जागरण संपादकीय: जनअपेक्षाओं से दूर होते अधिकारी, आम लोगों की सुनवाई को लेकर होना होगा संवेदनशील
ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने दीर्घकाल तक शासन किया। भारतीय प्रशासनिक सेवाएं भी ब्रिटिश सत्ता का विस्तार जान पड़ती हैं। मूलभूत प्रश्न है कि जो भारत सैकड़ों वर्ष पहले अपनी शासन प्रणाली के लिए महत्वपूर्ण रहा है इसी भारत में संप्रभुता सफल संविधान और सुयोग्य नेतृत्व की उपलब्धियों के बावजूद प्रशासनिक तंत्र साधारण जनों के प्रति संवेदनशील क्यों नहीं है?op
हृदयनारायण दीक्षित। दक्ष और संवेदनशील प्रशासन का विकल्प नहीं होता। गत दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने युवा लोकसेवकों के साथ शासन व्यवस्था को बेहतर बनाने पर चर्चा की। उन्होंने मजबूत फीडबैक और लोक शिकायत निस्तारण की पद्धति में सुधार की आवश्यकता बताई। उन्होंने युवा लोकसेवकों से आम जनों के जीवन को सुगम बनाने का आग्रह किया।
भारत में शासन चलाने के लिए अधिकारियों का बड़ा वर्ग है। सरकार संचालन के लिए व्यावसायिक रूप से दक्ष प्रशासनिक तंत्र की आवश्यकता होती है। संविधान निर्माता निष्पक्ष अधिकारियों का तंत्र चाहते थे। संविधान के अनुच्छेद 311 में प्रशासनिक तंत्र के अधिकार और सुरक्षा कवच वर्णित हैं।
विश्व के किसी भी लोकतांत्रिक देश में सरकारी अधिकारियों को भारत जैसा कानूनी संरक्षण नहीं है। बावजूद इसके प्रशासनिक तंत्र जन अपेक्षाओं से दूर है। आम जनों में प्रशासनिक तंत्र के प्रति अच्छी धारणा नहीं है। तत्काल हो जाने वाला छोटा-सा काम भी वे समय पर नहीं करते। अधिकारी जन अपेक्षाओं की उपेक्षा करते हैं। प्रशासनिक तंत्र का रवैया चिंताजनक है।
दरअसल भारत की प्रशासनिक व्यवस्था ब्रिटिश शासन की उधारी है। मारिस जांस ने लिखा था, ‘सत्ता हस्तांतरण के साथ अंग्रेज चले गए, लेकिन प्रशासन तंत्र का आकार, कार्य के ढंग सब ज्यों के त्यों रहे।’ संविधान सभा में ब्रिटिश संस्कारों वाले प्रशासनिक तंत्र की आलोचना हुई। हालांकि सरदार पटेल ने सभा में प्रशासन की प्रशंसा की। कहा कि ‘मैंने इस कठिन समय में उनके साथ काम किया है। इन्हें हटा लिया गया तो अराजकता बढ़ेगी।’
अंग्रेजी राज प्रशासन की इकाई जिला थी। तब के जिलाधिकारी श्रेष्ठ ग्रंथि के शिकार थे। वे राजा थे और भारत के लोग प्रजा। स्वतंत्रता के बाद लोक कल्याण और विधि के शासन की स्थापना पर देश आगे बढ़ा, लेकिन अफसरों की आम जनों से दूरी और बढ़ती गई। माना जाता है कि सिविल सेवाओं में प्रतिभाशाली लोग आते हैं। तमाम अधिकारी नतीजे देने की कोशिश करते हैं, लेकिन गरीबों, वंचितों और पीड़ितों के प्रति उनमें संवेदनशीलता दुर्लभ है।
प्रशासनिक तंत्र के लिए काम पूरा न होने के कारण बताना आसान है। इसलिए प्रशासनिक सुधार की प्रक्रिया प्रत्येक समय अनिवार्य रहती है। ब्रिटिश सत्ता में भी प्रशासनिक सुधारों के लिए आयोग बनाए गए थे। 1918 में मांटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट आई थी। 1948 में कस्तूर भाई लाल भाई के नेतृत्व में मितव्ययिता समिति बनी थी और 1949 में अयंगर समिति। 1951 में गोरेवाला समिति ने कई विषयों पर अपनी रिपोर्ट दी। अमेरिकी लोक प्रशासन विशेषज्ञ एप्पलेबी ने भी 1953 में भारत के लोक प्रशासन सर्वेक्षण पर रिपोर्ट पेश की थी।
भ्रष्टाचार पुराना रोग है। देश में 1948 में जीप खरीद घोटाला चर्चा का विषय था। 1957 के मूंदणा घोटाले में केंद्रीय मंत्री भी शामिल पाए गए। तत्कालीन गृहमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने संपूर्ण तंत्र की समीक्षा और सुझाव के लिए के. संथानम की अध्यक्षता में समिति का गठन किया। 1964 में सतर्कता आयोग का गठन हुआ। 1966 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में प्रशासनिक सुधार आयोग बना। इसी बीच वह मंत्री बन गए। फिर के. हनुमंतैया को अध्यक्ष बनाया गया। आयोग ने अपनी पहली रिपोर्ट 1966 तथा दूसरी 1970 में दी। 2005 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग बना। उनकी रिपोर्ट भी बेनतीजा रही।
संविधान की प्रस्तावना और नीति निदेशक तत्व सरकार और प्रशासन तंत्र के मार्गदर्शक हैं। प्रशासनिक तंत्र से उच्च स्तर की व्यावसायिक योग्यता की अपेक्षा है। प्रधानमंत्री का आग्रह उचित और विचारणीय है। संविधान में कार्यपालिका नीति नियंता है। सरकार विधायिका के प्रति जवाबदेह है। प्रशासनिक तंत्र की सीधी जवाबदेही नहीं है। उसका दबदबा चिंताजनक है। निर्वाचित जनप्रतिनिधि और अधिकारियों के बीच तनाव रहता है। केंद्र ने विधायकों-सांसदों को सम्मान देने एवं पत्रोत्तर देने का शासनादेश पिछली सदी के सातवें दशक में जारी किया था।
राज्य सरकारों द्वारा भी यह विषय बार-बार दोहराया जाता है, लेकिन प्रशासनिक तंत्र इसे महत्व नहीं देता। कुछ अधिकारी कहते हैं कि वे स्थायी कार्यपालिका हैं। विधायिका और सरकार का कार्यकाल पांच वर्ष का है। बेशक अधिकारियों का एक वर्ग कर्तव्य पालक है, लेकिन पुलिस का व्यवहार अच्छा नहीं है। वे साधारण बातचीत में भी ठीक व्यवहार नहीं करते। प्रशासनिक अधिकारियों को अपने आचार और व्यवहार को जनअपेक्षा के अनुरूप ढालना चाहिए।
भारत दुनिया की प्राचीनतम सभ्यता और संस्कृति का धारक है। ऋग्वेद के रचनाकाल के समय भी यहां सुंदर प्रशासनिक व्यवस्था थी। राजनीतिक व्यवस्था की इकाई परिवार थी। अनेक परिवारों को मिलाकर ग्राम बनता था। ग्राम के अधिकारी को ग्रामणी कहा जाता था। ग्रामों को मिलाकर बने समूह को विश कहते थे। विश के अधिकारी को विशपति कहते थे। कई विश मिलकर जन बनते थे। जन के प्रधान अधिकारी को गोप कहा गया। यहां सभा और समितियां भी थीं। सिंधु घाटी सभ्यता में भी प्रशासनिक इकाइयां थीं और उत्तर वैदिक काल में भी। अनेक शक्तिशाली राजा भी थे। उत्तर वैदिक काल में एक केंद्र में अनेक प्रशासनिक अधिकारी थे। वे कठिनाइयां दूर करने के लिए काम करते थे।
महाकाव्य काल में यहां बड़े साम्राज्यों की स्थापना हुई। अनेक गणतंत्र भी थे। बौद्ध काल का शासन स्मरणीय है। चंद्रगुप्त मौर्य प्रशासन महत्वपूर्ण था। कौटिल्य का अर्थशास्त्र, मेगास्थनीज की इंडिका, अशोक के शिलालेख एवं अनेक प्राचीन पुस्तकों में मौर्य शासन (320 ईसा पूर्व) की जानकारी मिलती है। चीनी यात्री फाह्यान ने भी भारतीय प्रशासन की प्रशंसा की। गुप्त प्रशासन के कार्य इतिहास का सत्य हैं।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)