डॉ. भरत झुनझुनवाला। भारत और चीन के बीच संबंध सामान्य होने के साथ ही एकल ब्रिक्स करेंसी की चर्चा आगे बढ़ रही है। एकल करेंसी का अर्थ है कि सभी सहभागी देशों की मुद्रा के स्थान पर एकल ब्रिक्स मुद्रा का चलन शुरू किया जाए। जैसे पूर्व में जर्मनी में मार्क और फ्रांस में फ्रैंक मुद्रा चलती थी। यूरोपीय संघ बनने के बाद सभी राष्ट्रीय मुद्राओं का लोप हो गया और सभी यूरोपीय देश एक ही मुद्रा यूरो का उपयोग करने लगे।

यूरो मुद्रा लागू होने के बाद यूरोपीय केंद्रीय बैंक द्वारा ब्याज दर और बैंकों को दी जाने वाली सुविधाएं निर्धारित की जाती हैं। आज जर्मनी और फ्रांस का मौद्रिक नीति पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया है। आज यदि फ्रांस चाहे कि उसके देश में ब्याज दर चार प्रतिशत हो, जबकि जर्मनी चाहे कि उसकी ब्याज दर छह प्रतिशत हो तो यह संभव नहीं है, क्योंकि ब्याज दर यूरोपीय केंद्रीय बैंक निर्धारित करता है।

एकल मुद्रा यूरो स्थापित करने के साथ-साथ सभी सहयोगी देशों के नागरिकों को दूसरे देशों में जाकर काम करने की भी छूट दी गई है। इस क्रम में एकल ब्रिक्स करेंसी का अर्थ यह होगा कि भारतीय रुपये एवं चीनी मुद्रा रेनमिनबी का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और इनके स्थान पर ब्रिक्स करेंसी का उपयोग होगा। तब ब्रिक्स का केंद्रीय बैंक ब्याज दर आदि का निर्णय लेगा।

चूंकि ब्रिक्स में चीन का दबदबा है और चीन की आय दूसरे देशों से बहुत अधिक है, इसलिए ब्रिक्स केंद्रीय बैंक में भी चीन का ही दबदबा रहेगा। ऐसी सूरत में उसके द्वारा ऐसी नीतियां लागू की जाएंगी, जो चीन के हित में हों। इसलिए ब्रिक्स मुद्रा को बनाना अव्यावहारिक है, लेकिन रुपये की साख को सुधारा जा सकता है। वर्तमान में हमारा 86 प्रतिशत विदेश व्यापार अमेरिकी डॉलर में किया जाता है, यद्यपि भारत के केवल 15 प्रतिशत निर्यात ही अमेरिका जाते हैं।

शेष 71 प्रतिशत भारत के निर्यात ऐसे हैं, जो अन्य देशों को होते हैं, परंतु उन्हें भी डॉलर में किया जाता है। यदि भारत ने जर्मनी को सौ रुपये का माल बेचा तो बिक्री के बिल पर सौ रुपये न लिखकर केवल 1.1 डॉलर लिखा जाएगा। जर्मनी का क्रेता डॉलर खरीदेगा और उसे भारत को देगा। भारत का विक्रेता उस डॉलर को बेचकर रुपये प्राप्त करेगा। इस प्रक्रिया में भारत और जर्मनी दोनों को बड़ी मात्रा में डॉलर रखने पड़ते हैं। इस प्रक्रिया में डॉलर को अनायास ही बड़ा लाभ होता है।

प्रश्न है कि डॉलर का वर्चस्व किस आधार पर टिका है और निर्यात रुपये में क्यों नहीं किया जाता? वास्तव में रुपये जैसी किसी भी मुद्रा को विश्व व्यापार का माध्यम बनाने के लिए तीन जरूरतें पूरी करनी होंगी। पहली यह कि वह मुद्रा विश्व के तमाम देशों में स्वीकार्य हो। दूसरी जरूरत यह है कि हमारे रुपये की कीमत स्थिर रहे। मान लीजिए आज रुपये और डॉलर की विनिमय दर 80:1 है। आपने 80 लाख रुपये या एक लाख डॉलर के माल का आयात किया, जिसे डॉलर में किया गया, लेकिन आपके आर्डर देने के बाद डॉलर की कीमत बढ़ गई।

ऐसे में अब आपको उसी एक लाख डॉलर के माल का आयात करने के लिए अधिक रुपये अदा करने होंगे। इसी प्रकार धन के संग्रह के लिए भी मुद्रा का स्थिर रहना जरूरी होता है। यदि भारतीय रिजर्व बैंक ने सौ करोड़ रुपये डॉलर में रखे हुए हैं और कुछ समय बाद डॉलर टूट गया तो उसे अनावश्यक हानि होगी। इसीलिए अंतरराष्ट्रीय व्यापार उस मुद्रा में किया जाता है, जो स्थिर रहे। यह ध्यान रहे कि अमेरिका द्वारा डॉलर के वर्चस्व की आड़ में विभिन्न देशों पर प्रतिबंध लगाए जाते हैं।

यदि भारत को अमेरिकी डॉलर के शिकंजे से निकलना है और चीन के शिकंजे में नहीं पड़ना है तो जरूरी है कि हमारी अर्थव्यवस्था का आकार बड़ा हो। इससे विश्व के हर देश में हमारे रुपये की स्वीकार्यता बढ़ेगी। वर्तमान में अपनी अर्थव्यवस्था का आकार अंतरराष्ट्रीय मापदंडों के अनुसार छोटा है, इसलिए हमें अमेरिका अथवा चीनी मुद्रा के दबदबे के बीच चयन करना पड़ रहा है। अमेरिकी डॉलर को छोड़कर चीन की रेनमिनबी को अपनाना कुएं से निकल कर खाई में गिरने जैसा होगा।

भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार को बढ़ाने के लिए पिछले 10 वर्षों में सरकार ने बुनियादी संरचना में भारी निवेश किया है, लेकिन हमने रिसर्च में निवेश कम किया, जिसके कारण नई तकनीक के सृजन में हम पीछे हैं। अपने देश में सामाजिक तनाव अधिक है और पर्यावरण की स्थिति कमजोर है, जिसके कारण विदेशी लोग यहां आना नहीं चाहते और पर्याप्त विदेशी निवेश नहीं आ रहा।

रुपये को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बनाने के लिए महंगाई पर नियंत्रण भी बहुत जरूरी है। जब रुपये का मूल्य स्थिर रहेगा, तभी दूसरे देश रुपये में व्यापार करेंगे। बांग्लादेश को श्रीलंका से व्यापार करना हो तो यह रुपये में तभी किया जाएगा, जब भारत में महंगाई नियंत्रण में हो और रुपये का मूल्य स्थिर हो। महंगाई बढ़ने का मूल कारण सरकार की खपत है, जिसे पोषित करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक भारी संख्या में नोट छापकर सरकार को उपलब्ध कराता है। अतः सरकार को अपनी खपत भी कम करना पड़ेगी।

साफ है कि जब तक हम रिसर्च में निवेश, सामाजिक सद्भाव, पर्यावरण और सरकारी खपत को व्यवस्थित नहीं करेंगे, तब तक रुपया अंतरराष्ट्रीय मुद्रा नहीं बन सकेगा और हमें मजबूरन किसी दूसरी मुद्रा में अपना विदेशी व्यापार करना पड़ेगा, चाहे डॉलर हो या चीन की रेनमिनबी। हालांकि भारत द्विपक्षीय समझौतों से दूसरे देशों से सीधे रुपये में व्यापार को बढ़ावा दे रहा है, जो सही है, परंतु यह आज की जरूरतों से बहुत कम है। बिना अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किए हम अपने रुपये को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा नहीं बना पाएंगे।

(लेखक अर्थशास्त्री हैं)