बेनकाब होते पश्चिम के दोहरे मानदंड, जो पश्चिमी देश जिन उपायों को अलोकतांत्रिक बताकर दूसरों को उपदेश देते रहे, वही आज उनका आसरा ले रहे
वर्ष 1991 तक विश्व दो-ध्रुवीय था। वामपंथ नीत सोवियत संघ के विघटन के बाद माना जाने लगा कि विश्व में अमेरिका के नेतृत्व वाले केवल एक ही ध्रुव का प्रभुत्व रहेगा। हालांकि आज दुनिया बहुध्रुवीय हो चुकी है। इसमें सत्ता के कई केंद्र बन चुके है। इसमें एक अत्यंत शक्तिशाली ‘राज्यहीन’ परंतु बिना उत्तरदायित्व वाला समूह है। किसी उपयुक्त संज्ञा के अभाव में इस वर्ग को ‘वोक’ कहते हैं।
बलबीर पुंज। अमेरिका और यूरोप के कई विश्वविद्यालयों में फलस्तीन के साथ-साथ आतंकी संगठन हमास के समर्थन में प्रारंभ हुआ आंदोलन यहूदियों-इजरायल के प्रति घृणा में बदल गया है। इसमें ‘हम हमास हैं’ और ‘हमास जिंदाबाद’ जैसे नारों के साथ इजरायल पर फिर से नृशंस जिहादी हमलों को दोहराने की कामना की जा रही है। इससे याद आ रहा है कि भारत में नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए विरोधी प्रदर्शनों में क्या हुआ था?
तब सीएए के विरुद्ध कई प्रदर्शनकारियों ने मजहबी नारा बुलंद किया था। उसी दौरान राजधानी दिल्ली में भीषण दंगा भड़का था। इसी तरह जब कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ किसानों के एक वर्ग ने आंदोलन किया, तब एक वीडियो में खालिस्तान समर्थकों द्वारा प्रधानमंत्री मोदी का हश्र पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तरह करने की धमकियां दी गई थीं।
जिस तरह भारत में किसान आंदोलन और सीएए-विरोधी प्रदर्शनों को विपक्षी दलों के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन से राष्ट्रविरोधी शक्तियों ने ‘हड़प’ लिया था, उसी तरह अमेरिका में भी कई विश्वविद्यालयों ने छात्रों के प्रदर्शन में बाहरी लोगों के शामिल होने की पुष्टि की है। जिन व्यक्तियों-समूहों पर भारत में सीएए-विरोधी प्रदर्शनों और किसान आंदोलन के वित्तपोषण का आरोप लगा था, लगभग उन्हीं लोगों की भूमिका अमेरिकी विश्वविद्यालयों में इजरायल-यहूदियों के खिलाफ छात्रों को भड़काने में सामने आ रही है।
इसमें सबसे प्रमुख नाम अमेरिकी धनाढ्य जार्ज सोरोस का है, जो प्रधानमंत्री मोदी के प्रति भी अपनी घृणा खुलकर व्यक्त कर चुका है। प्रदर्शनकारी छात्रों को जिस ‘स्टूडेंट फार जस्टिस इन फलस्तीन’ का समर्थन मिल रहा है, वह सोरोस की कई संस्थाओं द्वारा वित्तपोषित है। यहूदी विरोधी आंदोलन को उन कट्टरपंथी छात्रों द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है, जिन्हें सोरोस द्वारा धनपोषित ‘यूएस कैंपेन फार फलस्तीनी राइट्स’ से पैसा मिलता है। यह समूह फलस्तीन के समर्थन में प्रदर्शन करने के एवज में छात्रों को अच्छे-खासे पैसे दे रहा है।
भारत में भी सरकार-विरोधी आंदोलनों में प्रदर्शनकारियों के लजीज भोजन और आरामदायक अस्थायी आवास में ठहरने की तस्वीरें सामने आई थीं। ठीक उसी तरह अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्रदर्शनकारी छात्रों के लिए लजीज भोजन के साथ प्रदर्शनस्थल पर कई दिनों तक जमे रहने के लिए एक जैसे टेंटों की व्यवस्था की गई है, जिनकी एक ही स्रोत से आनलाइन खरीद हुई है। अमेरिकी विश्वविद्यालयों में छात्रों की अराजकता और उनकी बेतुकी मांगों से आजिज आ चुकी पुलिस इन टेंटों पर बुलडोजर चला रही है। भारत में ऐसा कुछ किया गया होता तो अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश आसमान सिर पर उठा लेते।
भारत में ‘शाहीन बाग’ और ‘सिंघु बार्डर’ पर महीनों ऐसे अराजक प्रदर्शन चले, जैसे अमेरिका मे कुछ दिनों से चल रहे हैं और जिनसे वह सख्ती से निपट रहा है। अमेरिका में छात्र आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में वहां की संसद द्वारा पारित यहूदी-विरोधी कानूनी परिभाषा के विस्तार हेतु विधेयक महत्वपूर्ण हो जाता है। इस विधेयक के कानून बनते ही वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडन या भविष्य में किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति को यहूदी-विरोधी भावना को बढ़ावा देने वाले और इजरायल को निशाना बनाने वाले संस्थानों के वित्तपोषण और अन्य संसाधनों पर प्रतिबंध लगाने की अनुमति मिल जाएगी। कल्पना कीजिए कि यदि भारत में ऐसा कोई हिंदू समर्थित कानून मोदी सरकार संसद में पारित कर दे तो अमेरिका और यूरोपीय देश हमें सहिष्णुता-समरसता आदि विषयों पर उपदेश देने लगेंगे।
जो अमेरिकी शिक्षण संस्थान इस समय यहूदी-विरोधी अभियानों का केंद्र बने हुए हैं, उन्हीं से एक रटगर्स विश्वविद्यालय वर्ष 2021 के ‘डिस्मेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व’ सम्मेलन का हिस्सा भी बन चुका है। इसके उलट भारत में शाहीन बाग से लेकर कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान गणतंत्र दिवस पर अराजकता के मामले में मोदी सरकार ने धैर्य का परिचय दिया। तब अमेरिका, कनाडा के अलावा कई यूरोपीय देश भारत को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ और ‘मानवाधिकार’ आदि पर उपदेश दे रहे थे। जबकि कनाडा में ट्रक चालकों के प्रदर्शन की स्थिति में वहां सख्त आपातकाल लगा दिया गया था। आज अमेरिका में प्रदर्शनकारी छात्रों को निर्ममता से खदेड़ा जा रहा है। यहां तक उस महिला प्रोफेसर को भी नहीं बख्शा गया, जो पुलिसिया कार्रवाई से छात्रों को बचाने का प्रयास कर रही थीं।
वर्ष 1991 तक विश्व दो-ध्रुवीय था। वामपंथ नीत सोवियत संघ के विघटन के बाद माना जाने लगा कि विश्व में अमेरिका के नेतृत्व वाले केवल एक ही ध्रुव का प्रभुत्व रहेगा। हालांकि आज दुनिया बहुध्रुवीय हो चुकी है। इसमें सत्ता के कई केंद्र बन चुके है। इसमें एक अत्यंत शक्तिशाली ‘राज्यहीन’, परंतु बिना उत्तरदायित्व वाला समूह है। किसी उपयुक्त संज्ञा के अभाव में इस वर्ग को ‘वोक’ कहते हैं। यह समूह छोटा, अति-मुखर और आक्रामक है, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी सरकारों को उनके एजेंडे को लागू करने से रोकने एवं व्यवस्था को पंगु करने का प्रयास करता है।
वाम-फासिस्ट वैचारिक-अधिष्ठान से प्रेरित यह गिरोह, बिना किसी अपराधबोध के जनादेश के हरण में पारंगत है। इससे जुड़े लोग मानते हैं कि शेष समाज निर्णय लेने में असमर्थ है, लिहाजा उन्हें ही उसका भला करने का दैवीय अधिकार प्राप्त है। यह गिरोह ‘शांतिपूर्ण-विरोध’ की आड़ में लंबे समय तक धरना-प्रदर्शन, हिंसक आचरण, जनजीवन में व्यवधान और शासन-प्रशासन को डराने-धमकाने की नीति अपनाता है। स्थिति नियंत्रण से बाहर होने पर जब सत्ता-अधिष्ठान बलप्रयोग पर विवश होता है, तब यही कुनबा स्वयं को पीड़ित बताने के लिए मनगढ़ंत नैरेटिव गढ़ना शुरू कर देता है। तात्कालिक सियासी लाभ के लोभ में अवसरवादी दल भी इनके पक्ष में खड़े हो जाते है।
जिस ‘टूलकिट’ का भारत में सीएए और कृषि-सुधार विरोधी प्रदर्शनों में उपयोग हुआ था, अब जब अमेरिका उसका शिकार बना है तो उसकी आंखें खुल रही हैं। विडंबना देखिए कि अराजकता को समाप्त करने हेतु जिन उपायों को अक्सर अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश दमनकारी और अलोकतांत्रिक बताते हुए निंदा करते हैं, वे उनका कहीं अधिक भयंकर रूप में अपने यहां बिना किसी ग्लानि-भाव के उपयोग कर रहे है। क्या यह स्वयंभू लोकतांत्रिक देशों द्वारा दोहरे मापदंड अपनाने की पराकाष्ठा नहीं?
(स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकोलोनाइजेशन आफ इंडिया’ पुस्तक के लेखक हैं)