अतुल कुमार राय। चिंतक जी के पास एक छोटी-सी सरकारी नौकरी थी। जहां सरकार उनको काम करने के लिए नहीं, बल्कि अपना काम दूसरे से करवाने के लिए पैसे दे रही थी और चिंतक जी का जीवन बड़े ही मजे में कट रहा था। एक दोपहर चिंतक जी के एक शुभचिंतक मित्र उनसे मिलने सरकारी कार्यालय पधारे और गर्मी से नहीं, बल्कि चिंतक जी की आराम की नौकरी से जलते हुए बोले…, 'भाई साहब, सातों जन्म का पुण्य जब इकट्ठा होता है, तब जाकर आदमी को आप जैसी आराम की नौकरी मिलती है। …कहिए तो एक नेक सलाह दूं?'

चिंतक जी ने बेमुरव्वत भरे लहजे में पान खाकर कहा, 'पहली बात तो यह है कि कार्यालय में हम किसी की सलाह नहीं मानते हैं, लेकिन आप ठहरे शुभचिंतक आदमी इसलिए आपको बोलने की अनुमति देता हूं।' …शुभचिंतक जी ने तपाक से कहा, 'प्रिय चिंतक, आप इस तरह से कार्यालय की कुर्सी पर निकम्मे की तरह बैठकर सरकार का बजट क्यों बर्बाद कर रहे हैं? इस खाली समय का उपयोग बौद्धिक चिंतन-मनन में कीजिए। देश की आपको बड़ी जरूरत है। देश रसातल में जा रहा है।'

शुभचिंतक जी द्वारा दिया गया चिंतन-मनन का यह विचार बड़ा ही मौलिक और क्रांतिकारी था। हाथ के इशारे से कार्यालय का हर काम करने वाले चिंतक जी ने सिगरेट बुझाकर झट से पूछा, 'तो बताओ मैं किस चीज का चिंतन करूं?' शुभचिंतक जी ने बताया, 'गुरु, आप ठहरे ज्ञानी आदमी। अपने ज्ञान को सिगरेट के धुएं में उड़ाकर देश की हवा और आसपास के लोगों के फेफड़े खराब करना बंद कीजिए और ज्ञान का धुआं उड़ाइए। देखिए कितना भ्रष्टाचार बढ़ गया है। महंगाई रोकने से नहीं रुक रही है। नेता तिकड़मबाजी में व्यस्त हैं, अफसर जुगाड़ में। इस कठिन समय में आप आगे नहीं आएंगे तो कौन आएगा?'

चिंतक जी ने अपनी कुर्सी थोड़ी आगे खिसका ली और पूछा…, 'यह सब तो ठीक है गुरु, लेकिन मुझे चिंतन करने के लिए क्या करना होगा?' शुभचिंतक जी ने कहा, 'भीड़ से दूर एकांत में बैठकर मनन करना होगा। अपने मौलिक विचार हर कहीं और खासकर एक्स, फेसबुक आदि पर रखने होंगे।' चिंतक जी ने कहा, 'लेकिन मुझे तो ये सब प्लेटफार्म चलाने नहीं आते। मैंने तो अपने खाते तक नहीं बना रखे।' शुभचिंतक जी ने कहा, 'कोई बात नहीं, जिनको साइकिल चलाना नहीं आता, वह सरकार तक चला रहे हैं…। मैं आपका इंटरनेट मीडिया चला लूंगा। आप बस चिंतन पर फोकस कीजिए।'

शुभचिंतक मित्र की इस सलाह के बाद चिंतक जी के ज्ञान चक्षु खुल गए। घर लौटे तो देखा केंद्रीय विश्वविद्यालय की ली हुईं तमाम डिग्रियां, तमाम मेडल, तमाम फेलोशिप और पुरस्कार रो रहे हैं। किताबें तो खुलने के इंतजार में धूल फांककर मुरझा गई हैं और पूछ रही हैं कि हे चिंतक, हमारा अंतिम संस्कार अपने ही साथ करोगे या पहले करोगे? चिंतक जी को अपनी बौद्धिक संपदा का हश्र देखकर सचमुच रोना आ गया। ऐसा लगा सरकारी नौकरी की टूटी कुर्सी ने सच में उनके बौद्धिक चश्मे को तोड़ दिया है। आलस्य-प्रमाद और भौतिकवादी जीवन ने उन्हें आत्मकेंद्रित बना दिया है, …लेकिन अब नहीं। अब चिंतन करना होगा, देश बदलना होगा।

चिंतक जी चिंतन की तलाश में देर रात तक बालकनी में टहले फिर भी चिंतन न उपजा। उसके बाद छत पर टहले, फिर भी कोई मौलिक विचार न आया। अलबत्ता पत्नी ने जरूर देख लिया और अपना पत्नी धर्म निभाते हुए ऊंची आवाज में तान मारा, 'आपको घर की चिंता छोड़कर देश की इतनी ही चिंता है तो हिमालय क्यों नहीं चले जाते हैं?' पत्नी के तानों की त्वरा देखकर चिंतक जी का कलेजा कांप गया। उन्हें ऐसा लगा कि गला भी सूख रहा है। वह हिमालय जाने के बजाय सीधे बेडरूम में आ गए। तब समझ में आया कि उनके आस-पास का माहौल ही मौलिक चिंतन लायक नहीं है। इस उबाऊ माहौल में कहां से मौलिक विचार आएंगे? अगर चिंतन करना होगा तो माहौल को ढंग का बनाना पड़ेगा। तभी मौलिक विचार आएंगे। फिर वह ढंग का माहौल बनाने निकल पड़े।