज हैं और इस बात को कमतर नहीं आंकना चाहिए।

गुटेरेस जिस भरोसे के टूटने की बात कह रहे हैं उसके पीछे ठोस वजह है। विकसित देशों को ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन जितनी तेजी से घटाना चाहिए था, उन्होंने वैसा नहीं किया। अब एक्सट्रीम वेदर की परिस्थितियों से निपटने में वे गरीब देशों की मदद करने में भी पीछे हट रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि जलवायु संकट से निपटने के अब तक के प्रयास नाकाफी रहे हैं। गुटेरेस इसे ‘सामूहिक खुदकुशी’ बता चुके हैं जिसके लिए उनकी आलोचना भी हुई।

उन्होंने कहा कि हम इस संकट में ऐसे चरम बिंदु की तरफ बढ़ रहे हैं जहां से लौटना नामुमकिन होगा। नुकसान इतना हो चुका होगा कि उसकी भरपाई नहीं हो सकेगी। दरअसल अमेज़न वर्षावन जिस तेजी से सूख रहा है उससे वैज्ञानिकों को डर है कि जल्दी ही यह कार्बन को सोखने के बजाय कार्बन उत्सर्जन का स्रोत बन जाएगा। गुटेरेस ने दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं, अमेरिका और चीन से आपसी संबंध सुधारने का भी आग्रह किया और कहा कि दोनों देश मिलकर काम नहीं करेंगे तो उत्सर्जन के मौजूदा ट्रेंड को बदलना असंभव है।

नुकसान लाखों करोड़ डॉलर में होगा

वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट- इंडिया की क्लाइमेट प्रोग्राम डायरेक्टर उल्का केलकर ने जागरण प्राइम से बातचीत में कहा, “ग्लोबल वार्मिंग से समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। छोटे आइलैंड देशों के लिए खतरा अधिक है। ये देश उत्सर्जन कम करते हैं, इसलिए उत्सर्जन कम करने का दारोमदार विकसित देशों पर है। जलवायु संकट का असर इन छोटे और विकासशील देशों पर ज्यादा हो रहा है। तूफान-बाढ़ जैसी आपदाओं से निपटने के लिए उन्हें अपने स्तर पर खर्च करना पड़ रहा है। इसलिए इन देशों का ‘क्लाइमेट कर्ज’ लगातार बढ़ रहा है। विकासशील देश लॉस एंड डैमेज (जान-माल को नुकसान) का भी मुआवजा चाहते हैं, जबकि विकसित देश इस पर चर्चा ही नहीं करना चाहते।”

इस साल बाढ़ से भीषण तबाही के बाद पाकिस्तान ने भी लॉस एंड डैमेज फंडिंग की बात कही है। विकासशील देशों की तरफ से लगातार बढ़ते दबाव को देखते हुए अमेरिका और यूरोप इस विषय पर चर्चा के लिए तो राजी हुए हैं, लेकिन यह संभावना कम ही है कि वे फिलहाल पैसा देने पर भी राजी होंगे। उन्हें डर इस बात का है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाला नुकसान आने वाले वर्षों में लाखों करोड़ डॉलर में पहुंच जाएगा। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद उपजे खाद्य और ऊर्जा संकट को देखते हुए वे देश फिलहाल अपनी अर्थव्यवस्था को ही संभालने में लगे हुए हैं।

ओईसीडी के अनुसार विकसित देशों ने 2020 तक अधिकतम 83.3 अरब डॉलर की मदद राशि दी थी। 2021 में यह राशि 85.5 और 2022 में 94.5 अरब डॉलर रहने की उम्मीद है। अगले वर्ष इसके 100 अरब डॉलर पहुंचने का अनुमान है।

भारत जैसे देशों में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कम

विकासशील देशों के बढ़ते दबाव को कम करने के लिए अमेरिका-यूरोप देश स्तर पर उत्सर्जन की बात करते हैं। ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट 2021 के अनुसार चीन ने 2020 में 2912 मिलियन टन कार्बन का उत्सर्जन किया और वह शीर्ष पर है। दूसरे स्थान पर अमेरिका का उत्सर्जन 1286 मिलियन टन और तीसरे स्थान पर भारत का 666 मिलियन टन है। लेकिन यह आधी हकीकत है। प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विकसित देशों में बहुत ज्यादा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के मुताबिक 2020 में अमेरिका का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन लगभग 15 टन और विश्व औसत लगभग 6 टन था। भारत का तीन टन से भी कम था। यानी किसी भी भारतीय नागरिक की तुलना में अमेरिका का कोई भी व्यक्ति पांच गुना उत्सर्जन पैदा करता है। UNEP के अनुसार दुनिया में आमदनी के लिहाज से निचले 50% परिवार सिर्फ 12% उत्सर्जन करते हैं जबकि टॉप 1% परिवार 17% उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। यह स्थिति लगभग सभी प्रमुख देशों में है।

मीथेन का मुद्दा

धरती को गर्म करने वाली ग्रीन हाउस गैसों में तीन प्रमुख हैं कार्बन डाइ ऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड। संयुक्त राष्ट्र के वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गनाइजेशन (WMO) के अनुसार 2021 में तीनों का स्तर रिकॉर्ड पर पहुंच गया। 1983 में इनका रिकॉर्ड रखना शुरू किया गया था और 2021 में मीथेन उत्सर्जन सबसे अधिक हुआ। रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल कार्बन डाइ ऑक्साइड 415.7 पार्ट्स पर मिलियन (ppm), मीथेन 1908 ppm और नाइट्रस ऑक्साइड 334.5 ppm पर पहुंच गया। 1850-1900 के प्री-इंडस्ट्रियल दशकों के औसत की तुलना में यह क्रमशः 149%, 262% और 124% ज्यादा है।

कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बढ़ने का मुख्य कारण जीवाश्म ईंधन और सीमेंट उत्पादन है। मीथेन के स्रोत कई हैं। प्राकृतिक स्रोतों के अलावा यह गैस बायोमास जलाने, उर्वरकों के इस्तेमाल और कई तरह के इंडस्ट्रियल प्रोसेस से निकलती है। वेटलैंड और धान के साथ मवेशियों से भी मीथेन गैस निकलती है। अनेक विकासशील देशों में धान ही प्रमुख फसल है क्योंकि वहां चावल अधिक खाया जाता है।

विकसित देश मीथेन का मुद्दा भी उठा रहे हैं। लेकिन पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के पूर्व विशेष सचिव और UNFCCC में कई वर्षों तक भारत के प्रमुख वार्ताकार रहे रजनी रंजन रश्मि कहते हैं, “ज्यादा समस्या कार्बन डाइ ऑक्साइड के चलते है, मीथेन के चलते नहीं। मीथेन का मुद्दा कार्बन डाइ ऑक्साइड से ध्यान हटाने की कोशिश है, ताकि उसका दोष विकासशील देशों पर डाला जा सके। प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में विकासशील देश विकसित देशों से बहुत पीछे हैं। बिजली, पानी, उर्वरकों की खपत विकासशील देशों में बहुत कम है। अगर मीथेन पर ही ध्यान देना है तो वे मीट की खपत क्यों नहीं कम करते? मीट उत्पादन में चावल उत्पादन की तुलना में अधिक ऊर्जा खर्च होती है।” ग्रीन इंडिया मिशन के प्रोजेक्ट डायरेक्टर रहे रश्मि अभी टेरी (TERI) के सेंटर फॉर ग्लोबल एनवायरमेंटल रिसर्च में विशिष्ट फेलो हैं।

ग्लोबल वार्मिंग का असर

WMO के मुताबिक 2015 से 2021 तक के सात साल अब तक के सबसे लगातार गर्म साल रहे हैं। समुद्र में स्टोर गर्मी को ओसन हीट कॉन्टेंट (OHC) कहते हैं और यह 2018-22 के दौरान सबसे अधिक रहा। समुद्र में गर्मी बढ़ने से कोरल इकोसिस्टम के लिए खतरा बढ़ेगा जिनपर लाखों लोगों की आजीविका निर्भर है। इस दौरान कुछ इलाकों में ग्लेशियर भी ज्यादा पिघले। समुद्र की औसतन 15% सतह बर्फ से ढकी रहती है, लेकिन 2018-21 में आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ औसत से कम थी और अंटार्कटिक क्षेत्र में रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच गई।

48% आशंका है कि 2022 से 2026 के दौरान कम से कम किसी एक साल में ग्लोबल औसत तापमान प्री-इंडस्ट्रियल स्तर (1850-1900) की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाएगा। 2016 अब तक का सबसे गर्म साल रहा है और 93% आशंका है कि 2026 तक कम से कम कोई एक साल उससे अधिक गर्म होगा। समुद्र का जलस्तर बढ़ने, तटीय इलाकों में बाढ़ और अत्यधिक हीटवेव से शहरों में रहने वाले 4.2 अरब लोगों में असमानता बढ़ेगी। समय रहते चेतावनी देने वाले (अर्ली वार्निंग) सिस्टम से नुकसान कम हो सकता है, लेकिन आधे से अधिक देशों, खासकर गरीब देशों के पास यह है ही नहीं।

उत्सर्जन सात गुना कम करना जरूरी

WMO के ग्रीनहाउस गैस बुलेटिन के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग 2 डिग्री तक सीमित करने के लिए उत्सर्जन चार गुना और 1.5 डिग्री तक सीमित करने के लिए सात गुना कम करने होंगे। लेकिन UNEP के अनुसार अभी तक तापमान 1.5 डिग्री तक सीमित रखने की दिशा में कोई भरोसेमंद प्रयास नहीं दिखता है। UNEP के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर इंगर एंडरसन के अनुसार, “जानलेवा बाढ़, तूफान और जंगल की आग के जरिए प्रकृति वर्षों से हमें जो कहने का प्रयास कर रही है, विज्ञान भी अब वही कह रहा है। हमें अपने पर्यावरण को ग्रीन हाउस गैसों से भरना बंद करना पड़ेगा।”

अब तक देशों ने जो लक्ष्य तय किए हैं, उनसे 2030 तक उत्सर्जन में लक्ष्य के मुकाबले एक फीसदी कमी भी नहीं आएगी। यह सिर्फ 0.5 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर है। इसका कहना है कि 2030 तक उत्सर्जन में 45% कटौती करने पर ही ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री तक सीमित रहेगी। उसके लिए जीवाश्म ईंधन का प्रयोग तेजी से घटाना पड़ेगा।

UNEP का कहना है कि महत्वाकांक्षी शपथ लेने के बावजूद COP26 के बाद बहुत थोड़ी प्रगति हुई है। हालांकि उत्सर्जन बढ़ने की दर में कमी आई है। 2000-09 के दौरान हर साल उत्सर्जन औसतन 2.6% बढ़ रहा था जबकि 2010-19 में हर साल औसतन 1.1% वृद्धि हुई, लेकिन यह सदी के अंत तक ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री तक नियंत्रित रखने के लिए नाकाफी है। मौजूदा हालात में तापमान प्री-इंडस्ट्रियल स्तर से 2.6 डिग्री तक ज्यादा होगा। यही नहीं, 20% आशंका तीन डिग्री और 1% आशंका 4 डिग्री बढ़ने की है।

ग्लोबल कार्बन टैक्स लागू हो

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर अप्लायड सिस्टम्स एनालिसिस में एनर्जी और एनवायरमेंट प्रोग्राम के सीनियर रिसर्च स्कॉलर पल्लव पुरोहित ग्लोबल कार्बन टैक्स लागू करने की बात कहते हैं। वे कहते हैं, "अगर कोई देश वादे के मुताबिक उत्सर्जन नहीं घटाता है तो पेरिस समझौते में उसके लिए किसी दंड का प्रावधान नहीं है। वे बिना कोई परिणाम भुगते जितना चाहे जीवाश्म ईंधन इस्तेमाल और कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन कर सकते हैं। उन्हें जवाबदेह ठहराने के लिए कोई रेगुलेटरी बॉडी नहीं है।"

पुरोहित के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र को पेरिस समझौते पर अमल के लिए एक एजेंसी बनानी चाहिए। अपना लक्ष्य हासिल नहीं करने वाले देशों पर प्रतिबंध और जुर्माना लगना चाहिए। जुर्माने की इस रकम से दूसरे देशों में ग्रीन एनर्जी प्रोजेक्ट को सब्सिडी दी जानी चाहिए।

पुरोहित के अनुसार क्लाइमेट चेंज रोकने का सबसे प्रभावी तरीका उन कंपनियों में निवेश बंद करना है जो हमारी धरती को नुकसान पहुंचा रही हैं। इनकी जगह पर्यावरण बचाने को बढ़ावा देने वाली कंपनियों में निवेश बढ़ाया जाना चाहिए। दुर्भाग्यवश पेरिस समझौते में फंड के इस री-डायरेक्शन की कोई चर्चा नहीं है।

पुरोहित कहते हैं, जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी रिन्युएबल ऊर्जा की ओर बढ़ने में सबसे बड़ी बाधा है। हर साल दुनियाभर की सरकारें लगभग 0.5 लाख करोड़ डॉलर जीवाश्म ईंधन की सब्सिडी पर खर्च करती हैं। यह रिन्युएबल ऊर्जा उद्योग को मिलने वाली रकम का तीन गुना है। जीवाश्म ईंधन सब्सिडी पर वैश्विक प्रतिबंध लगाने की जरूरत है।

बच्चों के लिए ज्यादा खतरनाक

यूनिसेफ (UNICEF) का कहना है कि आज दुनिया के 50 करोड़ बच्चे साल में अलग-अलग समय पर हीटवेव का सामना कर रहे हैं। वर्ष 2050 तक 200 करोड़ बच्चे यह परेशानी झेल रहे होंगे- यानी दुनिया का हर बच्चा। आगे हीटवेव ज्यादा खतरनाक, लंबे समय तक और बार-बार आएंगे। बच्चों में शरीर को तापमान के मुताबिक एडजस्ट करने की क्षमता वयस्कों से कम होती है, इसलिए वे जितना ज्यादा हीटवेव का सामना करेंगे उनमें सांस की गंभीर बीमारी, अस्थमा और दिल की बीमारी की आशंका उतनी अधिक होगी। WMO ने चेतावनी दी है कि 2060 के दशक तक हीटवेव बहुत जल्दी-जल्दी आएंगे।

रूस-यूक्रेन युद्ध का असर

रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण अनेक देश उत्सर्जन कम करने के अपने वादों पर आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। युद्ध के कारण दुनिया में ईंधन, खाद्य और सप्लाई चेन का संकट बढ़ा है और महंगाई भी बढ़ी है। रूस से गैस सप्लाई बंद होने के बाद जर्मनी ने उत्सर्जन कम करने अपने लक्ष्यों को कुछ समय के लिए टाल दिया है। चीन-अमेरिका क्लाइमेट वर्किंग ग्रुप भी फिलहाल स्थगित है। पुर्तगाल और डेनमार्क सौ फीसदी रिन्युएबल एनर्जी की तरफ बढ़ रहे हैं, लेकिन ये बहुत छोटे देश हैं।

युद्ध के असर के सवाल पर रश्मि कहते हैं, “असर तो पड़ेगा ही क्योंकि एनर्जी सिस्टम को बदलने की अर्जेंसी घट जाएगी। अमेरिका पर तो इसका असर नहीं पड़ेगा, लेकिन यूरोप में ऊर्जा संकट पैदा हो गया है। मौजूदा हालत में उनसे यह उम्मीद करना बेमानी होगी कि वे अपनी उर्जा की जरूरत घटाएंगे। बल्कि विकसित देश पहले जो बड़ी-बड़ी बातें कहते थे, अब उनके सामने जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने की चुनौती है। वे देश वापस परमाणु और कोयला आधारित बिजली की ओर जा रहे हैं।” रश्मि के अनुसार ये देश भले कह रहे हो कि वे रिन्यूएबल और हाइड्रोजन एनर्जी की तरफ जाएंगे, लेकिन वह लंबे समय में होगा।

पुरोहित के अनुसार, युद्ध का जलवायु पर नकारात्मक असर हो रहा है। इससे पेरिस समझौते के लक्ष्य तितर-बितर हो गए हैं। जब अर्थव्यवस्था चरमरा रही हो, तब पर्याप्त फंड हासिल करना मुश्किल होगा।

WMO के सेक्रेटरी जनरल पेटेरी तालस के अनुसार पिछली हीटवेव के दौरान हमने यूरोप में फसलों को नष्ट होते देखा। रूस-यूक्रेन युद्ध के मद्देनजर हीटवेव खेती पर और बुरा असर डालेंगे। कुछ देशों में इससे पर्यटन प्रभावित हो रहा है। जहां तक ग्लेशियर पिघलने का सवाल है तो हम गेम हार चुके हैं। अब सैकड़ों साल तक ये पिघलते रहेंगे और समुद्र का स्तर बढ़ता रहेगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) में सार्वजनिक और पर्यावरण स्वास्थ्य की डायरेक्टर मारिया नीरा के अनुसार दुनिया की 99% आबादी जिस हवा में सांस ले रही है वह डब्ल्यूएचओ के मानकों से खराब है। इससे सांस और दिल की बीमारियां बढ़ रही हैं। इसके अलावा खेती प्रभावित होने से खाद्य और जल संकट भी बढ़ रहा है।

ग्रीन इकोनॉमी के फायदे

संयुक्त राष्ट्र ने ‘फाइनेंसिंग क्लाइमेट एक्शन’ में लिखा है, ग्रीन इकोनॉमी अपनाने के अनेक फायदे हैं। इसमें एक डॉलर निवेश करने पर चार डॉलर का फायदा मिलता है। बड़े क्लाइमेट एक्शन से 2030 तक 26 ट्रिलियन डॉलर का आर्थिक लाभ होगा। नए प्रयासों से रिन्युएबल एनर्जी की तुलना में कोयला महंगा पड़ने लगा है। महंगे कोयले से 500 गीगावाट बिजली उत्पादन की जो सालाना लागत होगी, सौर या पवन ऊर्जा की लागत उससे 23 अरब डॉलर कम होगी।

ग्लोबल वार्मिंग सीमित रखने की दिशा में निजी क्षेत्र का निवेश भी बढ़ रहा है, क्योंकि इसमें उन्हें ग्रोथ के काफी अवसर दिख रहे हैं। उनका मौजूदा निवेश तापमान 3.5 डिग्री बढ़ाने की दिशा में है। ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री तक सीमित रखने के लिए जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल बहुत कम करना होगा। जरूरत जीवाश्म ईंधन की बजाय रिन्युएबल ऊर्जा स्रोतों में निवेश बढ़ाने की है। अभी हम निवेश का जो फैसला करेंगे, उससे तय होगा कि हम संपन्नता की ओर बढ़ेंगे या विनाश की ओर।