प्रेमपाल शर्मा। छले दिनों केंद्र सरकार ने अस्सी वर्ष से ज्यादा उम्र के अपने पेंशनधारियों के अनुकंपा भत्ते में 20 से 100 प्रतिशत तक वृद्धि करने की घोषणा की। यह अतिरिक्त पेंशन होगी। सरकार का यह फैसला चकित करता है। आखिर वह इतनी दयालुता क्यों दिखा रही है? क्या उसने ऐसा कोई अध्ययन किया कि 80 साल से अधिक आयु वाले सेवानिवृत्त सरकारी कर्मियों की वित्तीय हालत अच्छी नहीं है?

इस उम्र तक आते-आते तो लोगों की जरूरतें न्यूनतम हो जाती हैं, फिर अनुकंपा भत्ते में इतनी वृद्धि क्यों? वैसे मानवीय दृष्टिकोण से विचार करें तो बुजुर्गों, दिव्यांगों और गरीबों की चिंता करना हर कल्याणकारी सरकार की जिम्मेदारी है और सरकारें उसे अपनी सामर्थ्य भर पूरा कर भी रही हैं, लेकिन जब खुशहाली के पैमाने पर हमारी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, तब हमें पहले नौजवान पीढ़ी, नवजात बच्चों, उनकी माताओं और मजदूरों की चिंता करनी चाहिए, न कि उन बुजुर्गों की, जिनका जीवन सरकारी नौकरी में पहले से ही सभी पैमाने पर देश के आम आदमी से कहीं अच्छा है।

सरकारी नौकरी में रहते हुए कर्मचारियों को तमाम सुविधाएं मिलती हैं। रिटायरमेंट के बाद भी उन्हें अच्छी-खासी पेंशन मिलती है। अभी हाल में सरकार ने तीन प्रतिशत महंगाई भत्ता और बढ़ाया है। सभी सरकारी कर्मचारियों को मेडिकल सुविधाएं मुफ्त में मिलती हैं। रेलवे और कुछ अन्य विभागों में रिटायरमेंट के बाद कर्मचारियों को यात्रा के लिए सरकारी पास, तो रक्षा और दूसरी नौकरियों में रियायती दर पर सामान आदि मिलते हैं। नौकरी में रहते हुए उन्हें सरकारी घर, दफ्तर आने-जाने के लिए कार आदि की सुविधा, यात्रा भत्ता, लीव इनकैशमेंट, बोनस आदि मिलते हैं।

केंद्रीय सेवाओं में लगभग 35 लाख सरकारी कर्मचारी और 70 लाख पेंशनधारी हैं। मेडिकल और दूसरी सुविधाओं की वजह से आज लोगों की औसत उम्र भी अच्छी हो गई है। यही कारण है कि सरकारी बजट में पेंशनधारियों का बोझ मौजूदा सरकारी कर्मचारियों से लगभग दोगुना है। इन्हीं सब वजहों से 2004 में सबकी सहमति से पुरानी पेंशन स्कीम के बजाय नई पेंशन स्कीम लागू की गई थी। उसके प्रति असंतोष को देखते हुए सरकार सरकारी कर्मियों के लिए यूनिफाइड पेंशन स्कीम लाई है। एक अच्छी लोक कल्याणकारी सरकार वह होती है, जो देश के हर नागरिक की चिंता करे।

इसी देश में निजी क्षेत्र में पूरी उम्र गुजारने के बाद भी करोड़ों कर्मचारियों के लिए संतोषजनक न्यूनतम पेंशन की सुविधा उपलब्ध नहीं है। इन कर्मियों की न्यूनतम पेंशन मात्र एक हजार रुपये है। आखिर निजी क्षेत्र के कर्मियों को सरकारी कर्मियों जैसी पेंशन क्यों नहीं मिलनी चाहिए? सरकारी कर्मचारी तो देश में मुश्किल से एक प्रतिशत हैं।

आखिर 99 प्रतिशत जनता को देने के लिए सरकार के पास क्या है? आज किसान गांव छोड़कर शहरों में मजदूर बनने के लिए अभिशप्त हैं। क्या सरकार के पास घरों में काम करने वाली महिलाओं के लिए कोई स्कीम है? पिछले दिनों खबर आई कि सरकार अपनी महिला कर्मचारियों के लिए भी हर महीने माहवारी छुट्टी पर विचार कर रही है। क्या निजी कंपनियां अपने यहां काम करने वाली महिलाओं को ऐसी छुट्टी देंगी?

सरकारी सेवाओं में कार्यरत महिलाओं के लिए 20 वर्ष पहले चाइल्ड केयर लीव शुरू हुई थी। वे अपने 18 वर्ष तक के बच्चों की पढ़ाई आदि के लिए दो वर्ष तक वेतन एवं सुविधाओं के साथ घर पर रह सकती हैं। अब पिता को भी कुछ राज्य सरकारें छुट्टी देने लगी हैं। पहले मातृ अवकाश तीन महीने का मिलता था, अब सरकारी कर्मचारियों को छह महीने मिलता है, जबकि मजदूर महिलाओं के बच्चे सड़कों और पार्कों में गर्मी एवं बरसात में घूमते रहते हैं।

अगर केंद्र सरकार की तर्ज पर राज्य सरकारें भी ऐसी रेवड़ियां बांटने की कोशिश करने लगीं तो फिर देश की आर्थिक स्थिति का क्या होगा? पंजाब और हिमाचल प्रदेश का उदाहरण हमारे सामने है। अच्छा तो यही होगा कि सरकारें बुनियादी ढांचे के साथ-साथ ऐसे उद्योगों में पूंजी लगाएं, जिनसे अधिक से अधिक रोजगार पैदा हों। बुजुर्गों की इतनी चिंता के बजाय नई पीढ़ी के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध करना ज्यादा जरूरी है।

सरकारी नौकरियों में भरपूर सुविधाएं और निजी एवं असंगठित क्षेत्र में सुविधाओं की कमी के समाज पर बुरे असर होते हैं। आज देश का हर युवा सरकारी नौकरी में जाना चाहता है। एक चपरासी की नौकरी के लिए इंजीनियरिंग, पीएचडी किए नौजवान आगे आते हैं। सरकारी नौकरियों की भर्ती में भ्रष्टाचार का कारण ऐसी ही सुविधाएं और रेवड़ियां भी हैं।

यही कारण है कि नेता चुनाव से पहले सरकारी नौकरियों की घोषणा सबसे पहले करते हैं। क्या निजी क्षेत्र के लोग सरकारी कर्मचारियों से कम काम करते हैं? क्या उनके काम की चुनौती कमतर है? क्या उन्हें सरकारी कर्मचारियों जैसी सुविधाएं मिलती हैं? यदि नहीं तो क्यों? क्या सरकारी स्कूल के शिक्षक अपने बच्चों को भी सरकारी स्कूलों में पढ़ाते हैं? अब तो कालेज में पढ़ाने वाले भी अपने बच्चों को इंग्लैंड, कनाडा एवं अमेरिका भेजते हैं।

पिछले हफ्ते ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस बात पर चिंता जताई थी कि बच्चे पढ़ने विदेश भाग रहे हैं। पिछले वर्ष 14 लाख बच्चे पढ़ने के लिए बाहर गए। इसमें अरबों रुपये विदेश चले गए। ऐसे में संविधान में जिस समानता की बात की गई है, उसे ध्यान में रखते हुए सरकार केवल सरकारी कर्मचारियों के ही हितों की चिंता न करे। उसे सबका साथ-सबका विकास नारे के तहत सबकी चिंता करनी चाहिए। उसे यह संदेश नहीं देना चाहिए कि वह सरकारी कर्मियों के हितों की रक्षा के लिए अधिक तत्पर और संवेदनशील है।

(लेखक भारत सरकार में संयुक्त सचिव रहे हैं)