जागरण संपादकीय: अमेरिका में ट्रंप के आने का असर, होंगे व्यापक बदलाव
यह तय है कि ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में भी व्यापक बदलाव होंगे और अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर भी। चूंकि रूसी राष्ट्रपति से उनके बेहतर संबंध रहे हैं इसलिए माना यह जा रहा है कि वह रूस–यूक्रेन युद्ध रोकने में सफल हो सकते हैं। इस मामले में बाइडन पूरी तरह नाकाम रहे और इसी कारण उनकी छवि एक कमजोर राष्ट्रपति की बनी।
संजय गुप्त। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को लेकर पूरी दुनिया में उत्सुकता रहती है। यह इसलिए रहती है, क्योंकि अमेरिका पूरे विश्व को प्रभावित करने वाला देश है। इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव इसलिए विशेष आकर्षण का केंद्र बना, क्योंकि पिछली बार राष्ट्रपति का चुनाव हार चुके पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप फिर से चुनाव मैदान में थे और उनके सामने भारतीय-अफ्रीकी मूल की कमला हैरिस थीं। वह करीब छह महीने पहले राष्ट्रपति की उम्मीदवार इसलिए बनीं, क्योंकि राष्ट्रपति जो बाइडन को बढ़ती उम्र के कारण चुनाव लड़ने से पीछे हटना पड़ा। उपराष्ट्रपति कमला हैरिस के चुनाव हार जाने से अमेरिका एक बार फिर उनके रूप में पहली महिला राष्ट्रपति से वंचित हो गया। आठ वर्ष पहले उनकी तरह हिलेरी क्लिंटन को भी हार का सामना करना पड़ा था। उन्हें भी ट्रंप ने ही हराया था।
ट्रंप अपने बड़बोलेपन के कारण विवादित नेता हैं। उन्हें महाभियोग का सामना करना पड़ा था और एक कालगर्ल को पैसे देकर चुप कराने के मामले में सजा का भी सामना करना पड़ा। उनके खिलाफ कुछ और भी मामले चल रहे हैं। इस सबके बाद भी वह चुनाव जीत गए। चुनाव प्रचार के दौरान उन पर हमले भी हुए। एक बार तो वह तब बाल-बाल बचे, जब उन पर चलाई गई गोली उनके कान को छूकर निकल गई। ट्रंप के चुनाव जीतने का एक कारण यह रहा कि उनके मुकाबले कमला हैरिस कमजोर प्रत्याशी साबित हुईं। उन्हें डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से प्रत्याशी घोषित किए जाने में देरी हुई। राष्ट्रपति के रूप में जो बाइडन का कामकाज भी उन पर भारी पड़ा। बाइडन में वह ओज और ऊर्जा नहीं दिखी, जिसके लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जाने जाते रहे हैं। वह समय पर ठोस फैसले नहीं ले सके-न तो घरेलू मामलों में और न ही बाहरी मामलों में। वह न तो रूस और यूक्रेन के बीच छिड़े युद्ध में हस्तक्षेप कर उसे रोक सके और न ही इजरायल और हमास के संघर्ष को रोक सके। अमेरिकी जनता को यह पसंद नहीं आया कि अमेरिका यूक्रेन को हथियार देकर एक तरह से युद्ध में परोक्ष रूप से भागीदारी करे। बाइडन ने यूक्रेन को हथियार भी दिए तो बस इतने कि वह किसी तरह रूस का मुकाबला करता रह सके। अमेरिकी जनता इससे भी नाखुश थी कि इजरायल उनके राष्ट्रपति की बात सुनने को तैयार नहीं।
कमला हैरिस के राष्ट्रपति न बनने के पीछे औसत अमेरिकी लोगों का यह सोच भी दिखता है कि महिलाएं बेहतर राष्ट्रपति नहीं साबित हो सकतीं। यह अचरज का विषय है कि अमेरिकी समाज अभी भी पुरुषप्रधान मानसिकता से ग्रस्त दिखता है। कमला हैरिस की पराजय का एक कारण यह भी दिखता है कि जहां ट्रंप के नेतृत्व में रिपब्लिकन पार्टी अवैध अप्रवासियों को अमेरिका के लिए खतरा बता रही थी, वहीं डेमोक्रेट नेता उनके प्रति उदारता दिखा रहे थे। विश्व का शायद ही कोई देश हो, जहां के लोग अमेरिका जाकर बसने के लिए इच्छुक न रहते हों। सबसे अधिक अवैध अप्रवासी मेक्सिको के रास्ते अमेरिका पहुंचते हैं। जब ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति बने थे, तब उन्होंने मेक्सिको सीमा पर एक दीवार तक खड़ी करने की पहल की थी। बाइडन ने राष्ट्रपति बनते ही अवैध रूप से अमेरिका आने वालों को खतरा मानने से इन्कार कर दिया। इसके नतीजे में पिछले चार वर्षों में लाखों लोग अवैध रूप से अमेरिका आ गए। लगता है अमेरिकी जनता और यहां तक कि दूसरे देशों से वैध रूप से आए लोगों को भी यह नहीं भाया। इसका प्रमाण यह है कि लैटिन अमेरिकी देशों के उन लोगों ने भी ट्रंप के पक्ष में मतदान किया, जो वैध रूप से अमेरिका आए और यहां के नागरिक बने। इसके अतिरिक्त अश्वेतों ने भी ट्रंप को वोट दिया। दक्षिणपंथी श्वेत तो उनके समर्थक पहले से ही थे। कमला हैरिस को इसका भी नुकसान उठाना पड़ा कि बाइडन के कार्यकाल में अमेरिकी अर्थव्यवस्था शिथिल पड़ गई थी। लोग बढ़ती महंगाई से त्रस्त थे। अमेरिकी नागरिक अपनी अर्थव्यवस्था को लेकर बेहद सचेत रहते हैं। जो भी राष्ट्रपति अर्थव्यवस्था संभालने में नाकाम रहता है, उसे जनता की नाराजगी का सामना करना पड़ता है।
यदि कमला हैरिस राष्ट्रपति बनतीं तो इससे भारतीयों को वैसी ही खुशी होती, जैसी ऋषि सुनक के ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनने से हुई थी। उनके राष्ट्रपति बनने से अमेरिका में रह रहे भारतीयों को भी गर्व की अनुभूति होती, लेकिन लगता है कि उन्हें सभी अमेरिकी-भारतीयों का समर्थन नहीं मिल सका। जो भी हो, यह ध्यान रहे कि भारतीय मूल के जो लोग अमेरिका में राजनीति या व्यापार के क्षेत्र में परचम फहरा रहे हैं, उनकी प्राथमिकता में अमेरिका होता है, न कि भारत। हां, इतना जरूर है कि इनमें से अधिकांश भारत से लगाव रखते हैं। वैसे भारतीयों के पास खुश होने की यह वजह तो है ही कि उपराष्ट्रपति बनने जा रहे जेडी वेंस की पत्नी भारतीय मूल की ऊषा हैं। ट्रंप के चुनाव जीतने से इस प्रश्न के लिए गुंजाइश खत्म हो गई कि कमला हैरिस के राष्ट्रपति बनने से भारत और अमेरिका के संबंध कैसे होते? अब तो यह देखना होगा कि ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका और भारत के संबंध कैसे होंगे? सौभाग्य से संबंध बेहतर होने के ही आसार हैं, क्योंकि एक तो दोनों देशों को एक-दूसरे की जरूरत है और दूसरे प्रधानमंत्री मोदी की ट्रंप के साथ अच्छी केमेस्ट्री है। ट्रंप कई बार मोदी को अपना दोस्त बता चुके हैं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि चुनाव जीतने के बाद ट्रंप की जिन चंद विदेशी शासनाध्यक्षों से बात हुई, उनमें मोदी भी हैं।
यह तय है कि ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में भी व्यापक बदलाव होंगे और अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर भी। चूंकि रूसी राष्ट्रपति से उनके बेहतर संबंध रहे हैं इसलिए माना यह जा रहा है कि वह रूस–यूक्रेन युद्ध रोकने में सफल हो सकते हैं। इस मामले में बाइडन पूरी तरह नाकाम रहे और इसी कारण उनकी छवि एक कमजोर राष्ट्रपति की बनी। जहां तक इजरायल और हमास के बीच संघर्ष की बात है, यह तय है कि ट्रंप इजरायल का साथ नहीं छोड़ने वाले, लेकिन वह इसकी कोशिश अवश्य कर सकते हैं कि इजरायल गाजा, लेबनान में अपनी सैन्य कार्रवाई जितनी जल्दी संभव हो, बंद करे। इससे बेहतर और कुछ नहीं कि ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका विश्व को स्थिर रखने में सहायक बने।
[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]