गर्म होते समुद्र से बिगड़ रही है मानसून की चाल, राजस्थान और गुजरात में बढ़ेगी बारिश, पूर्वी इलाकों में कमी से आसार
जलवायु परिवर्तन के चलते मानसून का संतुलन भी बिगड़ा है। मौसम विभाग के आंकड़ों के मुताबिक इस साल अब तक पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में बारिश सामान्य से 16 फीसदी तक कम है। जहां बिहार में सामान्य से 28 फीसदी तक कम बारिश हुई है। वहीं दूसरी तरफ गुजरात के स्वराष्ट्र और कच्छ इलाके और पश्चिमी राजस्थान में सामान्य से 78 फीसदी तक ज्यादा बारिश हुई है।
नई दिल्ली, विवेक तिवारी। जलवायु परिवर्तन के चलते मानसून का संतुलन भी बिगड़ा है। मौसम विभाग के आंकड़ों के मुताबिक इस साल अब तक पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में बारिश सामान्य से 16 फीसदी तक कम है। जहां बिहार में सामान्य से 28 फीसदी तक कम बारिश हुई है। वहीं दूसरी तरफ गुजरात के स्वराष्ट्र और कच्छ इलाके और पश्चिमी राजस्थान में सामान्य से 78 फीसदी तक ज्यादा बारिश हुई है। मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते मानसून के पैटर्न में बदलाव देखा जा रहा है। पब्लिक पॉलिसी थिंक टैंक सीईईडब्लू की हाल ही में आई एक रिपोर्ट भी इस बात की तस्दीक करती है। रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक दश्क में दक्षिण-पश्चिम मानसून और पूर्वोत्तर मानसून के पैटर्न में बदलाव आया है। पिछले एक दशक (2012-2022) में देश की 55 प्रतिशत तहसीलों में दक्षिण-पश्चिम मानसून की बारिश में वृद्धि दर्ज की गई है। वहीं 11 फीसदी तहसीलों में बारिश में कमी देखी गई है। राजस्थान, गुजरात, मध्य महाराष्ट्र और तमिलनाडु की कुछ तहसीलें जहां पारंपरिक रूप से सूखे की स्थिति रहती थी वहां भारी बारिश दर्ज की गई है। विशेषज्ञों के मुताबिक बदलती जलवायु और गर्म होते समुद्रों के चलते आने वाले समय में देश के पश्चिमी तटीय इलाकों में बारिश और बढ़ेगी। वहीं बारिश के बदलते पैटर्न को देखते हुए हमें आने अपनी खाद्य सुनिश्चित करने के लिए अपने फसलों की प्रजातियों और फसल चक्र में भी बदलाव करने होंगे। वहीं पीने के पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए रणनीति बनानी होगी।
सीईईडब्ल्यू की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक दशक में दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान देश की 64 फीसदी तहसीलों में ऐसे दिन बढ़े हैं जहां भारी बारिश के दिनों की आवृत्ति में बढ़ोतरी देखी गई। यह पैटर्न सबसे ज्यादा जीडीपी वाले राज्यों - महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक की तहसीलों में प्रमुख रूप से देखा गया है। काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के सीनियर प्रोग्राम लीड विश्वास चितले कहते हैं कि पूरी दुनिया में मौसम में आए बदलावों और समुद्र के बढ़ते तापमान का असर मानसून को प्रभावित करता है। हमने अपने अध्ययन में पिछले 10 सालों के मानसून के आंकड़ों की तुलना उसके पहले के 30 सालों से की है। हमने अपने अध्ययन में पाया कि जलवायु परिवर्तन और समुद्रों में बढ़ती गर्मी का असर मानसून के पैटर्न पर भी पड़ा है। इस साल लानीना के प्रभाव के चलते ज्यादा बारिश की संभावना जताई जा रही है। लेकिन हम देखे रहे हैं की देश के पश्चिमी तटों के करीबी इलाकों जैसे गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में सामान्य से कहीं अधिक बारिश देखने को मिल रही है। हमारे अध्ययन में भी देखा गया कि पिछले एक दशक (2012-2022) में 55 प्रतिशत तहसीलों में दक्षिण-पश्चिम मानसून की बारिश में वृद्धि दर्ज की गई है। राजस्थान, गुजरात, मध्य महाराष्ट्र और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों की पारंपरिक रूप से ऐसी तहसीलें जहां सूखे की स्थिति रहती थी वहीं बारिश में वृद्धि दर्ज की गई।चीतल कहते हैं कि, ग्लोबल वार्मिंग के चलते समुद्रों का तापमान तेजी से बढ़ रहा है। सामान्य तौर पर समुद्र का तापमान लगभग 28 डिग्री के करीब रहता है। लेकिन अरब सागर के हिस्सों में तामपान इससे कहीं अधिक बढ़ गया है। ऐसे में अरब सागर के तटीय इलाकों में वाष्प ज्यादा होने से बारिश भी बढ़ी है। भारत में मानसून सीजन एक जून से 30 सितंबर तक माना जाता था। लेकिन हमने अपने अध्ययन में पाया कि पिछले कुछ सालों में मानसून के वापस जाने की गति बेहद धीमी होती जा रही है। कई बार अक्टूबर में भी देश के कई हिस्सों में बारिश चलती रहती है। ये मानसून के पैटर्न में आए बदलावों का ही परिणाम है। भारत में 48 प्रतिशत तहसीलों में अक्टूबर माह में 10 प्रतिशत से अधिक वर्षा हुई, जो उपमहाद्वीप से दक्षिण-पश्चिम मानसून की देरी से वापसी के कारण है।
सीईईडब्ल्यू की रिपोर्ट के मुताबिक जैसे-जैसे पृथ्वी की सतह का तापमान वैश्विक स्तर पर बढ़ रहा है, वैज्ञानिक मानते हैं कि तापमान बढ़ने से समुद्रों में वाष्पीकरण में वृद्धि होगी। इससे बारिश में भी बढ़ोतरी होगी। जलवायु के गर्म होने के कारण वैश्विक स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों में वर्षा में वृद्धि होने की उम्मीद है। भारत में दक्षिण-पश्चिम और पूर्वोत्तर मानसून की वर्षा में वृद्धि देखी जा सकती है। वहीं भारी वर्षा वाले दिन में बढ़ोतरी होगी। जलवायु परिवर्तन के चलते भारत में इक्कीसवीं सदी के अंत तक दक्षिण-पश्चिम मानसून की वर्षा में 10-14 प्रतिशत की वृद्धि होने की संभावना हैं।
मौसम वैज्ञानिक समरजीत चौधरी कहते हैं कि समुद्र ग्रीन हाउस गैसों को सोखने का काम करते हैं। लेकिन वातावरण में लगातार बढ़ती गर्मी से समुद्रों की गर्मी भी बढ़ रही है। इससे मौसम के पैटर्न में भी बदलाव देखे जा रहे हैं। मानसून की असंतुलित बारिश के लिए हम जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार मान सकते हैं। सामान्य तौर पर मानसून उत्तर पश्चिमी बंगाल, गैंजेटिक प्लेन, पूर्वी उत्तर प्रदेश होते हुए दिल्ली तक बारिश देता है। लेकिन इस साल ये ओड़िशा और झारखंड होते हुए गुजर रहा है। इसके चलते बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्यों में सामान्य से कम बारिश दर्ज की जा रही है। जलवायु परिवर्तन एक धीमी प्रक्रिया है। ऐसे में इसके असर के चलते मौसम में आने वाले समय में बड़े बदलाव देखे जा सकते हैं।
रिसर्च जर्नल साइंस डायरेक्ट में छपे एक शोध के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण "मानसून रेखा में 10 डिग्री तक का बदलाव देखा गया है। ये उन इलाकों में बारिश के पैटर्न में परिवर्तन का संकेत देता है, जहां मानसून की वर्षा मुख्य रूप से होती है। इस बदलाव से वर्षा पट्टी काफी हद तक उत्तर या दक्षिण की ओर खिसक जाती है, जो बदलाव की दिशा पर निर्भर करता है, इससे प्रभावित क्षेत्रों में कृषि पद्धतियों और जल उपलब्धता पर बड़ा प्रभाव पड़ सकता है।
IISER में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, उत्तरी हिंद महासागर और अरब सागर के किनारों पर 2001 से 2019 के बीच चक्रवाती तूफानों में 52 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। वहीं भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) के एक अध्ययन के अनुसार, हाल के दशकों में अरब सागर में चक्रवातों की तीव्रता 20-40% बढ़ गई है। अध्ययन में कहा गया है कि पिछले चार दशकों के दौरान, अरब सागर में चक्रवातों की अधिकतम तीव्रता 40% (100 किमी प्रति घंटे से 140 किमी प्रति घंटे ) तक बढ़ गई है। अध्ययन के मुताबिक पिछले 40 सालों में हर मॉनसून से पहले अरब सागर की ऊपरी सतह का तापमान 1.4 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है। इसके पीछे सीधे तौर पर ग्लोबल वॉर्मिंग जिम्मेदार है।
नेशनल सेंटर फॉर अंटार्टिक एंड ओशन रिसर्च के पूर्व निदेशक (NCAOR) डॉक्टर प्रेम चंद्र पांडेय कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते समुद्र की सतह का तापमान बढ़ रहा है। क्लाइमेट चेंज के चलते समुद्र की लगभग 300 मीटर तक की गहराई तक पानी गर्म हुआ है। इसके चलते चक्रवात की संख्या तेजी से बढ़ी है। अगर जल्द कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले समय में तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों की मुश्किल काफी बढ़ जाएगी। दरअसल समुद्र का तापमान बढ़ने से चक्रवात की फ्रिक्वेंसी बढ़ने के साथ ही तीव्रता भी बढ़ती जाती है। गर्मी के चलते हवाओं की स्पीड़ भी बढ़ती है, चक्रवात के दौरान बारिश की तीव्रता भी बढ़ जाती है। इससे तटीय इलाकों में बाढ़ जैसे हालात बन जाते हैं। पिछले 10 सालों में साइक्लॉन के पूर्वानुमान की तकनीक काफी आधुनिक हो चुकी है। आज हम साइक्लॉन की तीव्रता का सटीक अनुमान लगा कर बचाव कार्य को तेज कर तटीय इलाकों में काफी लोगों की जान बचा पाते हैं। लेकिन साइक्लॉन का लैंडफॉल कहां होगा इसके पूर्वानुमान को और बेहतर बनाने के लिए अभी भी काफी काम किए जाने की जरूरत है।
करनी होगी दीर्घकालिक प्लानिंग
काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के सीनियर प्रोग्राम लीड विश्वास चितले कहते हैं कि मौसम में बदलाव के साथ ही हमें भी समय रहते बदलाव करने होंगे। भारत में खेती में मानूसन की अहम भूमिका है। ऐसे में बारिश के पैटर्न में बदलाव को देखते हुए हमें अपनी खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए खेती के पैटर्न में भी बदलाव करनें होंगे। हमें अब तक राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में जहां कम पानी वाली फसलें लगाई जाती थीं वहीं यहां बढ़ती बारिश को देखते हुए फसलों की प्रजातियों में बदलाव करने होंगे। वहीं ऐसे राज्य जहां अच्छी बारिश के चलते चावल जैसी फसलें लगाई जाती थीं वहां कम पानी में होने वाली प्रजातियों के विकल्पों पर भी विचार करने होंगे।