राजशाही की पालकी ढोता ब्रिटेन, भारत से सीखकर अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को समृद्ध कर सकता है यह देश
ब्रिटेन के शाही परिवार की लोकप्रियता समय के साथ कम होती जा रही है। इसकी समकालीन शक्ति इसके दिखावे में ही निहित है। गत दिनों लंदन की सड़कों पर भी यह भावना प्रदर्शित हुई जहां कुछ प्रदर्शनकारियों ने ‘नाट माय किंग’ के नारे लगाए।
प्रो. रसाल सिंह : पिछले दिनों ब्रिटेन में चार्ल्स तृतीय का पूरी परंपरा और भव्यता से राज्याभिषेक हुआ। समारोह के दौरान उन्होंने इंग्लैंड के चर्च और उसके कानून को बनाए रखने की शपथ ली। इसमें आए तमाम राज्यों के प्रतिनिधियों ने भी मध्यकालीन शैली में राजा और राजतंत्र में अपनी आस्था एवं निष्ठा व्यक्त की। इस समारोह में शामिल होने के लिए भारत से भी उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ गए थे। इससे पहले 1953 में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का राज्याभिषेक हुआ था।
74 वर्षीय चार्ल्स तृतीय को राजा का पद वंशानुगत प्राप्त हुआ है। मां से बेटे को हस्तांतरित यह पद ज्येष्ठाधिकार की सामंती परंपरा द्वारा वैधता प्राप्त करता है। यह मध्यकालीन परंपरा एक परिवार विशेष को ब्रिटेन और कुछ राष्ट्रमंडल देशों का राज्यप्रमुख होने का वंशानुगत अधिकार प्रदान करती है। यह सम्राट के शासन के दैवीय अधिकार को पुष्ट करती है, जो कि आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र के सिद्धांतों के प्रतिकूल है। आज के लोकतांत्रिक समाज में ऐसी मध्यकालीन व्यवस्था को वैधता प्रदान करना और उसका पूरे धूम-धड़ाके से प्रदर्शन करना बहुत हास्यास्पद है। एक उदार लोकतंत्र के भीतर एक वंशानुगत संवैधानिक राजतंत्र की उपस्थिति और महिमामंडन उसमें अंतर्निहित विरोधाभास का प्रकटन है।
देखा जाए तो यह प्रथा आज के समय में अत्यंत बेतुकी है। जिस देश की अघोषित राष्ट्रीय विचारधारा पंथनिरपेक्ष उदारवाद है, उसमें पंथ विशेष को सार्वजनिक जीवन और राजकीय कार्यक्रमों में प्रदर्शित करना विरोधाभासी है। मत-पंथ और राज्य संवेदनशील विषय हैं जिन्हें सावधानीपूर्वक अलग रखने की आवश्यकता होती है। मत-पंथ और राज्य को मिलाना आपत्तिजनक है और सामाजिक विभाजन, अलगाव एवं असहिष्णुता को जन्म दे सकता है।
यह वास्तव में हैरान करने वाला है कि रिकार्ड स्तर पर बेरोजगारी और जीवनयापन के गंभीर संकट से त्रस्त ब्रिटेन के करदाताओं ने दुनिया के सबसे धनी व्यक्तियों में से एक के राज्याभिषेक को वित्तपोषित किया। एक अनिर्वाचित, वंशानुगत राज्यप्रमुख पर इतना सार्वजनिक धन खर्च किया जाना अकल्पनीय है। नि:संदेह ब्रिटेन को अपने मध्यकालीन अतीत की धूमधाम के बजाय वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं एवं चुनौतियों का संज्ञान लेकर उनके समाधान की दिशा में सक्रिय होना चाहिए। यही सार्वजनिक हित में होगा।
ब्रिटेन के शाही परिवार की लोकप्रियता समय के साथ कम होती जा रही है। इसकी समकालीन शक्ति इसके दिखावे में ही निहित है। गत दिनों लंदन की सड़कों पर भी यह भावना प्रदर्शित हुई, जहां कुछ प्रदर्शनकारियों ने ‘नाट माय किंग’ के नारे लगाए। उनके शांतिपूर्ण विरोध को दबाने के लिए नए सार्वजनिक व्यवस्था कानूनों का इस्तेमाल ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पश्चिमी समाज के उदारवादी दावों’ की कलई खोलता है। हालांकि, ब्रिटेन अक्सर अन्य देशों की उनके अधिनायकवादी दृष्टिकोण के लिए आलोचना करता है, लेकिन वह अपने आत्मपरीक्षण में प्रायः असमर्थ रहता है।
‘जो शीशे के घरों में रहते हैं, उन्हें दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकने चाहिए’ यह कहावत ब्रिटेन के तथाकथित संभ्रांत, उदार और पंथनिरपेक्ष समाज के लिए सही सबक और संदेश है। निश्चय ही कथनी और करनी का द्वैत उनकी नैतिक आभा को धूमिल करता है। लंबे औपनिवेशिक अतीत और श्रेष्ठता बोध के बावजूद ब्रिटेन भारत की समृद्ध और वैविध्यपूर्ण संस्कृति, विकसित लोकतंत्र और राजतंत्र की समूल समाप्ति से बहुत कुछ सीख सकता है। निर्वाचित नेताओं/शासकों की अवधारणा (गण व्यवस्था) प्राचीन भारत की सामान्य विशेषता थी, जिसे बहुत बाद में शेष विश्व ने भी अपनाया।
भारत का पूर्ण विकसित संसदीय लोकतंत्र प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की गारंटी देता है। शासन को जवाबदेह, संवेदनशील और पारदर्शी बनाता है। भारतीय लोकतंत्र किसी भी प्रकार के भेदभाव के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करता है (जैसा कि अनुच्छेद 15 में कहा गया है) और गणतंत्रवाद, कानून के समक्ष समानता तथा मत-पंथ एवं राज्य के स्पष्ट अलगाव जैसे मूल्यों में आस्था रखते हुए उनका कार्यान्वयन भी करता है। ये सिद्धांत भारतीय संविधान का आत्मा, आधुनिक भारतीय राज्य की नींव और भारतीय संस्कृति के सनातन मूल्य हैं। भारत के राष्ट्रपति ‘संविधान के संरक्षण, रक्षा और बचाव’ की शपथ लेते हैं, जबकि ब्रिटिश सम्राट ‘स्वधर्म की रक्षा’ की शपथ लेते हैं। ब्रिटेन मध्यकालीन राजशाही के साथ-साथ लोकतांत्रिक प्रणाली का ‘काकटेल’ है।
लोकतंत्र केवल एक राजनीतिक प्रणाली अथवा संरचना मात्र नहीं है, बल्कि यह किसी भी राष्ट्र की आत्मा है। यह इस विश्वास पर आधारित है कि हर इंसान की जरूरतें और आकांक्षाएं समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता, समानता की भावना और शोषणमुक्त दुनिया बनाने की इच्छा ने सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप को जन्म दिया। भारतीय इतिहास में विभिन्न युगों के दौरान नागरिक समाज की यह गहन विचारणा स्पष्ट रूप से दिखाई देती रही है, जिसने लंबी पराधीनता के बावजूद भारत को लोकतंत्र बनाया है।
ब्रिटेन में मौजूद रायल्टी, नोबल्टी, हाउस आफ लार्ड्स और हाउस आफ कामंस जैसे सामाजिक/राजनीतिक पदानुक्रम लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध हैं। कुल मिलाकर भारत का लोकतांत्रिक अनुभव ब्रिटेन को समावेशिता बढ़ाने, संवैधानिक मूल्यों/व्यवस्थाओं को दृढ़ करने, सांस्कृतिक बहुलता और विविधता का सम्मान करने की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करता है। भारत के लोकतांत्रिक सिद्धांतों और प्रथाओं से सीखकर ब्रिटेन अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को और समृद्ध तथा सुदृढ़ कर सकता है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)