नियमों के तहत सहायता मांगें राज्य: विशेष दर्जे को लेकर दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर विचार की जरूरत
बिहार और आंध्र प्रदेश दोनों ही राज्य मूलतः कृषि आधारित हैं और उनके विभाजन के बाद निश्चित रूप से उनकी राजस्व प्राप्तियों में कमी आई है लेकिन केंद्र की भी अपनी कुछ मजबूरियां हैं। संवैधानिक रूप से भारत में सहकारी संघवाद प्रचलित है जिसके अनुसार यह संघ का दायित्व है कि वह राज्यों के आर्थिक-सामाजिक विकास के प्रति संवेदनशील हो और उनकी सहायता करे।
सीबीपी श्रीवास्तव। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनने के साथ ही इसकी संभावना जताई जाने लगी थी कि राजग के प्रमुख घटक दल टीडीपी और जेडीयू आंध्र और बिहार के लिए विशेष राज्य के दर्जे की मांग कर सकते हैं। बीते दिनों जेडीयू के नेताओं ने विशेष राज्य के दर्जे की मांग दोहरा दी। भारत के संविधान में राज्यों का गठन स्वायत्त प्रशासनिक इकाइयों के रूप में संघ द्वारा किया जाता है।
राज्यों के विकास और उनकी सुरक्षा को देखते हुए संसद को कानून बनाने का अधिकार है और कोई भी राज्य अन्य राज्यों के समान अधिकार प्राप्त करने का दावा नहीं कर सकता। भारत में संसद को यह शक्ति है कि वह कानून के तहत किसी राज्य के लिए विशिष्ट नियमों और शर्तों का निर्धारण कर सकती है। चूंकि राज्य प्रशासनिक इकाइयां हैं और संघ सरकार द्वारा आवंटित संसाधनों के वितरण के लिए उत्तरदायी हैं, अतः उनकी भौगोलिक, सामरिक तथा सामाजिक-आर्थिक दशाओं को देखते हुए उन्हें विशेष सहायता दी जा सकती है।
यहां यह भी उल्लेख करना समीचीन होगा कि प्रशासन से संबद्ध होने के कारण ऐसा कोई उल्लेख संविधान में नहीं है, क्योंकि संविधान शासन व्यवस्था के तीनों अंगों-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को दिशा निर्देश देता है, जिसके अनुरूप विधायिका द्वारा बनाई गई विधियों के अनुरूप कार्यपालिका प्रशासनिक कार्रवाई करती है और विवादों के समाधान के लिए न्यायपालिका उत्तरदायी होती है।
प्रशासनिक सुगमता और राज्यों के विकास पर गौर करते हुए 1969 में पांचवें वित्त आयोग ने विशेष राज्य का दर्जा देने की सिफारिश की थी। इस आधार पर असम, नगालैंड और जम्मू-कश्मीर को यह दर्जा दिया गया था। इनके अतिरिक्त, हिमाचल, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा, अरुणाचल, मिजोरम, उत्तराखंड और तेलंगाना सहित 11 राज्यों को विशेष श्रेणी के राज्य का दर्जा दिया गया है।
संप्रग सरकार के शासन में संसद द्वारा विधेयक पारित करने के बाद आंध्र प्रदेश से अलग होने पर तेलंगाना को विशेष दर्जा मिला था। 14वें वित्त आयोग ने पूर्वोत्तर और तीन पर्वतीय राज्यों को छोड़कर अन्य राज्यों के लिए ‘विशेष श्रेणी का दर्जा’ समाप्त कर दिया था और ऐसे राज्यों में कर हस्तांतरण के माध्यम से संसाधन अंतर को 32 प्रतिशत से बढ़ाकर 42 प्रतिशत करने का सुझाव दिया था।
पिछले कुछ समय से बिहार के साथ आंध्र विशेष राज्य के दर्जे की मांग करते रहे हैं। यह उल्लेखनीय है कि विशेष श्रेणी राज्य विशेष दर्जे से अलग है। विशेष राज्य श्रेणी केवल आर्थिक और वित्तीय पहलुओं से संबंधित है। इस संबंध में संविधान के अनुच्छेद 371 (ए-जे) में कई राज्यों के लिए विशेष प्रविधान किए गए हैं। किसी राज्य को विशेष श्रेणी का राज्य बनने की अर्हता के लिए कई शर्तें निर्धारित हैं, जैसे-राज्य में पर्वतीय क्षेत्र, कम जनघनत्व या जनजातियों की बहुलता, अंतरराष्ट्रीय सीमा की साझेदारी, राज्य में आर्थिक और अवसंरचनागत पिछड़ापन और राज्य के वित्त की गैर-व्यवहार्य प्रकृति। इन शर्तों को ध्यान में रखते हुए अब यह विचार करना आवश्यक है कि आंध्र प्रदेश और बिहार विशेष राज्य का दर्जा क्यों मांग रहे हैं?
आंध्र प्रदेश का तर्क है कि राज्य के विभाजन के बाद उसकी कुल राजस्व प्राप्तियों में कमी आ गई है, जिससे राज्य की राजकोषीय व्यवहार्यता भी कम हो गई है। इसके अलावा यह भी कहा गया है कि राज्य का विभाजन अतार्किक एवं समता के सिद्धांत के विरुद्ध था। जहां तक बिहार की बात है, तो वह विशेष दर्जे की मांग 2008 से ही कर रहा है। जेडीयू की नई कार्यकारिणी ने अपनी यह मांग फिर से रेखांकित की है।
बिहार का यह भी तर्क है कि उसका विभाजन सही तरह नहीं किया गया। वह संसाधनों की अपर्याप्तता का दावा भी करता रहा है। बिहार के दावे में यह भी शामिल है कि उसकी सीमा अंतरराष्ट्रीय सीमा है, जो नेपाल से मिलती है, लेकिन वर्ष 2015 और फिर 2023 में केंद्र सरकार ने ऐसा दर्जा देने की मांग को इस तर्क पर अस्वीकार कर दिया था कि ऐसा दर्जा देने वाली योजना समाप्त कर दी गई है।
बिहार और आंध्र प्रदेश, दोनों ही राज्य मूलतः कृषि आधारित हैं और उनके विभाजन के बाद निश्चित रूप से उनकी राजस्व प्राप्तियों में कमी आई है, लेकिन केंद्र की भी अपनी कुछ मजबूरियां हैं। संवैधानिक रूप से भारत में सहकारी संघवाद प्रचलित है, जिसके अनुसार यह संघ का दायित्व है कि वह राज्यों के आर्थिक-सामाजिक विकास के प्रति संवेदनशील हो और उनकी सहायता करे, लेकिन ध्यान देने वाली बात यह भी है कि क्या राजनीतिक दबाव बना कर ऐसे दर्जे की मांग करना उचित है?
गठबंधन सरकारों की एक बड़ी समस्या यह रही है कि अक्सर उसके घटक दल दबाव समूह के रूप में कार्य करते हैं, जिसका उद्देश्य मूलतः राजनीतिक होता है। यह बहुदलीय राजनीति का एक आलोचनात्मक पक्ष है। क्षेत्रीय राजनीति के मजबूत होने से एक ओर जहां क्षेत्रीय हितों को राष्ट्रीय स्तर तक लाने में सहायता मिली है, वहीं दूसरी ओर इसकी नकारात्मकता यह रही है कि क्षेत्रीय दल अधिकांशतः राजनीतिक दबाव बना कर अपने निजी हित साधने का प्रयास करते हैं। इसे राजनीतिक ब्लैकमेलिंग में रूप में भी देखा जाता है।
इस संदर्भ में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था कि राजनीति जब विकास की दृष्टि से की जाती है तो वह देश के हित में होती है, लेकिन जब राजनीति का उद्देश्य केवल राजनीतिक होता है तो वह हानिकारक सिद्ध होती है। राष्ट्र हित में राजनीतिक दलों द्वारा कार्य किए जाने पर उनके राजनीतिक हित भी साधे जा सकते हैं। अतः दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर ही ऐसे संवेदनशील मुद्दों को संबोधित किया जाना उचित होगा।
(लेखक सेंटर फार अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेंस, दिल्ली के अध्यक्ष हैं)