डा. एके वर्मा। हाल के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में अपेक्षा से कमतर प्रदर्शन को लेकर भाजपा ने गहन मंथन शुरू किया है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भूपेन्द्र सिंह चौधरी ने केंद्रीय नेतृत्व को हार के 15 प्रमुख कारणों से अवगत कराया। भाजपा के ऐसे प्रदर्शन के कई कारण हो सकते हैं, किंतु पार्टी को मूल कारण पर ध्यान देना चाहिए। यहां दो प्रश्न महत्वपूर्ण हैं। एक, क्या चुनाव प्रचार के दौरान विपक्षी नैरेटिव ने नतीजों की तस्वीर पलट दी? दूसरा, क्या समग्र विकास और समावेशी राजनीति के मोदी माडल को दरकिनार कर प्रदेश में अस्मिता राजनीति की वापसी हो रही है?

‘सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स’ में हमने लोकसभा चुनावों के संदर्भ में उत्तर प्रदेश को लेकर दो अध्ययन किए। पहला अध्ययन जनवरी-मार्च में चुनाव पूर्व तथा दूसरा अप्रैल-जून में प्रत्येक चरण के मतदान के बाद किया गया। चुनाव पूर्व अध्ययन में 61 प्रतिशत उत्तरदाता भाजपा-राजग सरकार और 62 प्रतिशत नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में चाहते थे। इसमें 59 प्रतिशत शहरी और 60 प्रतिशत ग्रामीण मतदाता, 66 प्रतिशत युवा और बेरोजगार, 76 प्रतिशत ओबीसी, 43 प्रतिशत दलित और 21 प्रतिशत पसमांदा मुस्लिम भी मोदी के पक्ष में थे। केवल 14 प्रतिशत मतदाता सपा-कांग्रेस के साथ थे। हालांकि चुनाव प्रचार के दौरान विपक्षी दलों के नैरेटिव ने तस्वीर को काफी बदल दिया।

मतदान पश्चात के आंकड़ों में जहां भाजपा-राजग के समर्थन में 12.5 प्रतिशत की गिरावट आई, वहीं सपा-कांग्रेस के समर्थन में 29.2 प्रतिशत की जबरदस्त वृद्धि हुई, जो 14 प्रतिशत से बढ़कर 43.2 प्रतिशत हो गया। प्रधानमंत्री मोदी की स्वीकार्यता भी 62 प्रतिशत से घटकर 43 प्रतिशत रह गई। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा-राजग की लोकप्रियता में 10 से 12 प्रतिशत और बेरोजगार युवाओं में उसके समर्थन में 20 प्रतिशत की गिरावट आई। यह प्रमाण है कि चुनाव प्रचार के दौरान कुछ ऐसा अप्रत्याशित हुआ, जिसने संभावित परिणाम उलट दिया। यदि भाजपा ने इसे समझे बिना संगठन या सरकार के स्तर पर परिवर्तन हेतु कोई निर्णय लिया तो आगामी चुनावों में वह पार्टी के लिए आत्मघाती हो सकता है।

सवाल है कि मतदाता की मानसिकता में ऐसा बदलाव हुआ कैसे? कमजोर प्रदर्शन के जिन कारणों का उल्लेख भूपेन्द्र चौधरी कर रहे हैं, उनका मार्च तक तो प्रभाव नहीं दिख रहा था। फिर चुनाव प्रचार में ऐसा क्या हुआ, जिसने मतदाता का मतदान व्यवहार बदल दिया? चुनाव प्रचार की शुरुआत प्रधानमंत्री मोदी ने ‘अबकी बार, चार सौ पार’ के नारे से की और संभवतः ऐसा होता भी। कई राज्यों में भाजपा के शानदार प्रदर्शन से इस नारे के साकार होने के आसार बढ़ते दिखे, मगर कुछ राज्यों समेत उत्तर प्रदेश में यह नारा क्यों पिट गया? यदि भाजपा यूपी में पिछला प्रदर्शन ही दोहरा लेती तो उसे लोकसभा में अपने दम पर ही पूर्ण बहुमत मिल गया होता। प्रतीत होता है कि प्रदेश में चार सौ पार वाले नारे के नाकाम होने के दो कारण रहे। पहला, मोदी या भाजपा नेता जनता को समझाना भूल गए कि उन्हें इतनी सीटें चाहिए क्यों? दूसरा, अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने इस नारे को लपक कर भ्रम फैलाया कि 400 पार करके मोदी बाबा साहेब का संविधान बदल देंगे तथा आरक्षण समाप्त कर देंगे। इसने आरक्षण समर्थक दलितों और पिछड़ों को एक मंच पर लाकर अखिलेश के मृतप्राय ‘पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक यानी पीडीए वाले प्रयोग को संजीवनी दे दी। भाजपा का संकल्प-पत्र ‘मोदी की गारंटियों’ से पटा पड़ा था, लेकिन मोदी यह गारंटी न दे सके कि ‘न संविधान बदला जाएगा, न आरक्षण समाप्त होगा।’

वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में भी एक गठबंधन के तहत मायावती और अखिलेश साथ आए थे, लेकिन कोई जादू नहीं कर सके। संभव है कि दलित-पिछड़ों को साधने का अखिलेश का नया प्रयोग आगे सिरे न चढ़ पाए, क्योंकि समय के साथ स्थितियां स्पष्ट होती जाएंगी और यह भी किसी से छिपा नहीं कि दलित समाज ओबीसी को भी अपना शोषक मानता है। इसी कारण कांशीराम का 1978 वाला ‘बामसेफ’ प्रयोग असफल हुआ और सपा-बसपा दो ‘सबाल्टर्न’ सामाजिक धड़ों की अस्मिता का राजनीतिक प्रतिनिधित्व करने लगे। इसी कारण मायावती और दलित समाज स्वयं को सपा से ज्यादा भाजपा के निकट पाता है। अतः भाजपा को उत्तर प्रदेश में कमजोर प्रदर्शन को अपवादस्वरूप लेते हुए अपनी समावेशी नीति से पीछे नहीं हटना चाहिए। भाजपा के कुछ नेता प्रदेश में पार्टी की हार को आधार बनाकर अस्मिता की राजनीति पर लौटना चाहते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 से ही अस्मिता केंद्रित राजनीति को दरकिनार कर ‘सबका-साथ, सबका विकास’ वाली समावेशी राजनीति शुरू की। इसके चलते उत्तर प्रदेश में एक समय 15 से 17 प्रतिशत वोटों तक सिमटी भाजपा को 50 प्रतिशत तक वोट मिल सके। यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। सबका-साथ, सबका-विकास एक हकीकत बन गया और समावेशी विकास अंतिम कतार में खड़े गरीबों तक पहुंचा।

उत्तर प्रदेश में पूर्ववर्ती सरकारों की अस्मिता वाली राजनीति के चलते भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और अपराधीकरण पूरे ‘सिस्टम’ में इतना गहरी पैठ बना चुका है कि आज भी शासन-प्रशासन में अनेक विसंगतियां देखी जा सकती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि 2017 से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सख्त प्रशासन से जनता को राहत मिली और लोगों ने उनके विकास माडल को पसंद किया। फिर प्रधानमंत्री मोदी ने अथक प्रयासों से प्रदेश को जातिवादी राजनीति से वर्ग-राजनीति की दिशा में मोड़ा। उन्होंने महिला, सीमांत किसान, युवा और गरीब के रूप में चार वर्गों को चिह्नित किया तथा जाति-धर्म से ऊपर उठकर सभी के लिए काम किया। यूपी जैसे राज्य में जातिवादी राजनीति के ऊपर वर्गीय राजनीति का उभरना लोकतांत्रिक एवं समावेशी समाज के लिए शुभ संकेत है। यदि भाजपा नेतृत्व अपने किसी निर्णय से पुनः जातिवादी केंद्रित अस्मिता वाली राजनीति की ओर लौटता है तो वह एक प्रतिगामी कदम होगा, जो प्रधानमंत्री की समावेशी राजनीति की उस पहल को पलट देगा, जिसे उन्होंने बड़ी मेहनत से व्यावहारिक स्वरूप देने का प्रयास किया है।

(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)