अवधेश कुमार। हरियाणा विधानसभा चुनाव में आम धारणा यही थी कि कांग्रेस सत्ता में आ रही है, लेकिन नतीजे बिल्कुल उलट रहे। वास्तव में पिछले डेढ़ सप्ताह से हरियाणा की जमीनी स्थिति में बदलाव दिखने लगा था। कुछ कांग्रेस नेता खुद यह मानने लगे थे कि मुकाबला कांटे का हो गया है। इसमें संदेह नहीं कि भाजपा के कार्यकर्ताओं-समर्थकों और उसके मतदाताओं में सरकार और संगठन के व्यवहार पर थोड़ी नाराजगी-निराशा थी, किंतु कांग्रेस की कुछ ऐसी प्रवृत्तियां थीं, जिनमें उनके सामने भाजपा ही विकल्प बची। हरियाणा की जनता ने यह भी देखा कि कांग्रेस के मुकाबले उसे भाजपा की विकास और जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ कहीं बेहतर तरीके से मिला है। यह भी स्पष्ट है कि लोकसभा चुनाव के विपरीत इस बार राज्य के दलित और पिछड़ों ने यह महसूस किया कि उसकी वास्तविक हितैषी भाजपा ही है।

यदि हरियाणा में कांग्रेस लगातार तीसरी बार भाजपा से पीछे रह गई तो इसके लिए वही अधिक जिम्मेदार है। कांग्रेस ने 2014 से ही संगठन, सोच, नेतृत्व और व्यवहार के स्तर पर ऐसा परिवर्तन नहीं किया कि उसके प्रदर्शन में चमत्कारिक बदलाव हो। बावजूद इसके लोकसभा चुनाव में उसने भाजपा की आंतरिक कमजोरी, आरक्षण एवं संविधान खत्म किए जाने के निराधार भय के साथ जातीय विभाजन की बातों से दस में से पांच सीटें हासिल कीं। इससे कांग्रेस को लगा कि थोड़ा परिश्रम करें तो भाजपा को हरा सकते हैं। भूपेंद्र सिंह हुड्डा जैसे अनुभवी नेता एवं प्रभावशाली-बलशाली जाति के चेहरे को संपूर्ण जिम्मेदारी सौंपने से भी कांग्रेस का आत्मविश्वास बढ़ा था। हुड्डा की स्थिति इतनी प्रभावी थी कि केंद्रीय नेतृत्व आम आदमी पार्टी से गठबंधन चाहता था, लेकिन उनके दबाव में पीछे हटा। यह निर्णय स्थानीय स्थिति के मद्देनजर गलत नहीं था, किंतु भाजपा के विरुद्ध आइएनडीआइए की एकजुटता का दावा अवश्य कमजोर पड़ा।

हरियाणा के जनादेश को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से अलग करके नहीं देखा जा सकता। खासकर भाजपा के शीर्ष पर आने के बाद भारतीय विचारधारा से जुड़े मुद्दे हिंदुत्व, राष्ट्रीय एकता-अखंडता, संस्कृति, भाषा, धर्मस्थलों और अल्पसंख्यकों के प्रति विपक्ष का रवैया। ये ऐसे विषय हैं, जो लंबे समय से हर चुनाव में कम या ज्यादा भूमिका निभाते हैं। लोकसभा चुनाव में फैजाबाद से भाजपा की पराजय और सपा की विजय को विपक्ष ने जिस तरह प्रसारित किया, वह राम मंदिर समर्थकों और हिंदुत्व की विचारधारा वाले लोगों के जले पर नमक छिड़कने के समान था। भाजपा समर्थकों को इसकी गहरी टीस थी और जब राहुल गांधी ने कहा कि हमने अयोध्या के विचार को हरा दिया है तो इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। संसद में राहुल गांधी के ‘हिंदू-हिंदू कहने वाले हिंसा करते हैं’ जैसे बयान और साफ दिखती मुस्लिमपरस्ती पर भी प्रतिक्रिया हुई। राहुल ने अमेरिका में सिखों को लेकर ऐसी बातें बोलीं, जो विभाजनकारी थीं।

यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि भाजपा समर्थकों में यह भाव पैदा हुआ कि भले ही हमारी सरकार और पार्टी ने हमें कुछ निराश किया हो, लेकिन हिंदुत्व और देश का सवाल सर्वोपरि है और विपक्ष राष्ट्रीय हितों की परवाह नहीं कर रहा है। इसके बाद भाजपा के जनाधार वाले किसी क्षेत्र में प्रतिद्वंद्वी पार्टी के जीतने की संभावना क्षीण हो जाती है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जहां सामाजिक न्याय और गारंटियों पर फोकस किया और इसके चलते अयोध्या एवं हिंदुत्व के मुद्दे शुरुआती दो चरणों में पीछे चले गए, वहीं हरियाणा में विपक्ष की तुष्टीकरण नीति तथा भारत की एकता-अखंडता को कमजोर करने वाली नीतियों पर प्रहार उसके प्रचार के प्रमुख अंग बन गए।

जहां राहुल गांधी हरियाणा में दलितों की अस्मिता को लेकर सवाल उठाते रहे, वहीं कुमारी सैलजा की भूमिका दलितों के लिए सम्मान का विषय बन गई। उनकी जाति के नाम पर गाली देते हुए वायरल वीडियो के विरुद्ध विपरीत प्रतिक्रिया हुई। हरियाणा में दलितों के सम्मेलन में भाजपा के समर्थन का एलान हुआ। जींद में अति पिछड़ों की रैली में भी ऐसी ही घोषणा हुई। यह सब इसका सूचक था कि लोकसभा चुनाव के समय से स्थितियां बदली हैं। दलितों के बहुमत ने लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को वोट दिया था, लेकिन विधानसभा में उनका मन बदला और इसी कारण परिणाम भाजपा के पक्ष में आया। यह भी स्पष्ट है कि जाट नेताओं ने सत्ता के लिए जैसा व्यवहार किया, उससे दूसरी जातियां थोड़ा सतर्क हुईं। अग्निवीरों का समायोजन करने की घोषणा कर भाजपा ने दुष्प्रचार की काट की। वैसे भी यह जमीन पर वैसा मुद्दा नहीं था, जैसा बाहर दिखाया जा रहा था। यही स्थिति किसानों के संदर्भ में थी। किसानों के नाम पर आंदोलन करने वाले नेताओं ने अपने प्रभाव वाले अंबाला में अनिल विज को हराने के लिए पुरजोर अभियान चलाया, लेकिन वह जीत गए। हुड्डा को लेकर आंतरिक असंतोष भी कांग्रेस को भारी पड़ा।

हरियाणा से भाजपा को कुछ स्पष्ट संदेश मिले हैं। एक तो यह कि अपने मुद्दों पर दृढ़ रहे तथा संगठन एवं उम्मीदवारों के रूप में निष्ठावान लोगों को सामने रखे। दूसरा, संगठन और सरकार अपने समर्थकों-कार्यकर्ताओं से नियमित संवाद करे और उनकी वैध आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सदैव तत्पर रहे। तीसरा, नेतृत्व के स्तर पर व्यक्ति का महत्व रहे, लेकिन केवल उसकी बदौलत चुनाव जीतने की अपेक्षा न करे। कांग्रेस के लिए सीख यह है कि लोकसभा चुनाव में 99 सीटों को लेकर अपने पक्ष में अतिवादी विश्लेषण से बचे और राहुल गांधी एवं उनके रणनीतिकार अति-उत्साह में प्रधानमंत्री, संघ, भाजपा और हिंदुत्व विचारधारा पर उपहासजनक हमले से परहेज रखते हुए सटीक मुद्दों पर राजनीति करें।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)