WHO की रिपोर्टः इंटरनेट के जरिए बच्चों का यौन शोषण करने वालों में ज्यादातर उनके परिचित, जानिए बचाव के उपाय
डब्लूएचओ ने कई देशों में किए गए सर्वे के हवाले से बताया है कि 18 साल से कम उम्र के बच्चों से नग्न फोटो या वीडियो मांगे जाते हैं उन्हें गलत तरीके के चैट भेजे जाते हैं साइबर बुलिंग और साइबरस्टॉकिंग की जाती है
एस.के. सिंह/अनुराग मिश्र, नई दिल्ली। इंटरनेट बच्चों के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार 17-18 साल की उम्र तक के बच्चे ऑनलाइन यौन शोषण का बड़े पैमाने पर शिकार हो रहे हैं। रिपोर्ट में कई देशों में किए गए सर्वे का हवाला दिया गया है। सर्वे में शामिल 11.5% बच्चे ऑनलाइन यौन शोषण के शिकार हुए। उनसे सेक्सुअल तस्वीरें मांगी गईं, सेक्सुअल बातें की गईं, बाल यौन शोषण की लाइव स्ट्रीमिंग की गई और यहां तक कि उन्हें डरा-धमका कर पैसे भी मांगे गए। खास बात यह है कि ज्यादातर मामलों में अपराधी बच्चों के परिचित ही होते हैं। दूसरे देशों में बैठकर भी इस अपराध को अंजाम दिया जा रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में दो तरह के बाल शोषण पर फोकस किया गया है। पहला है ऑनलाइन यौन शोषण और दुरुपयोग। इसमें ऑनलाइन ग्रूमिंग अर्थात बच्चों को अपनी नग्न फोटो या वीडियो भेजने के लिए उकसाना, बिना सहमति के गलत चैट भेजना, उगाही करना, बाल शोषण से संबंधित सामग्री तैयार करना, उन्हें विभिन्न लोगों तक भेजना तथा बाल यौन शोषण की लाइव स्ट्रीमिंग शामिल हैं। दूसरा तरीका साइबर अग्रेशन और साइबर उत्पीड़न का है। इसमें साइबर बुलिंग (डराना-धमकाना, अफवाह फैलाना) और साइबरस्टॉकिंग (धमकी वाले ईमेल-मैसेज आदि भेजना, संपर्क स्थापित करने की कोशिश करना) शामिल हैं।
18 साल से कम उम्र के बच्चे निशाने पर
अमेरिका में जो सर्वे किया गया उसमें पता चला कि 18 साल से पहले 5% बच्चे ऑनलाइन ग्रूमिंग के शिकार हुए। 2021 में विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक सर्विस प्रोवाइडर्स ने बाल यौन शोषण से संबंधित 2.9 करोड़ तस्वीरें पकड़ी थीं। कई देशों में किए गए सर्वे में 15% बच्चों ने साइबर बुलिंग की शिकायत की। अमेरिका में 24% महिलाओं और 19% पुरुषों ने कहा कि 17 साल या उससे कम उम्र में वे साइबरस्टॉकिंग के शिकार हुए। यूरोप के 19 देशों में किए गए सर्वे में पता चला कि 9 से 17 साल की उम्र के 11% बच्चों की डिजिटल आइडेंटिटी चोरी की गई।
कनाडा पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि ऑनलाइन ग्रूमिंग में अपराध करने वाले 61% लोग बच्चों के परिचित अथवा दोस्त ही होते हैं। वयस्कों द्वारा बच्चों के साथ ऑनलाइन सेक्सुअल बातचीत, जो ग्रूमिंग के दायरे में आती है, भी बहुत ज्यादा है। जर्मनी में 22%, स्पेन में 8% और अमेरिका में 5% लोगों ने कहा कि 18 साल की उम्र से पहले उनके साथ किसी न किसी ने ऐसा किया।
भारत में भी बच्चे निशाने पर
भारत में भी इस तरह के अपराध बढ़ रहे हैं। इंटरपोल की एक पुरानी रिपोर्ट के अनुसार 2017 से 2020 के दौरान भारत में ऑनलाइन बाल यौन शोषण के 24 लाख मामले दर्ज हुए। इनमें 80% पीड़ित 14 साल से कम उम्र की लड़कियां थीं। रिपोर्ट में यह भी पता चला कि इस तरह के मामले काफी तेजी से बढ़ रहे हैं। सिर्फ एक इंटरनेट सर्च इंजन पर चाइल्ड पॉर्नोग्राफी से संबंधित 1.16 लाख सर्च किए गए थे।
इंटरपोल की रिपोर्ट के बाद भारतीय जांच एजेंसी सीबीआई ने तहकीकात भी शुरू की थी। जांच में उसने कुछ अपराधियों से इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस भी जब्त किए थे। उनके विश्लेषण से पता चला कि इस तरह के लिंक, वीडियो, तस्वीरें, टेक्स्ट, पोस्ट आदि साझा करने के लिए उन्हें नियमित रूप से पैसे मिलते हैं। सीबीआई ने पिछले साल नवंबर में ‘ऑपरेशन कार्बन’ के तहत 14 राज्यों में 76 ठिकानों पर छापे मारकर अनेक लोगों को गिरफ्तार किया था।
इस साल सितंबर में भी बाल यौन शोषण सामग्री ऑनलाइन सर्कुलेट करने के खिलाफ सीबीआई ने ‘मेघ चक्र’ नाम से एक ऑपरेशन चलाया था। उस ऑपरेशन के तहत 20 राज्यों में 56 जगहों पर छापे मारे गए थे। उसके बारे में शुरुआती जानकारी इंटरपोल से ही मिली थी।
इंटरपोल का इंटरनेशनल चाइल्ड सेक्सुअल एक्सप्लॉयटेशन (ICSE) नाम से एक डेटाबेस भी है। भारत समेत 64 देश इस डाटाबेस को देख सकते हैं। इसके आधार पर 23,500 बच्चों को बचाया गया है और लगभग 11000 अपराधियों की पहचान की गई है। सीबीआई ने ऑनलाइन चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज एंड एक्सप्लॉयटेशन प्रिवेंशन इन्वेस्टिगेशन (OCSAE) नाम से एक इकाई बना रखी है जो ऐसे मामलों की पड़ताल करती है।
भारत में कानूनी प्रावधान
भारत संयुक्त राष्ट्र के बाल अधिकार कन्वेंशन को स्वीकार करने वाले शुरुआती देशों में है। यहां ऑनलाइन शोषण से बच्चों को बचाने के लिए कानून भी हैं। प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन अगेंस्ट सेक्सुअल ऑफेंसेस (पोक्सो एक्ट) 2012, आईटी एक्ट 2008 में ऐसे अपराधों को रोकने के प्रावधान है।
2020 में 30 देशों में किए गए सर्वे के आधार पर तैयार चाइल्ड सेफ्टी ऑनलाइन इंडेक्स में भारत नौवें नंबर पर था। लेकिन साइबर रिस्क के मामले में भारत दूसरे स्थान पर था। इसका मतलब यह है कि भारत में बच्चों के लिए ऑनलाइन जोखिम तो बहुत है लेकिन इसे बचाने के लिए सुरक्षा के उपाय औसत हैं।
बचाव के लिए क्या करें
किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू), लखनऊ के मानसिक चिकित्सा विभाग के एडिशनल प्रोफेसर डॉ. सुजीत कुमार कहते हैं कि बच्चों के लिए इंटरनेट मीडिया पर पाबंदी और अभिवावकों में इसके प्रति जागरूकता बेहद जरूरी है। बच्चों में नया सीखने की क्षमता अधिक होती है। अगर बच्चा मोबाइल फोन पर ज्यादा समय बिता रहा है तो इसका सीधा असर दिमाग पर पड़ता है।
डॉ. सुजीत के अनुसार बच्चा जब बड़ा हो रहा होता है तो उसके व्यक्तित्व में भी बदलाव आते हैं। इससे व्यक्तित्व में कभी-कभी हिंसक भाव आ जाता है। ऐसे बच्चे भावनात्मक रूप से कमजोर होते हैं और अति संवेदनशील हो जाते हैं। कोई काम उनके मुताबिक न होने पर हिंसक हो उठते हैं।
एम्स दिल्ली के मनोवैज्ञानिक डॉ. राजेश के अनुसार ऐसे समय में परिवार की भूमिका अहम हो जाती है। लोगों को आपस में समय अधिक बिताना चाहिए। अगर परिवार के किसी सदस्य के साथ ऐसी कोई समस्या आती है तो पूरे परिवार को उसका साथ देना चाहिए। जरूरत पड़ने पर हेल्पलाइन की मदद ली जा सकती है। जरूरी है कि आत्मविश्वास को बनाए रखा जाए।
ग्रेटर नोएडा स्थित शारदा अस्पताल के मनोचिकित्सक डॉ. कुणाल कुमार के अनुसार ऐसे मामलों को रोकने का सबसे अच्छा तरीका है कि उनकी अधिक से अधिक रिपोर्टिंग की जानी चाहिए। कई बार दोषी व्यक्ति परिवार का ही सदस्य होने के कारण लोग चुप बैठ जाते हैं, शिकायत नहीं करते। ज्यादा रिपोर्टिंग और फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई से ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सकता है।
शिक्षण कार्यक्रमों से बच्चों को फायदा
WHO की रिपोर्ट में कहा गया है कि बचाव के तरीके बताने वाले शिक्षण कार्यक्रमों का काफी फायदा मिलता है। यह बच्चों के खिलाफ ऑनलाइन हिंसा को रोकने में काफी मददगार हो सकता है। ऐसे कार्यक्रमों से साइबर बुलिंग से निपटने में काफी हद तक मदद मिली है। रिपोर्ट के अनुसार जब बच्चों को कई माध्यमों के जरिए ऑनलाइन यौन हिंसा के खतरों के बारे में बताया जाता है तो उन्हें वे बातें जल्दी और बेहतर समझ में आती हैं। ये तरीके वीडियो, गेम, रीडिंग, पोस्टर, इंफोग्राफिक्स, चर्चा और निर्देश हो सकते हैं।
लेकिन बच्चों को इनके बारे में बस एक बार बता देना काफी नहीं है। सर्वे में यह पाया गया कि जब इस तरह के कार्यक्रम बच्चों के बीच बार-बार आयोजित किए गए, तो उन पर इसका ज्यादा असर हुआ। स्कूल या बड़े समुदाय के स्तर पर जब इस तरह के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं तो बच्चों पर उनका ज्यादा प्रभाव पड़ता है। रिपोर्ट में बच्चों के माता-पिता को ऐसे कार्यक्रमों में शामिल करने के महत्व के बारे में भी बताया गया है।