पूजा स्थल अधिनियम की संवैधानिकता, राम मंदिर के बाद काशी और मथुरा की तैयारी
अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के बीच काशी में विश्वनाथ धाम-ज्ञानवापी मस्जिद का विवाद भी चर्चा में है और मथुरा का श्रीकृष्ण जन्मस्थान मंदिर-शाही ईदगाह मस्जिद का मामला भी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसलों ने एक नया रास्ता खोल दिया है जिससे पूजा स्थल अधिनियम की संवैधानिकता भी रहे और हिंदू जैन और बौद्ध संप्रदाय को न्याय भी मिल सके।
शशांक राय। कहते हैं कि ईश्वर की अदालत में ही वास्तविक न्याय होता है, पर आजकल तो ईश्वर ही कठघरे में खड़े दिखते हैं। अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के बीच काशी में विश्वनाथ धाम-ज्ञानवापी मस्जिद का विवाद भी चर्चा में है और मथुरा का श्रीकृष्ण जन्मस्थान मंदिर-शाही ईदगाह मस्जिद का मामला भी। काशी में विश्वनाथ मंदिर ने न जाने कितनी बार विध्वंस और नवनिर्माण के पल देखे हैं। वर्ष 1699 में औरंगजेब की सेना ने इस मंदिर को तोड़कर उसके अवशेषों से ही वहां मस्जिद बना दी थी। हिंदुओं ने ज्ञानवापी मस्जिद को अवैध निर्माण के रूप में ही देखा। इसी के चलते 15 अक्टूबर, 1991 को वाराणसी की दीवानी अदालत में कुछ हिंदुओं ने ज्ञानवापी परिसर में पूजा-पाठ और मंदिर निर्माण के लिए एक वाद दायर किया।
इस पर मस्जिद पक्ष ने अर्जी डाली कि पूजा स्थल (विशेष प्रविधान) अधिनियम के चलते यह वाद बहिष्कृत है। यह अधिनियम 15 अगस्त, 1947 के बाद धार्मिक स्थलों के रूपांतरण पर रोक का प्रविधान करता है। अयोध्या विवाद पर फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम के बारे में कहा था कि यह संविधान के पंथनिरपेक्ष मूल्यों को प्रकट करता है। संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, 25, 26, 27, 28 और अन्य प्रविधानों में पंथनिरपेक्षता को स्पष्ट किया गया है।
यह केवल राजनीति नहीं है, जिसने भारत को पंथनिरपेक्ष बनाया। सनातन धर्म से प्रेरित भारतीय जीवनशैली अपने उद्गम से ही सहिष्णुता, समरसता और सह-अस्तित्व से ओतप्रोत रही है। भारत भूमि ने न सिर्फ विभिन्न पंथों को जन्मा, बल्कि अन्य पंथों के अनुयायियों को अपनाया भी है। यह भी सच है कि मध्यकालीन भारत में मंदिरों, गुरुद्वारों, मठों, चैत्य गुफाओं को तोड़कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनाई गईं। इन स्थानों के धार्मिक चरित्र के बारे में विवाद आज तक जारी है, परंतु नरसिंह राव सरकार ने तय किया कि देश इतिहास की कैद से बाहर निकलकर भविष्य की ओर अग्रसर हो। इसी सोच के तहत 1991 में पूजा स्थल कानून लागू हुआ। इस कानून के दायरे से जुड़ा ज्ञानवापी विवाद न्यायालयों के चक्कर काटता रहा।
13 अक्टूबर, 1998 को इलाहबाद हाई कोर्ट ने अंतरिम आदेश के तहत उक्त मुकदमे की कार्यवाही पर रोक लगा दी, परंतु 2018 के एशियन रिसर्फेसिंग आफ रोड एजेंसी बनाम सीबीआइ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्थगनादेश के कारण लंबित मामलों पर चिंता जताते हुए आदेश दिया कि मुकदमों पर लगे स्टे छह महीने बाद खुद खारिज हो जाएंगे। किसी ने उस समय सोचा भी नहीं था कि इस आदेश का असर ज्ञानवापी मामले में भी दिखेगा। 2019 में मंदिर पक्ष ने वाराणसी की दीवानी अदालत में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा विवादित परिसर के सर्वे की मांग की, जो 8 अप्रैल, 2021 को स्थानीय अदालत ने स्वीकार कर ली।
इस पर मस्जिद पक्ष ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका लगाई कि सर्वे संबंधी आदेश गैरकानूनी है। मस्जिद-पक्ष ने अयोध्या फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पूजा स्थल कानून के तहत धार्मिक स्थानों के धार्मिक चरित्र के परिवर्तन के संबंध में किसी भी न्यायालय में लंबित कोई भी कानूनी कार्यवाही समाप्त हो जाएगी और कोई नई कानूनी कार्यवाही शुरू नहीं की जाएगी। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मंदिर पक्ष के इस तर्क को सही माना कि उक्त कानून में धार्मिक चरित्र परिभाषित नहीं है और ज्ञानवापी परिसर का धार्मिक चरित्र अभी भी विवादित है।
मस्जिद पक्ष ने 1927 के दीन मोहम्मद संबंधी फैसले की मदद लेनी चाही, जिसमें मस्जिद वक्फ की संपत्ति बताई गई थी, परंतु 2019 के पंजाब वक्फ बोर्ड बनाम शाम सिंह हरिके मामले में हाई कोर्ट ने कहा था कि वक्फ बनने की सूचना जिन प्रभावित व्यक्तियों को नहीं थी, वह उन पर लागू भी नहीं होगी। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि अयोध्या विवाद को पूजा स्थल अधिनियम से छूट मिली थी, इसलिए इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश बाध्यकारी मिसाल नहीं है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का उक्त फैसला ऐसे समय आया, जब पूजा स्थल अधिनियम के विरोध में कई जनहित याचिकाएं शीर्ष अदालत में लंबित हैं।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह गैर-संवैधानिक है, क्योंकि मध्यकाल में कुछ संप्रदायों के धार्मिक स्थल तोड़कर वहां दूसरे धार्मिक स्थल बनाए गए। इस अधिनियम में 15 अगस्त, 1947 को कटआफ डेट बनाने की वजह से इस तरह के विवादों को सुनवाई का मौका ही नहीं मिला। यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं पर कोई आदेश नहीं दिया है, पर यह उल्लेखनीय है कि उसने ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे के आदेश को रोका नहीं है। उसने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद के सर्वे के आदेश पर भी रोक नहीं लगाई। भारतीय न्यायपालिका के लिए किसी कानून की रचनात्मक व्याख्या कोई नई बात नहीं है। उसकी व्याख्याओं ने अनेक मौकों पर अन्याय को रोका है। सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की संवैधानिकता बरकरार रखते हुए मुस्लिम पतियों को अपनी पत्नियों को इद्दत के बाद भी गुजारे के लिए खर्च देने का आदेश दिया था।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसलों ने एक नया रास्ता खोल दिया है, जिससे पूजा स्थल अधिनियम की संवैधानिकता भी रहे और हिंदू, जैन और बौद्ध संप्रदाय को न्याय भी मिल सके। तथापि न्यायालयों को इसके प्रति सचेत रहना होगा कि उसके फैसलों से कहीं विवादों का पिटारा न खुल जाए और उनके चलते समरसता न प्रभावित हो। भारतीयों की भलाई के लिए सुप्रीम कोर्ट को कुछ दिशानिर्देश देने चाहिए कि कब कहा जा सकता है कि किसी स्थल का धार्मिक चरित्र 15 अगस्त, 1947 को विवादित था?
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं)