ए. सूर्यप्रकाश। मोदी सरकार देश में एक साथ चुनाव कराने को लेकर प्रतिबद्ध दिख रही है। इस संबंध में राम नाथ कोविन्द समिति की सिफारिशों को कैबिनेट ने व्यापक रूप से स्वीकार कर लिया है। अनुच्छेद 370 को हटाने और नागरिकता संशोधन अधिनियम जैसे साहसिक फैसले लेने की पीएम मोदी की क्षमताओं को देखते हुए इस मामले में भी संदेह की गुंजाइश कम ही लगती है।

चुनाव में भाजपा की सीटें घटने के बावजूद इस राह पर आगे बढ़ने की उनकी घोषणा ने तमाम राजनीतिक पंडितों को भी चौंका दिया, जो सोच रहे थे कि अपने दम पर पूर्ण बहुमत न होने से शासन को लेकर उनका रवैया कुछ रक्षात्मक हो जाएगा।

एक साथ चुनाव की दिशा में बहुत सुनियोजित तरीके से आगे बढ़ा जा रहा है। कोविन्द समिति ने इस दिशा में विभिन्न अंशभागियों से राय-मशविरा किया। इनमें राजनीतिक दलों के सदस्य, न्यायविद, प्रशासन एवं चुनाव संचालन से जुड़े लोग शामिल रहे।

जहां कई दल एक साथ चुनाव के विचार को लेकर सशंकित हैं, वहीं कई राष्ट्रीय संस्थानों ने इसे सकारात्मक रूप में लिया है। कोविन्द समिति ने उल्लेख किया है कि भारत निर्वाचन आयोग ने 1983 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की वकालत की थी।

यह भी महत्वपूर्ण है कि आयोग ने ऐसी अनुशंसा तब की थी, जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं और कांग्रेस को संसद में जबरदस्त बहुमत हासिल था। विधि आयोग ने भी 1999 में आई अपनी 170वीं रिपोर्ट में एक साथ चुनाव की पुरजोर हिमायत की थी।

आयोग ने 2018 की अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट में इसे फिर से दोहराया। उसका तर्क था, ‘नागरिकों, राजनीतिक दलों और प्रशासनिक अमले को नियमित अंतराल पर चलने वाले चुनावी चक्र से मुक्ति दिलाने के लिए’ इन चुनावों को एक साथ कराया जाना बहुत आवश्यक है।

आयोग का कहना था कि 1967 तक देश में आम चुनाव और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए। उसके बाद अनुच्छेद-356 के अक्सर होने वाले इस्तेमाल के चलते और कतिपय अन्य कारणों से यह सिलसिला बिगड़ गया। उसने कहा कि एक सामान्य नियम बने कि लोकसभा और विधासभाओं के चुनाव हर पांच वर्ष के अंतराल पर होने चाहिए। साथ ही यह भी कहा कि एक साथ चुनाव से संविधान के मूल ढांचे पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ने वाला।

उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे एमएन वेंकटचलैया की अध्यक्षता वाले संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग ने भी 2002 में एक साथ चुनाव के पक्ष में मत व्यक्त किया था। उस 11 सदस्यीय आयोग में कई ख्यातिप्राप्त न्यायविद, सांसद और विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव रखने वाले लोग शामिल थे। उसमें जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी, जस्टिस आरएस सरकारिया, सोली सोराबजी, के. परासरन और पीए संगमा की सहभागिता रही।

कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने 2015 में इस विषय का अध्ययन किया और ‘भारत को तेज आर्थिक वृद्धि के पथ पर अग्रसर करने के लिए’ एक साथ चुनावों की आवश्यकता को रेखांकित किया।

इसके लिए कई तर्क गिनाए गए, जिसमें एक पहलू बार-बार होने वाले चुनाव के खर्च से बढ़ते आर्थिक बोझ को घटाना था। एक दलील बार-बार चुनाव के चलते लागू होने वाली आचार संहिता से विकास कार्यों और आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति से लेकर सामान्य शासन-प्रशासन से जुड़ी गतिविधियों में गतिरोध से जुड़ी थी, जिससे नीतिगत जड़ता की स्थिति बनती है।

देश के तमाम प्रबुद्ध लोग और प्रतिष्ठित संस्थान एक साथ चुनाव का समर्थन कर चुके हैं, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और वरिष्ठ नेता राहुल गांधी सहित कई विपक्षी नेताओं को इसमें खोट नजर आती है कि यह संविधान की भावना के विरुद्ध होगा। उनका आरोप है कि इससे संघीय ढांचा कमजोर होगा। यह एकदम निराधार है।

यदि एक साथ चुनाव कराने से संघीय ढांचा कमजोर होता तो जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल और डा. बीआर आंबेडकर और अन्य दिग्गज एक साथ चुनाव को लेकर अपनी कोई आपत्ति दर्ज करते। संविधान निर्माताओं ने चुनाव संचालन के लिए निर्वाचन आयोग जैसी सशक्त संवैधानिक संस्था बनाई और उसे पर्याप्त अधिकार भी प्रदान किए।

इस तरह 1967 तक देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ चलते रहे। इन सभी चुनावों में कांग्रेस पार्टी का ऐसा वर्चस्व रहा कि कम्युनिस्ट पार्टी, द सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी जैसे दल चुनावी परिदृश्य पर उभरने के लिए संघर्ष ही करते रहे। वह एकदलीय शासन जैसा दौर रहा।

तब न तो नेहरू और न ही किसी अन्य नेता को ऐसी कोई अनुभूति हुई कि लगभग विपक्ष-विहीन राजनीति संघीय ढांचे या संविधान के अस्तित्व को किसी तरह खतरे में डाल रही है। ऐसे में खरगे और राहुल गांधी के एक साथ चुनाव को लेकर स्वर हैरान करने वाले हैं।

एक साथ चुनाव का क्रम पिछली सदी के सातवें दशक के अंत में भंग हो गया। उसमें ‘आया राम, गया राम’ वाली दलबदलू राजनीति से कुछ राज्यों की विधानसभाओं के अस्थिर होने के साथ ही कांग्रेस का भी दोष रहा, जिसने अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते चुनावों का क्रम तोड़ दिया।

इसकी शुरुआत तब हुई प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होने से एक साल पहले 1971 में ही लोकसभा चुनाव कराने का फैसला किया। इससे यह क्रम टूट गया और विधानसभाओं के चुनाव 1972 में हुए। तब से टूटा हुआ यह क्रम फिर से बहाल नहीं हो पाया है। कांग्रेस पार्टी द्वारा अनुच्छेद 356 के घोर दुरुपयोग से भी बार-बार चुनाव का सिलसिला तेज हो गया। ऐसे में खरगे और राहुल गांधी की एक साथ चुनाव को लेकर आपत्ति हास्यास्पद नजर आती है।

यह सही समय है कि कोविन्द समिति की सिफारिशों पर विचार कर देश को बार-बार चुनावों के बोझ से मुक्ति दिलाई जाए और प्रत्येक पांच वर्ष के अंतराल पर चुनावी कार्यक्रम नियत करना होगा। एक साथ चुनावों से सरकारी खजाने पर बोझ घटेगा।

चुनावी थकान एवं ऊब से भी राहत मिलेगी। सरकारी कामकाज में बार-बार व्यवधान नहीं पड़ेगा। चूंकि कांग्रेस और अन्य के पास एक साथ चुनाव के विरोध का कोई ठोस आधार नहीं, इसलिए उसे खारिज करना ही उचित है। मोदी सरकार को अविलंब एक साथ चुनाव की पहल को लेकर ठोस कदम उठाने चाहिए।

(लेखक लोकतांत्रिक मामलों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)