डा. ब्रजेश कुमार तिवारी। पिछले दिनों आई ग्लोबल स्टेट आफ सोशल कनेक्शंस की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में लगभग चार में से दो बालिग अकेलापन महसूस कर रहे हैं। इस सर्वे में 140 से अधिक देशों के लोगों को शामिल किया गया था। कृष्ण और सुदामा की दोस्ती जगजाहिर है, पर पिछले कुछ वर्षों से भारत सहित समूची दुनिया ‘दोस्ती की मंदी’ यानी सच्चे दोस्तों की कमी की समस्या से जूझ रही है।

काफी संख्या में लोग अब यह स्वीकार कर रहे हैं कि उनके पास ऐसे दोस्तों की कमी है, जिनके साथ वे अपनी समस्याएं खुलकर साझा कर सकें। सर्वे में पाया गया कि ‘दोस्ती की मंदी’ (फ्रेंडशिप रिसेशन) भविष्य में एक गंभीर संकट बन सकता है, क्योंकि अकेलापन स्वास्थ्य के लिए उतना ही बुरा है, जितना कि एक दिन में 15 सिगरेट पीना। शोध से यह भी पता चला है कि अपने दोस्तों के साथ बिताए जाने वाले समय में हर साल तेजी से कमी आ रही है। इस रुझान के अनुसार भविष्य में भी इस मोर्चे पर सुधार के कोई आसार नहीं दिखते।

मित्रता का कोई नियम नहीं होता, मित्र बिना जीवन नहीं होता। यदि हमारे पास एक भी सच्चा मित्र है तो वह हमें अन्य रिश्तों की कमी का आभास नहीं होने देता। वह आवश्यकता पड़ने पर माता है, पिता है, भाई है, बहन है, दोस्त तो है ही। सच्चा मित्र गुरु के समान सच्चा मार्गदर्शक भी होता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, सच्ची मित्रता में बहुत तेजी से गिरावट आई है। सर्वे के मुताबिक, लगभग 40 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उनका एक भी घनिष्ठ मित्र नहीं है। साल 1990 के समय यह आंकड़ा तीन प्रतिशत था।

इसमें कोई संदेह नहीं कि मित्रता एक ऐसा नायाब संबंध है, जो किसी भी व्यक्ति की खुशियों को बढ़ाने और दुख को कम करने में मददगार साबित होता है। जीवन में सच्चा दोस्त अच्छी सेहत के समान होता है। रहीम के अनुसार सच्चा मित्र वही है, जो विपत्ति आने पर बिना देर किए मदद का हाथ बढ़ाता है। दुख के समय ही दोस्ती का असली सार सामने आता है। सच्चा मित्र वही है, जिसे पता हो कि कब समझना है और कब समझाना है। अगर पुस्तक ज्ञान की कुंजी है तो मित्र पूरा पुस्तकालय है।

इस पृथ्वी पर आते ही कुछ रिश्ते जन्म से मिलते हैं। जैसे मां, पिता, भाई और बहन आदि। दोस्ती उन कुछ रिश्तों में से एक है, जिसे हम चुनते हैं। मित्र तो कई बनते हैं, पर सच्ची मित्रता विरले को ही प्राप्त होती है। दोस्ती में हमारे संस्कारों की अहम भूमिका होती है। किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का दर्पण उसके द्वारा बनाए गए मित्र होते हैं। एक सच्चा दोस्त खोजने का तरीका यह भी है कि हम खुद किसी के सच्चे दोस्त बन जाएं।

आज लोग भीड़ में अकेले घूम रहे हैं और उनके पास चार सच्चे दोस्त भी नहीं हैं। इसका मुख्य कारण लोग स्वयं हैं। वास्तविक जिंदगी में जो अपनत्व और विश्वास की नींव बनती है, वह अटूट होती है, लेकिन आज इंटरनेट मीडिया एवं आभासी (वर्चुअल) दुनिया के रिश्तों में, हम सभी चैटिंग, फोटो शेयरिंग और कमेंट्स में सुकून खोज रहे। अब रिश्ते लाइक्स और कमेंट्स पर ज्यादा निर्भर नजर आते हैं।

मजबूत रिश्ते और दोस्ती तब बनते हैं जब हम सुख-दुख का साथी बनते हैं, लेकिन हम तो अधिक से अधिक फालोअर्स और लाइक्स की होड़ में लगे हुए हैं। हम इतने आत्मकेंद्रित हो गए हैं कि अपने बच्चों को भी दोस्ती में कोई फायदा ढूंढ़ने के संस्कार देने लगते हैं। वास्तव में मजबूत रिश्ता निःस्वार्थ त्याग और समय मांगता है। जब हम रिश्तों को मान देते हैं तो बदले में हमें वहां से भी मान मिलता है। कई अवसरों पर यह देखा गया है कि जब किसी के सामने कोई महत्वपूर्ण कार्य आता है तो लोग अक्सर उसकी सहायता करने से बचने के लिए बहाने बनाने का सहारा लेते हैं और सोचते हैं इससे दोस्ती पर कोई असर नहीं पड़ेगा, पर वही बहाने आगे हमसे रूबरू होते हैं।

हमने वेडिंग प्लानर या इवेंट प्लानर तो सुने थे, लेकिन अब डिजाइन थिंकिंग एवं आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआइ के इस दौर में (फ्यूनरल प्लानिंग) अंतिम संस्कार कंपनियां आ गई हैं। लाकडाउन के समय सेवा भाव से आए ये विचार अब बाजारवाद के युग में पक्के बिजनेस स्टार्टअप बनते जा रहे हैं। यह फ्यूनरल प्लानिंग स्टार्टअप कंपनियां श्मशान की बुकिंग, पंडित की व्यवस्था और शव को श्मशान तक ले जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था भी मुहैया कराती हैं। ये कंपनियां अतिरिक्त चार्ज पर अंतिम यात्रा का लाइव प्रसारण भी उपलब्ध करवा देती हैं।

ये स्टार्टअप कंपनियां भी जानती हैं कि एकल एवं आत्मकेंद्रित हो चुके समाज में रिश्ते निभाने का समय किसी के पास नहीं। कई बार तो न बेटे के पास और न भाई के पास। वास्तव में यह मामला संवेदना और व्यक्तित्व का है। जीवन का अंतिम सत्य यही है कि जो आया है, वह जाएगा जरूर। अहमद फराज ने लिखा है, ‘जिंदगी से यही गिला है मुझे, तू बहुत देर से मिला है मुझे। हमसफर चाहिए हुजूम नहीं, इक मुसाफिर भी काफिला है मुझे।’

कुल मिलाकर दोस्ती और रिश्तों को मजबूत बनाकर रखें, जिससे जिंदगी का आखिरी रास्ता भी अपनों के साथ हो, न कि किराए के लोगों के साथ। यह समय की मांग है कि आभासी दुनिया से बाहर निकलकर रिश्तों को समय दिया जाए, क्योंकि बहुत खामोश रिश्ते ज्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रहते। यह समझा जाना चाहिए कि इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर किसी के कितने भी फालोअर्स हों, वे कठिन समय पर मुश्किल से ही काम आते हैं। वे इंटरनेट मीडिया पर संवेदना के दो शब्द लिखकर कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।

(लेखक जेएनयू के अटल स्कूल आफ मैनेजमेंट में प्रोफेसर हैं)