जागरण संपादकीय: निर्णायक मोड़ पर अमेरिका, वैश्विक समस्याओं का भविष्य भी दांव पर
रुझानों से लग रहा है कि रिपब्लिकन पार्टी कांग्रेस के साथ-साथ सीनेट पर भी कब्जा कर सकती है। यदि ऐसा हुआ तो कमला जीत कर भी हाथ बंधे होने के कारण अपने वादों को पूरा नहीं कर पाएंगी। न तो वे यूक्रेन की रक्षा के लिए नाटो संगठन की खुले हाथों से मदद कर पाएंगी और न ही जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए बड़े कदम उठा पाएंगी।
शिवकांत शर्मा। इस साल भारत समेत दुनिया के लगभग 70 देशों में चुनाव हुए हैं या होने हैं। इनमें अमेरिका के राष्ट्रपतीय चुनाव का महत्व सबसे अधिक है, क्योंकि इसका प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हर किसी पर पड़ता है। इस बार का चुनाव और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें संयुक्त राष्ट्र और उसकी बहुराष्ट्रीय संस्थाओं और जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्याओं का भविष्य तो दांव पर है ही, अमेरिका का लोकतंत्र भी दांव पर लगा है।
रिपब्लिकन पार्टी के नेता और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सत्ताधारी डेमोक्रेटिक पार्टी की नेता उपराष्ट्रपति कमला हैरिस को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। लोकप्रियता के राष्ट्रीय रुझानों के साथ-साथ वह निर्णायक माने जाने वाले सात राज्यों, पेन्सिलवेनिया, मिशिगन, विस्कोंसिन, जार्जिया, उत्तरी कैरोलिना, एरिजोना और नेवादा में से पांच में आगे चल रहे हैं। इसलिए सट्टा बाजार में भी उन्हीं की जीत पर दांव लग रहे हैं।
अमेरिका के कई राज्यों में मतदान चुनाव के निर्धारित दिन से हफ्तों पहले शुरू हो जाता है। लोग मतदान केंद्रों में जाकर मतदान के लिए लगे बक्सों में या डाक द्वारा अग्रिम मतदान कर सकते हैं। लगभग पांच करोड़ लोग अग्रिम मतदान कर चुके हैं, जो कुल होने वाले मतदान के एक चौथाई के करीब हैं।
इस अग्रिम मतदान के रुझानों को देखते हुए अनुमान लगाया जा रहा है कि टक्कर इतनी कांटे की हो गई है कि हार-जीत का अंतर मामूली रहेगा। कमला हैरिस की चुनौती यह है कि यदि उनकी जीत का अंतर मामूली हुआ तो ट्रंप उसे मानने से इनकार कर देंगे। वह अपनी रैलियों में कहते आ रहे हैं कि यदि चुनाव निष्पक्ष हुए तो उनकी जीत कोई नहीं टाल सकता।
उन्होंने पिछले चुनाव में भी हार मानने से मना कर दिया था और हारे हुए राज्यों में मतपत्रों और मतदान के फर्जीवाड़े से लेकर मशीनों और गिनती में धांधली के आरोप लगाए थे। अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव राज्यों से चुने गए इलेक्टर या निर्वाचक करते हैं। इसलिए उम्मीदवारों को राज्यों का बहुमत हासिल करना होता है, पूरे देश का नहीं।
राज्य के निर्वाचकों से अपेक्षा की जाती है कि वे राज्य में बहुमत पाने वाले उम्मीदवार का ही समर्थन करेंगे, परंतु इसका कोई स्पष्ट नियम नहीं है। इसलिए राज्यों में कई बार कुछ निर्वाचक अपनी मर्जी से भी वोट डाल देते हैं। गत चुनाव में सात निर्वाचकों ने ऐसा ही किया था। जो बाइडन बड़े अंतर से जीत रहे थे इसलिए नतीजे पर इसका कोई असर नहीं हुआ, पर कांटे की टक्कर होने की सूरत में इससे संकट खड़ा हो सकता है।
गत चुनाव में ट्रंप ने कुछ निर्वाचकों को लुभाने की कोशिश की थी, जो इस बार भी हो सकती है। यदि बीते चुनाव की तरह परिणाम स्वीकार न करते हुए चुनाव अधिकारियों को डराने-धमकाने, अदालती दांवपेचों में उलझाने, उपद्रव उकसाने एवं सत्ता के हस्तांरण को रोकने की कोशिश हुई तो अमेरिका की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल उठेंगे। इससे पश्चिमी लोकतंत्र को अस्थिरता एवं अराजकता वाली नाकाम व्यवस्था बताने वाली चीन और रूस जैसी तानाशाही व्यवस्थाओं के हौसले और बढ़ेंगे।
अमेरिका के राष्ट्रपतीय चुनाव के साथ-साथ प्रतिनिधि सभा या कांग्रेस की सभी सीटों और सीनेट की 34 सीटों के लिए भी चुनाव हो रहे हैं। विजेता उम्मीदवार की पार्टी यदि दोनों सदनों या उनमें से एक में भी हार जाए तो सरकार चलाना एक चुनौती बन जाता है। कांग्रेस में चुनाव के पहले से ही ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत था और सीनेट में डेमोक्रेटिक पार्टी का।
रुझानों से लग रहा है कि रिपब्लिकन पार्टी कांग्रेस के साथ-साथ सीनेट पर भी कब्जा कर सकती है। यदि ऐसा हुआ तो कमला जीत कर भी हाथ बंधे होने के कारण अपने वादों को पूरा नहीं कर पाएंगी। न तो वे यूक्रेन की रक्षा के लिए नाटो संगठन की खुले हाथों से मदद कर पाएंगी और न ही जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए बड़े कदम उठा पाएंगी। इसलिए अमेरिका के मित्र देशों के साथ-साथ वैश्विक संकटों के समाधान के लिए उस पर निर्भर रहने वाली संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं की सांस अटकी है।
दुनिया इस समय बहुध्रुवीयता के ऐसे दौर से गुजर रही है, जिसमें अमेरिका, चीन, रूस और भारत जैसी शक्तियां अपना-अपना प्रभाव जमाने में लगी हैं। आपसी हितों के टकराव के कारण यूक्रेन और गाजा जैसे युद्ध रोक पाना कठिन हो गया है। फिर भी सबसे बड़ी सामरिक और आर्थिक शक्ति होने और संयुक्त राष्ट्र जैसी बहुराष्ट्रीय संस्थाओं का सबसे बड़ा दानदाता देश होने के कारण सुलह-शांति कराने में अमेरिका का अब भी कोई सानी नहीं है।
इसलिए यूक्रेन की अखंडता बनाए रखने के लिए यूरोप को, इजरायल पर दो-राष्ट्रीय समाधान का दबाव डालने के लिए फलस्तीनियों को और हिंद-प्रशांत क्षेत्र को चीनी महत्वाकांक्षा से मुक्त रखने के लिए भारत, जापान और आस्ट्रेलिया को अमेरिका की जरूरत है, पर यदि अमेरिका को अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम रखने के लिए ही जूझना पड़ा तो फिर दूसरे देश उसकी बात क्यों सुनेंगे? ट्रंप का अप्रत्याशित राजनय का सिद्धांत रूस और चीन के दुस्साहस पर लगाम लगाने में तो कारगर हो सकता है, परंतु अमेरिकी नीति की विश्वसनीयता और साख को इससे भी बट्टा लगता है।
इस समय भारत समेत लगभग समूचा विश्व संयुक्त राष्ट्र की बहुराष्ट्रीय संस्थाओं में सुधारों की बाट जोह रहा है, ताकि वे बदलती दुनिया का सही प्रतिनिधित्व कर सकें। यूक्रेन और गाजा के युद्ध जैसे वैश्विक संकटों और जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक चुनौतियों के न्यायसंगत और स्वीकार्य हल खोज सकें। यह सब अमेरिका में व्यवस्थित सत्ता हस्तांतरण के बाद बने नए प्रशासन की सदाशयता के बिना नहीं हो सकता।
जैसे भी हो, यदि ट्रंप चुनाव जीते तो बहुराष्ट्रीय संस्थाओं को नीचा दिखाने, संरक्षणवाद अपनाने और जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक चुनौती को गंभीरता से न लेने की उनकी नीतियां दुनिया के लिए समस्या खड़ी कर सकती हैं।
वह अमेरिका में निर्माण उद्योगों को बहाल करने के लिए आयकर हटाकर आयात पर भारी शुल्क लगाने की बात भी कर रहे हैं, जो चीन के साथ-साथ भारत के वस्तु और सेवा निर्यातकों के लिए गंभीर चुनौतियां खड़ी कर सकती हैं। न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री नूरिएल रुबीनी का कहना है कि ट्रंप की नीतियों से डालर का मूल्य गिरेगा, महंगाई बढ़ेगी, विकास दर घटेगी और कर्ज का बोझ बढ़ेगा। देखना है कि ऐसे माहौल में अमेरिकी जनता क्या फैसला करती है?
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)