जागरण संपादकीय: आबादी बढ़ाने की अनावश्यक अपील, यह चाहत परेशानी का ही सबब बनेगी
दक्षिण के राज्य यह भी न भूलें कि आटोमोबाइल से लेकर साफ्ट ड्रिंक स्मार्ट फोन से लेकर कपड़े के उत्पादन में अगर दक्षिण भारत का बड़ा योगदान है तो इस सबकी खपत सबसे ज्यादा उत्तर भारतीय बाजारों में ही होती है। इससे ही उनके राजस्व में बढ़ोतरी हो रही है। दक्षिण भारतीय राज्यों के लिए उत्तर-भारत के ज्यादा आबादी वाले राज्य मजदूरों के आपूर्तिकर्ता की भी भूमिका निभा रहे हैं।
डॉ. जगदीप सिंह। गत दिनों आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने अपने-अपने राज्यों की घटती आबादी पर चिंता जताई। चंद्रबाबू नायडू ने आंध्र की बुजुर्ग होती आबादी की तरफ ध्यान दिलाया तो एमके स्टालिन ने आने वाले वर्षों में परिसीमन के बाद लोकसभा के सीटों पर पड़ने वाले इसके असर पर चिंता व्यक्त की।
स्टालिन ने कहा कि हमारी आबादी कम हो रही है। इसका असर हमारी लोकसभा की सीटों पर भी पड़ेगा। इसलिए अब समय आ गया है कि नवविवाहित जोड़े अधिक बच्चे पैदा करें। वहीं आंध्र के सीएम नायडू ने कहा कि 'एक समय, मैंने परिवार नियोजन अपनाने को कहा था, लेकिन अब मैं लोगों से अपील कर रहा हूं कि ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करके जनसंख्या बढ़ाएं।'
दरअसल दक्षिण भारतीय राज्यों को लग रहा है कि बढ़ती जनसंख्या पर सफल नियंत्रण की वजह से उन्हें राजनीतिक और आर्थिक तौर पर नुकसान उठाना पड़ रहा है। यही वजह है कि उनके मुख्यमंत्री जनता से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील कर रहे हैं, लेकिन उनका यह आह्वान भारतीय संघीय लोकतांत्रिक ढांचे के लिए सही नहीं है। इसके भारत को दुष्परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।
दक्षिण भारतीय राज्य यह प्रचारित कर रहे हैं कि जनगणना के बाद होने वाले परिसीमन से लोकसभा में उत्तर भारत के राज्यों का दबदबा और बढ़ जाएगा। परिसीमन आयोग के 1976 के आदेश के बाद लोकसभा सीटों की संख्या स्थिर कर दी गई थी और अभी यह 543 है। 2001 में 'जनसंख्या सीमित करने के उपायों' के लिए 25 साल के लिए लोकसभा सीटों की संख्या एक बार फिर से फ्रीज कर दी गई थी। अब जनगणना के बाद परिसीमन की चर्चा जोर पकड़ चुकी है। केंद्र सरकार ने कहा है कि जनगणना के अनुसार परिसीमन की कवायद की जाएगी।
आंध्र और तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों की पहली चिंता लोकसभा सीटों के संदर्भ में 2029 से पहले होने वाले संभावित परिसीमन को लेकर है। संभावना है कि इसके बाद लोकसभा की सीटों की मौजूदा संख्या 543 से बढ़कर 790 हो जाए। अगर जनसंख्या में बदलाव के आधार पर लोकसभा की सीटें तय की गईं तो पांच दक्षिण भारतीय राज्यों की 23 सीटें कम हो जाएंगी।
वहीं यूपी, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की सीटों की संख्या में 35 की बढ़ोतरी हो जाएगी, क्योंकि इन पांच राज्यों में ही भारत की करीब आधी आबादी है। अगर परिसीमन आयोग लोकसभा सीटों की संख्या में कोई बदलाव नहीं करता तो भी जनसंख्या के आधार पर पांच दक्षिणी राज्यों की 25 सीटें घट जाएंगी और ज्यादा जनसंख्या वाले पांचों राज्यों के खाते में 33 सीटें अधिक जुड़ जाएंगी।
अगर परिसीमन आयोग तय करता है कि किसी भी राज्य की मौजूदा लोकसभा सीटों की संख्या कम नहीं होगी, लेकिन बड़ी आबादी वाले राज्यों को भी उसी के मुताबिक सीटें दी जाएंगी तो भी आंध्र, कर्नाटक, तेलंगाना को जहां 23 सीटें ही और मिलेंगी तथा केरल की सीट 20 पर ही सीमित रहेगी, लेकिन पांच बड़े राज्यों की लोकसभा सीटों की मौजूदा संख्या में 150 सीटों की बढ़ोतरी हो जाएगी।
चूंकि राज्यों को केंद्रीय सहायता मिलने में आबादी की भी भूमिका होती है इसलिए दक्षिण के राज्य यह शिकायत कर रहे हैं कि उन्हें आबादी पर नियंत्रण पाने के चलते नुकसान उठाना पड़ा रहा है और केंद्रीय फंड में उनकी हिस्सेदारी कम होती जा रही है। यह पूरी तौर पर सही नहीं, क्योंकि 13वें वित्त आयोग (2010-15) से लेकर 15वें वित्त आयोग (2021-26) की सिफारिशों के अनुसार दक्षिण भारतीय राज्यों की हिस्सेदारी घटी जरूर है, लेकिन इसमें बिहार और यूपी जैसे सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य भी शामिल हैं।
जैसे तमिलनाडु की हिस्सेदारी पांच प्रतिशत से घटकर 4.1 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश की 6.9 प्रतिशत से चार प्रतिशत, कर्नाटक की 4.3 प्रतिशत से 3.6 प्रतिशत और केरल की 2.3 प्रतिशत से 1.9 प्रतिशत हुई है। वहीं यूपी की हिस्सेदारी 19.7 प्रतिशत से घटकर 17.9 प्रतिशत और बिहार की 10.9 प्रतिशत से 10.1 प्रतिशत हुई है। ज्यादा आबादी वाले राज्यों में सिर्फ मध्य प्रदेश, बंगाल, महाराष्ट्र और राजस्थान के केंद्रीय फंड में ही इजाफा हुआ है। 16वें वित्त आयोग की सिफारिशें अगले वित्त वर्ष से लागू होनी हैं।
इसमें भले ही प्रत्येक राज्य को मिलने वाली फंडिंग में वृद्धि हो रही हो, लेकिन सापेक्ष हिस्सेदारी में परिवर्तन हुआ है। राज्यों की हिस्सेदारी तय करने के फार्मूले में जनसंख्या का भार पहले के 80-90 प्रतिशत से गिरकर 15 प्रतिशत हो गया है। 14वें वित्त आयोग ने सरकारी राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी की गणना करने के लिए 'जनसांख्यिकीय परिवर्तन' मानदंड यानी प्रवासन और आयु संरचना का उपयोग किया था। इससे आंध्र और तमिलनाडु की हिस्सेदारी में गिरावट आई। 15वें वित्त आयोग ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए 'दंडित' किए जाने पर राज्यों के बीच चिंताओं को दूर करने के लिए ही 'जनसांख्यिकीय प्रदर्शन' का एक मानदंड जोड़ा।
दक्षिण के राज्य यह भी न भूलें कि आटोमोबाइल से लेकर साफ्ट ड्रिंक, स्मार्ट फोन से लेकर कपड़े के उत्पादन में अगर दक्षिण भारत का बड़ा योगदान है तो इस सबकी खपत सबसे ज्यादा उत्तर भारतीय बाजारों में ही होती है। इससे ही उनके राजस्व में बढ़ोतरी हो रही है। दक्षिण भारतीय राज्यों के लिए उत्तर भारत के ज्यादा आबादी वाले राज्य मजदूरों के आपूर्तिकर्ता की भी भूमिका निभा रहे हैं।
उन्हें आबादी बढ़ाने की अपील करने के स्थान पर उत्तर भारत की आबादी का उपयोग करना चाहिए। उत्तर भारत के मजदूर दक्षिण के राज्यों में जाकर उनके राजस्व में ही योगदान दे रहे हैं। इसलिए दक्षिण भारतीय राज्यों का आबादी बढ़ाने पर जो जोर है, उसके तात्कालिक फायदे तो हो सकते हैं, लेकिन आगे चलकर ज्यादा आबादी की जो परेशानियां बड़े राज्य झेल रहे हैं, वे उन्हीं भी झेलनी पड़ सकती हैं।
(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हैं)