नई दिल्ली, अनुराग मिश्र। क्रिकेट विश्व कप में पाकिस्तान-अफगानिस्तान मैच के मैन ऑफ द मैच रहे अफगान खिलाड़ी इब्राहिम जादरान का एक बयान बड़ा चर्चा में है। जादरान ने कहा था कि मैं ये मैन ऑफ द मैच ट्रॉफी उन लोगों को समर्पित करना चाहता हूं, जिन्हें पाकिस्तान से वापस घर अफगानिस्तान भेजा गया। एक समय पहले जहां पाकिस्तानी हुक्मरान अफगानिस्तान में तालिबान सरकार आने पर कसीदे पढ़ रहा था, वहीं अब पाकिस्तान द्वारा अफगानिस्तान शरणार्थियों को वापस भेजने के एलान ने क्षेत्रीय जियो पॉलिटिक्स में नया समीकरण पैदा कर दिया है। इसके पीछे एक तरफ जहां तहरीक-ए-तालिबान का बढ़ता प्रभुत्व है तो दूसरी तरफ डूरंड लाइन का मुद्दा भी है। चीन और अफगानिस्तान की बढ़ती दोस्ती भी एशिया में नया समीकरण गढ़ रही है। आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर खस्ताहाल पाकिस्तान के लिए यह मुद्दा फिलहाल गले की फांस बनता दिख रहा है। माना जा रहा है कि पहले से बेहाल पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर और अधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। शरणार्थियों के वापस जाने से पाकिस्तान में श्रम शक्ति में कमी आएगी, जिससे आर्थिक विकास प्रभावित हो सकता है।

तालिबान सरकार का खुलकर समर्थन किया था इमरान खान ने

रायसीना हाउस के अनुसंधान निदेशक नीरज सिंह मन्हास कहते हैं कि इमरान खान के प्रधानमंत्री रहते हुए पाकिस्तान सरकार ने तालिबान का खुलकर समर्थन किया था। पाकिस्तान सरकार का मानना था कि तालिबान के सत्ता में आने से अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता आएगी। हालांकि, तालिबान की वापसी के बाद से अफगानिस्तान में आतंकवाद और हिंसा में वृद्धि हुई है। पाकिस्तान की नई सरकार ने तालिबान के साथ संबंधों में सुधार के लिए प्रयास किए हैं, लेकिन तालिबान सरकार की ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आई है। इसके चलते पाकिस्तान सरकार ने अफगानिस्तान के खिलाफ सख्त रुख अपनाने का फैसला किया है। पाकिस्तान सरकार के इस फैसले का अफगानिस्तान की तालिबान सरकार ने विरोध किया है। तालिबान सरकार का कहना है कि पाकिस्तान सरकार अफगानिस्तान के लोगों के साथ अन्याय कर रही है।

अचानक इसलिए सख्ती पर उतरा पाकिस्तान

नीरज सिंह मन्हास बताते हैं कि पाकिस्तान के अचानक सख्त होने की वजह है। पाकिस्तान में पहले से ही 30 लाख से अधिक शरणार्थी रह रहे हैं। इन शरणार्थियों के रहने और खाने-पीने का खर्च पाकिस्तान सरकार को उठाना पड़ता है। पाकिस्तान सरकार का कहना है कि वह इन शरणार्थियों को और अधिक समय तक नहीं पाल सकती है। दोनों देशों के बीच सीमा, आतंकवाद और पानी के मुद्दे पर विवाद चल रहा है। पाकिस्तान का मानना है कि अफगानिस्तान सरकार इन मुद्दों का समाधान करने की इच्छुक नहीं है। इसी साल अक्टूबर में पाकिस्तान के दो शहरों में हुए आतंकी हमलों में 60 से अधिक लोगों की मौत हुई थी। पाकिस्तान सरकार का मानना है कि इन हमलों को अंजाम देने वाले आतंकवादी अफगानिस्तान से आए थे।

आईडीएसए के फेलो नाजिर अहमद मीर कहते हैं कि पाकिस्तान में लगभग 30 लाख अफगान शरणार्थी हैं, जिससे उनकी गतिविधियों पर नजर रखना मुश्किल हो गया है। दूसरी ओर, अगर पाकिस्तान बिना दस्तावेज वाले लोगों को वापस भेजने का फैसला करता है, तो यह अफगान तालिबान के लिए अच्छा नहीं होगा जो अफगानिस्तान में अपना शासन मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए, ऐसा लगता है कि पाकिस्तान फिलहाल मुश्किल स्थिति में फंस गया है। ओ.पी. जिंदल यूनिवर्सिटी की असिस्टेंट प्रोफेसर बिलकस दाउड़ बताती हैं, अफगानिस्तान में गंभीर आर्थिक और मानवीय संकट के साथ तालिबान द्वारा की गई हिंसा ने विस्थापितों के लिए मजबूत कारक उत्पन्न किए हैं। पाकिस्तान और ईरान पहले से ही इसे और अधिक मजबूती से अनुभव कर रहे हैं। दोनों ही देशों में अगस्त और दिसंबर 2021 के बीच करीब 300,000 अफगान पहुंचे थे।

तहरीक-ए-तालिबान का मुद्दा भी एक वजह

आईडीएसए के फेलो मीर कहते हैं कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच कुछ मुद्दे हमेशा महत्वपूर्ण रहे हैं। एक मुद्दा तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) का था, जिस पर पाकिस्तान ने आरोप लगाया कि वह पाकिस्तान में आतंकवादी हमलों को अंजाम देने के लिए अफगान क्षेत्र का उपयोग कर रहा है। लेकिन तब इस्लामाबाद अशरफ गनी प्रशासन पर भारत और अमेरिका के साथ उसकी कथित निकटता के कारण ऐसे समूहों पर नरम रुख अपनाने का आरोप लगा रहा था। काबुल पर अफगान तालिबान के कब्जे पर खुशी व्यक्त करने का एक कारण यह था कि पाकिस्तान में नीति निर्माताओं ने सोचा था कि अफगान तालिबान टीटीपी को अफगानिस्तान से संचालित होने से रोक देगा, पर ऐसा नहीं हुआ।

मीर के अनुसार, अफगानिस्तान में अफगान तालिबान के आने के बाद आतंकी हमलों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि अमेरिका के खिलाफ अफगान तालिबान की "जीत" के कारण टीटीपी का हौसला बढ़ गया है या अफगानिस्तान तालिबान टीटीपी को रोकने में सक्षम नहीं है। इस बात की आशंका भी है कि टीटीपी अमेरिकी नेतृत्व वाली सेनाओं द्वारा छोड़े गए अत्याधुनिक हथियारों पर पूरी तरह कब्जा कर सकता है, जिनका उपयोग वह अब पाकिस्तान में कर रहे हैं।

बिलकस दाउड़ कहती हैं, जैसा कि हाल ही में अल जवाहिरी की हत्या से पता चला कि तालिबान द्वारा जमात अंसारुल्लाह, इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज़्बेकिस्तान और ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी (झिंजियांग-शेनजान में चीन के खिलाफ उइघुर) जैसे अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी समूहों के साथ संबंध तोड़ने की संभावना नहीं है।

जियो पॉलिटिक्स पर इसका गंभीर असर

मीर कहते हैं, बढ़ते आतंकी हमलों के गंभीर भू-आर्थिक प्रभाव हैं। पाकिस्तान पहले से ही गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है और विदेशी निवेश पाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है। ऐसी अस्थिर सुरक्षा स्थिति में पैसा आना संभव नहीं है।

मन्हास कहते हैं कि पाकिस्तान के अफगानिस्तान के शरणार्थियों को वापस भेजने के फैसले के कई परिणाम हो सकते हैं। जियो इकोनॉमिक लिहाज से, इस फैसले से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। शरणार्थियों के वापस जाने से पाकिस्तान में श्रम शक्ति में कमी आएगी, जिससे आर्थिक विकास प्रभावित हो सकता है। इसके अलावा, शरणार्थियों के वापस जाने से पाकिस्तान में आतंकवाद का खतरा बढ़ सकता है, क्योंकि इन शरणार्थियों का इस्तेमाल आतंकवादी संगठन पाकिस्तान में हमले करने के लिए कर सकते हैं। जियोपॉलिटिकल लिहाज से, इस फैसले से पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच संबंध और खराब हो सकते हैं। अफगानिस्तान की तालिबान सरकार इस फैसले का विरोध कर रही है। इसके अलावा, इस फैसले से पाकिस्तान की वैश्विक छवि पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। यह सवाल पाकिस्तान की मौजूदा राजनीतिक और आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है। अगर पाकिस्तान की राजनीतिक स्थिति स्थिर है और उसकी अर्थव्यवस्था मजबूत है, तो वह टकराव मोल ले सकता है। अगर पाकिस्तान की राजनीतिक स्थिति अस्थिर है और उसकी अर्थव्यवस्था कमजोर है, तो वह टकराव मोल नहीं ले सकता है।

टीटीपी बड़ी चुनौती

मीर कहते हैं कि टीटीपी वास्तव में एक बड़ी चुनौती बनकर उभर रही है। इसका मुख्य कारण टीटीपी के खिलाफ पाकिस्तानी सेना और नागरिक समूहों की आधी-अधूरी नीतियां हैं। अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद ऐसा लगता है कि टीटीपी पाकिस्तान के अंदर हमलों की योजना बनाने और उन्हें अंजाम देने के लिए अफगान क्षेत्र को अंतरिम आश्रय के रूप में उपयोग कर रहा है। फिर ऐसे हमलों में कुछ अफगान नागरिकों की भी संलिप्तता है, जैसा कि पिछले महीने कार्यवाहक आंतरिक मंत्री ने दावा किया था। इससे समस्या जटिल हो गयी है।

रायसीना हाऊस के अनुसंधान निदेशक नीरज सिंह मन्हास कहते हैं कि टीटीपी के लिए तालिबान एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि टीटीपी की ताकत और लोकप्रियता तालिबान के लिए खतरा पैदा कर सकती है। अगर टीटीपी तालिबान सरकार को गिराने में कामयाब हुई, तो यह अफगानिस्तान में आतंकवाद को बढ़ावा दे सकता है और यह क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए भी खतरा पैदा कर सकता है। तालिबान के लिए टीटीपी को चुनौती का सामना करने के लिए कई कदम उठाने होंगे। तालिबान को टीटीपी के साथ बातचीत करने की कोशिश करनी चाहिए और उन्हें समझाना चाहिए कि पाकिस्तान के साथ समझौता करना अफगानिस्तान के लिए जरूरी है। इसके अलावा, तालिबान को टीटीपी के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करने की भी जरूरत है, ताकि वह पाकिस्तान में आतंकवाद को रोक सके।

पाकिस्तान के लिए आसान नहीं है कार्रवाई करना

ओ.पी.जिंदल यूनिवर्सिटी की असिस्टेंट प्रोफेसर बिलकस दाउड़ कहती है कि तालिबान की कैबिनेट की संरचना मुख्य रूप से पश्तूनों के बीच ज़ादरान जनजाति को विशेषाधिकार देती है, जो परंपरागत रूप से सत्ता से बहुत दूर रहे हैं। परिणामस्वरूप सत्ता की प्रमुख ताकतों को नियंत्रित करने वाले हक्कानी के टीटीपी के साथ जनजाति और जातीयता के घनिष्ठ संबंध हैं। आश्चर्य की बात नहीं है कि तालिबान की सत्ता पर कब्ज़ा करने के बाद से पाकिस्तान में टीटीपी के हमलों में लगातार वृद्धि देखी गई है। तालिबान द्वारा टीटीपी के खिलाफ किसी भी सार्थक तरीके से कार्रवाई करने की संभावना नहीं है, यह देखते हुए कि दोनों जनजातीय बंधन एक ही वैचारिक स्थान पर रहते हैं, जहां उनके सैनिक एक-दूसरे के लिए लड़े थे और टीटीपी ने हक्कानियों को पाकिस्तान में सुरक्षित आश्रय प्रदान किया था। टीटीपी के पास पूर्व एएनडीएसएफ के लिए छोड़े गए कई अमेरिकी उपकरणों तक भी पहुंच है। इसलिए, टीटीपी जैसे समूह पाकिस्तान में विपरीत रणनीतिक गहराइयां तलाश रहे हैं।

चीन और अफगान का साथ, भारत के लिए बढ़ सकती है मुश्किल

बिलकस दाउड़ कहती है कि भारत भी अछूता नहीं रहेगा, उदाहरण के लिए हम पहले से ही देख रहे हैं कि अफगानिस्तान से अमेरिकी उपकरण जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों के पास पाए जा रहे हैं। भारत को तालिबान और अब दाएश जैसे समूहों की विचारधारा का मुकाबला करने की वैचारिक चुनौती से भी जूझना होगा, जिन्होंने अफगानिस्तान में उपजाऊ जमीन पाई है और जिनके अंतरराष्ट्रीय संबंध हैं। दूसरी बात जिस पर भारत को सावधानी से ध्यान देना होगा वह है अफगानिस्तान में चीन की बढ़ती भूमिका। बीजिंग अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम को मुख्य रूप से रावलपिंडी में अपने सहयोगियों के चश्मे से देखता है। इसने प्रदर्शित किया है कि पाकिस्तान के हितों की रक्षा के लिए वह अपनी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को जोखिम में डालने को तैयार है। उदाहरण के लिए इस तथ्य पर विचार करें कि यह रावलपिंडी की 'रणनीतिक संपत्तियों' जैसे कि नामित आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) के संस्थापक मौलाना मसूद अजहर को बचाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। इनके तालिबान से करीबी संबंध हैं।

नीरज सिंह मन्हास कहते हैं कि भारत को टीटीपी के लिए तालिबान की चुनौतियों पर नजर रखनी चाहिए और इसके संभावित प्रभावों के लिए तैयार रहना चाहिए। भारत को पाकिस्तान के साथ मिलकर टीटीपी की चुनौती का सामना करने के लिए कदम उठाने चाहिए। अगर टीटीपी तालिबान सरकार को गिराने में सफल हो जाता है, तो यह टीटीपी को भारत में हमले करने के लिए और अधिक मजबूत बना देगा। इससे भारत के लिए खतरा बढ़ जाएगा, क्योंकि पाकिस्तान से आतंकवादी भारत में हमले कर सकते हैं। इन संभावित प्रभावों को देखते हुए, भारत को टीटीपी के लिए तालिबान की चुनौतियों पर नजर रखनी चाहिए और इसके लिए तैयार रहना चाहिए। आईडीएसए के फेलो नाजिर अहमद मीर कहते हैं कि भारत के लिए यह तत्काल सुरक्षा संबंधी चिंता नहीं है। हालांकि, लंबे समय में कुछ सुरक्षा निहितार्थों से इंकार नहीं किया जा सकता है, खासकर यदि न तो अफगान तालिबान और न ही पाकिस्तान टीटीपी को नियंत्रित कर सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि अल-कायदा और आईएसआई जैसे कुछ अन्य समूह टीटीपी के साथ अपने संबंध मजबूत कर सकते हैं।