दक्षिण में भाजपा की संभावनाएं, 400 पार का नारा बंगाल के अलावा दक्षिण के लिए भी महत्वपूर्ण
तेलंगाना विधानसभा चुनाव में भाजपा को आठ सीटें और 14 प्रतिशत मत मिले थे। यहां भाजपा पिछले लोकसभा चुनाव में मिली चार सीटों और 19.5 प्रतिशत वोटों की तुलना में कहीं बेहतर प्रदर्शन करेगी। यही स्थिति आंध्र में है जहां चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देसम पार्टी और पवन कल्याण की जनसेना के साथ से उसकी स्थिति बेहतर रहने के आसार हैं।
डॉ एके वर्मा। लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाजपा के लिए 370 और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग के लिए 400 पार सीटों का लक्ष्य रखा है। इससे पहले 2019 के चुनाव में भाजपा को 303 और राजग को 352 सीटें मिली थीं। अब अकाली दल, अन्नाद्रुमक आदि राजग में नहीं हैं।
इस तरह मोदी ने अपने लक्ष्य में राजग के लिए 2019 के मुकाबले करीब 50 सीटों की बढ़ोतरी की है, लेकिन ये सीटें आएंगी कहां से? ऐसा लक्ष्य निर्धारित करने में या तो मोदी ने अपने कार्यकर्ताओं के उत्साहवर्धन के लिए ‘निशाने से तीर ऊपर मारो, वर्ना वार खाली जायेगा’ का सिद्धांत अपनाया है या फिर यह उनका वस्तुनिष्ठ आकलन हो सकता है। इन 50 सीटों की संभावना बंगाल के अतिरिक्त दक्षिणी राज्यों-तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश पर टिकी है।
कर्नाटक में भाजपा का बड़ा जनाधार है। पिछले साल विधानसभा चुनावों में हारने के बावजूद भाजपा का जनाधार 38 प्रतिशत पर बना रहा, जो 2018 के बराबर था, जब भाजपा जीती थी। 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को कर्नाटक में 25 सीटें और 51.38 प्रतिशत वोट मिले थे। इस बार भी इसमें कोई विशेष कमी आने के आसार नहीं, क्योंकि कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु देश की सिलिकान वैली कही जाती है।
वैश्विक स्तर पर उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। जिस प्रकार मोदी ने देश को वैश्विक स्तर पर स्थापित किया है और भारतीय प्रौद्योगिकी की मार्केटिंग की है, कर्नाटक का मतदाता उनके नेतृत्व में देश का उज्ज्वल भविष्य देखता है। इस बार जद-एस के साथ भाजपा का गठबंधन वोक्कालिगा मतदाताओं को और अधिक साधने में सहायक हो सकता है।
केरल में पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा का जनाधार 13 प्रतिशत रहा, जिसके कुछ बढ़ने की संभावना है। केरल में 49 प्रतिशत अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई) और 51 प्रतिशत हिंदू हैं। अल्पसंख्यक मतदाता कांग्रेस नेतृत्व वाले यूडीएफ तथा हिंदू मतदाता वाम नेतृत्व वाले एलडीएफ को पारंपरिक रूप से समर्थन देते आए हैं। केरल में साम्यवादियों के नेतृत्व में सामाजिक सुधार आंदोलन हुए, जिसने जाति प्रथा में सुधार को लक्ष्य किया, जिससे हिंदू समाज की दलित और पिछड़ी जातियों का झुकाव वाम दलों की ओर हो गया।
केरल में एलडीएफ और यूडीएफ ने राजनीतिक विमर्श सेक्युलरिज्म, समान नागरिक संहिता, नागरिकता संशोधन कानून, संविधान और लोकतंत्र पर खतरा, अनुच्छेद-370 आदि पर केंद्रित कर रखा है। इसकी काट के लिए भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई संगठन सक्रिय हैं। अपने स्तर पर सोशल इंजीनयरिंग की जा रही है। इससे केरल में पार्टी का जनाधार बढ़ सकता है, लेकिन अभी सीटों के लिए भाजपा को शायद प्रतीक्षा करनी होगी।
तमिलनाडु में मोदी संभवतः इतिहास रचने जा रहे हैं। राज्य में भाजपा का खास जनाधार नहीं रहा है। पिछले लोकसभा चुनावों में द्रमुक ने 27 सीटों पर चुनाव लड़कर सभी सीटें अपने नाम कीं। पिछले चुनाव में भाजपा को मात्र 3.66 प्रतिशत वोट मिले थे। हालांकि वह गठबंधन की वजह से कम सीटों पर चुनाव लड़ी थी। आखिर पांच वर्षों में कौन सी क्रांति हो गई, जिससे भाजपा उम्मीदें लगाए बैठी है? 1967 से तमिलनाडु की राजनीति का आधार ‘द्रविड़-राजनीति’ बन गई और चुनाव द्रमुक-अन्नाद्रमुक के बीच सिमट गया, मगर लगता है कि अब जनता द्रविड़ पार्टियों से ऊब चुकी है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि द्रमुक काडर आधारित सशक्त पार्टी है और अभी तमिलनाडु में उसका कोई प्रभावी विकल्प नहीं, लेकिन पार्टी पर भ्रष्टाचार एवं परिवारवाद में लिप्त होने के आरोप हैं। अन्नाद्रमुक का जन्म द्रमुक से ही हुआ और एमजी रामचंद्रन और जयललिता ने इसे जन-जन तक पहुंचाया। हालांकि जयललिता की मृत्यु के बाद पार्टी में नेतृत्व संघर्ष के चलते वह कमजोर हुई। इससे तमिल राजनीति में एक रिक्तता आई, जिसे भाजपा ने भरने का प्रयास शुरू किया है। भाजपा ने तमिलनाडु की नौ छोटी पार्टियों से गठबंधन भी किया, जिससे राज्य में संदेश गया कि भाजपा गरीबों, वंचितों और उपेक्षितों के साथ है, जो चुनावों में सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।
तमिलनाडु की खासियत है कि जनता किसी एक पार्टी को एकमुश्त वोट करती है। 2014 में अन्नाद्रमुक 38 सीटें जीत गई और 2019 में स्टालिन के नेतृत्व में द्रमुक गठबंधन अधिकांश सीटें जीत गया। इस बार यदि द्रमुक के भ्रष्टाचार-परिवारवाद के विरुद्ध वोट पड़े होंगे और जनता को अन्नाद्रमुक का विकल्प भाजपा में दिखा होगा तो वह तमिलनाडु में अप्रत्याशित प्रदर्शन कर सकती है। तमिल राजनीति व्यक्ति केंद्रित भी रही है।
मोदी के वैश्विक व्यक्तित्व ने भाजपा को अवसर दिया कि वह तमिल राजनीति में उन्हें भाजपाई राजनीति की धुरी बनाए। इसीलिए मोदी ने तमिलनाडु के कई दौरे किए। हर जगह तमिल चिंतक तिरुवल्लुवर और उनकी रचना तिरक्कुरल का उल्लेख किया। अपनी रैलियों में कामराज और एमजी रामचंद्रन के पोस्टर लगवाए। राजसत्ता के तमिल-प्रतीक ‘सेंगोल’ की संसद में स्थापना की। काशी तमिल संगमम् से उत्तर-दक्षिण भारत को जोड़ने का प्रयास किया। इन प्रयासों के बावजूद एक स्थानीय व्यक्तित्व चाहिए था, जो द्रमुक और अन्नाद्रमुक को कड़ी चुनौती दे सके।
इसके लिए भाजपा ने एक कर्मठ, प्रभावशाली और पूर्व आइपीएस अधिकारी अन्नामलाई को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया। अन्नामलाई ने तमिलनाडु के सभी निर्वाचन क्षेत्रों की थाह ली। भाजपा की विचारधारा को स्थानीय भाषा में जनता को समझाया। भाजपा और अन्नाद्रमुक दोनों राष्ट्रवादी विचारधारा की पार्टी हैं, जिससे अन्नाद्रमुक समर्थकों को भाजपा में बेहतर विकल्प दिख रहा है। महिलाएं भी अन्नाद्रमुक से ज्यादा जुड़ी थीं और मोदी सरकार की महिला केंद्रित योजनाओं से भाजपा की ओर मुड़ी हैं। अन्नाद्रमुक की लोकप्रिय नेता रहीं जयललिता और मोदी के संबंध भी हमेशा मधुर रहे।
तेलंगाना विधानसभा चुनाव में भाजपा को आठ सीटें और 14 प्रतिशत मत मिले थे। यहां भाजपा पिछले लोकसभा चुनाव में मिली चार सीटों और 19.5 प्रतिशत वोटों की तुलना में कहीं बेहतर प्रदर्शन करेगी। यही स्थिति आंध्र में है, जहां चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देसम पार्टी और पवन कल्याण की जनसेना के साथ से उसकी स्थिति बेहतर रहने के आसार हैं।
(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)