ए. सूर्यप्रकाश। पूरा देश इस समय राम नाम में रमा हुआ है। अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर बन रहे मंदिर में भगवान के बालस्वरूप की प्राण प्रतिष्ठा के बाद आस्था से ओतप्रोत भावनाओं का ज्वार उमड़ आया है। सदियों पहले आक्रांताओं के हाथों हुए अत्याचार से आहत हुई भारतीय सभ्यता में नवजीवन का संचार हुआ है। गांव, कस्बों से लेकर महानगरों तक लोग स्क्रीन पर ही अपने आराध्य की झलक पाने को उतावले थे। झलक मिलते ही तमाम श्रद्धालुओं की आंखों से श्रद्धा के आंसुओं की धारा झर-झर बहने लगी।

ऐसे माहौल को देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस जरा भी नहीं भांप सकी और उसने प्राण प्रतिष्ठा के आमंत्रण को ठुकरा कर उसमें अनुपस्थित रहने का विकल्प चुना। यह दर्शाता है कि कांग्रेस आम जनता से किस कदर कट चुकी है। न केवल कांग्रेस, बल्कि आइएनडीआइए में उसके सहयोगी भी जन-आस्था के इस महाकुंभ में डुबकी लगाने से दूर ही रहे। जहां इस आयोजन को हिंदुओं ने अपने गौरवबोध से जोड़कर देखा तो इसके बहिष्कार ने कांग्रेस के उस पुराने छद्म पंथनिरपेक्ष रूप से ही परिचित कराया, जो सिलसिला पंडित नेहरू के जमाने से चला आया है।

22 जनवरी की तारीख भारत के आत्मा का उसकी नियति से साक्षात्कार सरीखा अवसर था, जिसे सदियों तक दबाया-कुचला जाता रहा और जिसे अंतत: अपनी आवाज मिल गई। इसके बावजूद कांग्रेस इसका महत्व नहीं समझ पाई। वह भी तब जब पिछले कई चुनावों से उसका निरंतर मानमर्दन होता आया है। हालांकि हिंदुओं के प्रति कांग्रेस का यह रवैया कोई नया नहीं है। हिंदू विरोध का उसका इतिहास बहुत पुराना है। इसके संकेत स्वतंत्रता के तुरंत बाद ही दिखने लगे थे।

स्वतंत्रता के बाद गुजरात में सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में नेहरू ने तमाम अवरोध उत्पन्न किए। उसके उद्घाटन समारोह में शामिल होने जा रहे राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद को उन्होंने ‘सेक्युलर परंपराओं’ की दुहाई देकर रोकने का हरसंभव जतन किया, लेकिन वह उसमें शामिल हुए। सरदार पटेल ने तमाम चुनौतियों को धता बताते हुए सोमनाथ के पुनर्निर्माण को सुनिश्चित किया, जिसे इस्लामिक आक्रांताओं ने कई बार ध्वस्त किया था।

सोमनाथ मंदिर प्रकरण ने कांग्रेस की छद्म-पंथनिरपेक्षता की बुनियाद रखी। इस नीति से असहज नेताओं को महसूस हुआ कि नेहरू को जनभावनाओं का कोई अनुमान नहीं। हालांकि मंदिर पुनर्निर्माण के बीच ही सरदार पटेल का निधन हो गया। उनके निधन के बाद हिंदू भावनाओं के प्रति नेहरू का रवैया और कठोर होता गया। नेहरू के रवैये में बदलाव को उनकी कैबिनेट के ही दो साथियों केएम मुंशी और एनवी गाडगिल के अलावा प्रो. मक्खन लाल ने अपनी पुस्तक ‘सेक्युलर पालिटिक्स, कम्युनल एजेंडा’ में भलीभांति प्रस्तुत किया है।

अपनी पुस्तक ‘गवर्नमेंट फ्राम इनसाइड’ में एनवी गाडगिल ने लिखा कि नेहरू नहीं चाहते थे कि राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में जाएं। गाडगिल के अनुसार, ‘मैंने इस ओर ध्यान दिलाया कि तमाम मस्जिदों और गुंबदों के लिए सरकारी सब्सिडी और अनुदान दिए जाते हैं तो हिंदू मंदिर के पुनर्निर्माण पर कुछ खर्च में कोई हर्ज नहीं। मेरी दृष्टि में पंथनिरेपक्षता का अर्थ सभी धर्म-पंथों की समानता है। करोड़ों हिंदू मूर्तिपूजक हैं और जरूरी नहीं कि वे नेहरू जैसे बौद्धिक हों। हममें से तमाम लोग आस्था के समक्ष नतमस्तक हैं।’

अप्रैल 1951 में एक कैबिनेट बैठक में नेहरू ने केएम मुंशी को फटकार लगाते हुए कहा, ‘सोमनाथ मंदिर पुनर्निर्माण के आपके प्रयास मुझे पसंद नहीं। यह हिंदू पुनरुत्थानवाद है।’ मुंशी ने एक पत्र के माध्यम से नेहरू की आलोचना का उत्तर दिया। उन्होंने लिखा, ‘मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हू्ं कि आज भारत की सामूहिक चेतना उन तमाम चीजों की तुलना में अधिक प्रसन्न है, जो चीजें हमने कीं या फिर कर रहे हैं। सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण हमारे लोगों को धर्म की परिशुद्ध अवधारणा के साथ ही अपनी क्षमताओं की मुखर चेतना प्रदान करेगा।’ हिंदू पुनरुत्थानवाद के आरोपों का भी उन्होंने तार्किक रूप से प्रतिकार किया। केएम मुंशी द्वारा नेहरू को लिखे उस पत्र को अयोध्या के संदर्भ में रखकर देखें तो लगेगा कि हमारी सभ्यतागत क्षमताओं और चेतना को लेकर उनका दृष्टिकोण कितना सही था।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कांग्रेस दशकों तक हिंदू विरोध के उसी जाल में उलझी रही। मनमोहन सिंह सरकार के दौरान आया सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम (न्याय और क्षतिपूर्ति तक पहुंच) विधेयक इसका एक बड़ा उदाहरण है। इस विधेयक का मूल मसौदा सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने तैयार किया था। इस विधेयक की मंशा यही थी कि किसी भी तरह के सांप्रदायिक टकराव में अल्पसंख्यक समुदाय को ही सदैव पीड़ित पक्ष के रूप में देखा जाएगा और संदेह की सुई बहुसंख्यकों पर होगी। इस विधेयक के तमाम प्रविधान ऐसे थे कि यदि उसके हिसाब से कदम नहीं उठाए जाते तो पुलिस अधिकारियों और सरकारी कर्मियों को दंडित किया जाता।

कांग्रेस के दौर में ही सच्चर कमेटी ने सैन्य बलों में सांप्रदायिक आधार पर गणना का प्रस्ताव रखा तो रंगनाथ मिश्रा आयोग विश्वविद्यालयों में सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था चाहता था। ये हिंदू विरोधी कदम ही थे। असल में नेहरू के दौर में न तो कोई हिंदुओं की हितैषी पार्टी थी और न ही नरेन्द्र मोदी जैसा दमदार नेता, जिसके चलते कांग्रेस नेहरू के सोमनाथ विरोधी रवैये के बाजवूद अपना वजूद बचा ले गई। आज की तस्वीर बिल्कुल अलग है। प्राण प्रतिष्ठा का बहिष्कार कांग्रेस के लिए ऐतिहासिक भूल सिद्ध होगी।

(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)