जागरण संपादकीय: वर्गीय एकता टूटने की चिंता अनुचित, 12 राज्यों में पहले से लागू ये प्रक्रिया
भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विभिन्न राजनीतिक दलों ने जाति संरचना की जड़ों को कमजोर करने एवं वंचित तबकों की भागीदारी के लिए आरक्षण जैसी व्यवस्था को अंतिम जन तक पहुंचाने के लिए उपवर्गीकरण की व्यवस्था लागू करने के कदम उठाए। उत्तर प्रदेश में पहला कदम तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा ने 1975 में छेदी लाल साथी आयोग का गठन करके किया।
केसी त्यागी। सुप्रीम कोर्ट ने कोटे में कोटा यानी आरक्षण के भीतर आरक्षण की इजाजत देने वाले फैसले पर एक बार फिर अपनी मुहर लगा दी है। कोर्ट ने एससी-एसटी के उपवर्गीकरण की अनुमति देने वाले अपने फैसले के विरुद्ध दाखिल दो दर्जन से अधिक पुनर्विचार याचिकाएं खारिज कर दी हैं। कोर्ट ने कहा है कि फैसले में ऐसी कोई खामी नहीं है, जिसके लिए फैसले पर पुनर्विचार करने की जरूरत हो। सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ ने गत एक अगस्त को 6-1 के बहुमत से दिए फैसले में कहा था कि एससी-एसटी वर्ग के ज्यादा जरूरतमंदों को आरक्षण का लाभ देने के लिए राज्य एससी-एसटी वर्ग में उपवर्गीकरण कर सकते हैं, ताकि सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थानों में कुछ पिछड़े एवं एससी, एसटी समूहों के लिए दूसरों की तुलना में ज्यादा आरक्षण सुनिश्चित किया जा सके।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर कई राजनीतिक दल अब भी एक मत नहीं हो पा रहे हैं। उन्हें लगता है कि इससे वर्गीय एकता को खतरा है जिससे आरक्षण व्यवस्था कमजोर हो जाएगी। देखा जाए तो वर्गीय एकता टूटने की उनकी चिंता वास्तविकता को संदर्भित नहीं करती है। यदि उपवर्गीकरण से वर्गीय एकता और चेतना को खतरा होता तो जिन बारह राज्यों में आरक्षण के उपवर्गीकरण की प्रक्रिया पहले से लागू है, उनमें अब तक वर्गीय विभाजन दिखाई देता, जबकि आरक्षण के उपवर्गीकरण से उन बारह राज्यों में वर्गीय एकता मजबूत हुई है, न कि कमजोर हुई है। वर्गीकरण करने वाले प्रदेशों में उत्तर भारत और दक्षिण भारत के दोनों राज्य शामिल हैं। उत्तर भारत में प्रमुखता से बिहार शामिल है जिसमें सबसे पहले कर्पूरी ठाकुर ने वर्ष 1978 में उपवर्गीकरण के सिद्धांत को प्रतिपादित किया, वहीं उसी के सशक्तीकरण की प्रक्रिया को नीतीश कुमार ने जमीन पर पहुंचाने में सफलता प्राप्त की। दक्षिण भारत में तमिलनाडु ने उपवर्गीकरण के सिद्धांत को बेहतरी से लागू करने का काम किया। इन दोनों राज्यों ने वंचितों को समान भागीदारी देने के मामले में बेहतर प्रदर्शन किया है। इसलिए एकता टूटने और आरक्षण प्रक्रिया को कमजोर करने वाले तर्क वास्तविकता से परे प्रतीत होते हैं।
भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विभिन्न राजनीतिक दलों ने जाति संरचना की जड़ों को कमजोर करने एवं वंचित तबकों की भागीदारी के लिए आरक्षण जैसी व्यवस्था को अंतिम जन तक पहुंचाने के लिए उपवर्गीकरण की व्यवस्था लागू करने के कदम उठाए। उत्तर प्रदेश में पहला कदम तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा ने 1975 में छेदी लाल साथी आयोग का गठन करके किया। कर्पूरी ठाकुर और हेमवती नंदन बहुगुणा समकालीन थे और बहुगुणा से पहले बिहार में मुंगेरीलाल कमीशन का गठन हो गया था।
साथी आयोग ने उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग की तीन श्रेणियां विभाजित कीं, जिसमें कुल 29.5 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की। आयोग ने पहली श्रेणी में भूमिहीन और अकुशल मजदूरों को 17 प्रतिशत, दूसरी श्रेणी में दस्तकार और किसानों को 10 प्रतिशत और तीसरी श्रेणी में मुस्लिम पिछड़ी जातियों को 2.5 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश की, लेकिन कई कारणों से बहुगुणा सरकार इन सिफारिशों को लागू नहीं कर सकी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे राजनाथ सिंह ने 2001 में हुकुम सिंह की अध्यक्षता में सामाजिक न्याय समिति का गठन किया था। उसके गठन का प्रमुख उद्देश्य आरक्षण के लाभ की जांच करना था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि आरक्षण का लाभ उन लोगों तक नहीं पहुंचा है जिनके लिए यह लक्षित था। उसने अनुसूचित एवं पिछड़ा वर्ग की सूची को उपवर्गीकृत करने की सिफारिश की, ताकि अतिवंचित तबके भी आरक्षण का लाभ उठा सकें। समिति ने पिछड़ा वर्ग के आरक्षण को तीन वर्गों में बांटने का सुझाव दिया। उसने पहले वर्ग के लिए पांच प्रतिशत, दूसरे वर्ग में शामिल कुल आठ अतिपिछड़ी जातियों के लिए नौ प्रतिशत, तीसरे वर्ग में शामिल 70 सर्वाधिक पिछड़ी जातियों के लिए 14 प्रतिशत आरक्षण की संस्तुति की। इस पर खूब विवाद हुआ। अंततः ये सिफारिशें भी लागू नहीं की जा सकीं।
दरअसल अतिपिछड़ा वर्ग बहुसंख्यक जातियों का विविध समूह है, जिसके अंतर्गत कारीगर, बुनकर, श्रमिक, मछली पालने वाली, नृत्य और गायन करने वाली जातियां एवं बागवानी आदि करने वाली जातियां शामिल हैं। ये जातियां आज भी आरक्षण व्यवस्था में नहीं आ पाई हैं। ये सारी जातियां व्यक्तिगत सेवाएं देने वाली तथा न्यूनतम भूमि का स्वामित्व रखने वाली जातियां हैं। इनमें से कुछ ऐसी भी जातियां हैं, जिनके साथ छुआछूत जैसा सामाजिक भेदभाव होता है। इसलिए ये जातियां अनुसूचित जाति की सूची में रखे जाने की अर्हता रखती हैं। भाजपा का सबसे बड़ा वोट बैंक भी यही अतिपिछड़ी जातियां हैं जिन्हें सरकार से यह उम्मीद है कि वह उनकी भागीदारी के लिए रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट को लागू करेगी, लेकिन अब तक यह रिपोर्ट न प्रकाशित की गई है और न ही इसे लागू किया गया है। इसलिए अतिपिछड़ा वोट बैंक भाजपा से निराश प्रतीत होता दिख रहा है। इसके उदाहरण हालिया लोकसभा चुनाव में देखने को मिले, जहां उत्तर प्रदेश में भाजपा को जबरदस्त झटका लगा।
यदि योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश में इस वोट बैंक को बनाए रखना चाहते हैं तो उन्हें वर्ष 2026 में होने वाले पंचायत चुनाव से पहले पंचायत स्तर पर ओबीसी के लिए आरक्षित ग्राम पंचायत की सीटों का वर्गीकरण करना चाहिए जिससे अतिपिछड़े वोट को लंबे समय तक जोड़े रखा जा सकता है। यह प्रयोग बिहार में नीतीश कुमार कर चुके हैं जिससे आज भी अतिपिछड़ी जातियों का वोट उनके साथ बना हुआ है। यदि अतिपिछड़ों के उत्थान के संदर्भ में कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते हैं तो यह वर्ग भविष्य में नए सामाजिक-राजनीतिक विमर्शों को जन्म दे सकता है।
(लेखक पूर्व सांसद हैं)